Thursday, December 24, 2015

‘मैं’ की भावना

सुप्रभात जी

यद्यपि इस ‘मैं’ की भावना का अस्तित्व नहीं के बराबर है, फिर भी यह निकलती नहीं। यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है। अपनी आत्मा और परमात्मा के बीच यह ही एकमात्र परदा है, जिसके कारण परमात्मा से मिलन नहीं हो पाता।
जिस जड़ माया के संयोग से चेतन के अन्दर ‘मैं’ की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। उस माया का  अस्तित्व  महाप्रलय के पश्चात् नहीं रहता, फिर भी यह ‘मैं’ इतनी शक्तिशालिनी है कि किसी के भी अन्दर से यह निकल नहीं पाती।
अपने अन्दर से मैं (अहम्) की भावना को जड़मूल से नष्ट कर देना तथा उसे निकाल देना अध्यात्म जगत् की बहुत बड़ी उपलब्धि है, किन्तु इस उपलब्धि पा कर भी उसे बाहर जाहिर न होने देना अर्थात् उसे भुला देना सर्वोच्च मंजिल है।
यदि कोई व्यक्ति अपने अहम् का परित्याग कर विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन चुका है, किसी भी बाते पर उसके मन में कोई विकार नहीं पैदा होता है, किन्तु इस उपलब्धि को वह सबसे कहता फिरता है तो निश्चित् रूप से अन्तर्मन में कहीं न कहीं ‘मैं’ की ग्रन्थि बैठी हुई है। परन्तु जिसने कथनी की परिधि (सीमारेखा) को भी पार कर लिया अर्थात् अपने मुख से अपनी उपलब्धि को न तो कहता है और न सोचता है, निश्चित् रूप से उसके धाम हृदय में परमात्मा की बैठक होती है।

प्रणाम जी

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