मन से धूल नहीं हटानी, मन को साफ नहीं करना, मन ही तो धूल है, जिसने दर्पण को ढंका है। उसे छोड़ो और अलग करो, तब सत्य प्राप्त होता है।'
विचार संग्रह मन है और विचार बाहर से आये धूलिकण हैं। उन्हें अलग करना है। उनके हटने पर जो शेष रह जाता है, वह निर्दोष चैतन्य सदा से ही निर्दोष है। निर्विचार में, इस अ-मन की स्थिति में, उस सनातन सत्य के दर्शन होते हैं, साधना का साध्य वही है।
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