Tuesday, May 31, 2016

सुप्रभात जी

तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम आत्मा हो शुद्ध आनंद स्वरूप व चेतन जबकी यह संसार जड व दुख का घर है इसलिय तुम्हारा इस से संयोग कैसे हो सकता है.. तुम शुद्ध हो, जब तुम्हारा और संसार का मेल ही नही है तो तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) मेल को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥
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प्रणाम जी

Monday, May 30, 2016

हे सत्यमार्गीयों ये जीवन जल की उतुंग तरंगों के समान चंचल है । यौवन का सौन्दर्य भी कुछ ही दिनों का मेहमान है । धन-सम्पत्ति हवाई महल के समान है । सुख-भोग वर्षाकालीन विद्युत की चमक के समान क्षण भर की झलक मात्र है । प्रेमिकाओं का आलिंगन भी स्थायी नहीं है । अतः संसार के भय रूपी सागर से पार होने के लिए एकमात्र सच्चिदानन्द परब्रह्म में ही ध्यान लगाओ । ब्रह्म रूपी आनन्द का अनुभव करने वाला मनुष्य ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझता है । उस परमानन्द के समक्ष उसे तीनो लोकों का राज्य भी फीका प्रतीत होता है । वास्तविक और विशुद्ध आनन्द तो उसी में है । वह ब्रह्मानन्द तो निरन्तर बढ़ता ही जाता है । उसको छोड़कर और सभी सुख तो क्षणिक ही हैं । अतः सभी को उसी सच्चिदानन्द परब्रह्म में मन लगाना चाहिए ।यही सत्य मार्ग है...
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प्रवीन का सादर प्रणाम जी

Tuesday, May 17, 2016

सुनो  रे  सतके  बनजारे,  एक  बात   कहूं  समझाई।
या फंद बाजी रची माया की, तामें सब कोई रहया उरझाई।।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर में मोह करना, मल का मोह करना हुआ । क्या यह उचित है ?  महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है । www.facebook.com/kevalshudhsatye
यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं .
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प्रणाम जी

Thursday, May 12, 2016

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इस संसार में सुख और दुःख दोनों नहीं हैं. इस पर गहराई से विचार करना चाहिये.
सुख की वास्तविक परिभाषा है 'यो वै भूमा तत्सुखम' अर्थात् जो अनंत मात्रा का हो, अनंत काल के लिये मिले, कभी छिने ना और उस पर कभी दुःख का अधिकार न हो.
संसार की किसी वस्तु में ऐसी बात नहीं होती. वह सुख सीमित होता है, क्षणिक-नश्वर होता है, प्रतिक्षण घटमान होता है और एक अवस्था में उसी वस्तु से दुःख मिलने लगता है.
दूसरी बात कि अगर किसी वस्तु में सुख होता तो वह सबको मिलता और सदा मिलता. संसार में ऐसा भी नहीं होता. शराब से शराबी को सुख तो एक कर्मकांडी को घोर दुःख होता है.
वास्तव में संसार की किसी वस्तु में जितना स्वार्थ या सुख हम मान लेते हैं, बस उसी का चिंतन होने लगता है, फलस्वरूप उसी में आसक्ति हो जाती है फिर उसी की कामना बनने लगती है.
यह कामना जितनी बलवती होती है उस वस्तु की प्राप्ति में उतना ही सुख हमें मिलता है और अगर वस्तु न मिले या छिन जाय तो उतनी ही मात्रा का दुःख हमको मिलता है.
अर्थात् सुख या दुःख वस्तु में नहीं होता, हमारे मानने पर निर्भर करता है. अगर हम सुख न मानें तो दुःख भी कभी न मिले.
किसी भी वस्तु में सुख मान लेने से उसमे आसक्ति हो जाती है, और इससे कामना पैदा हो जाती है. यह कामना मन का सबसे बड़ा रोग है.

संसार में आनंद नहीं है, परमात्मा ही आनंद है यह दृढ़ निश्चय करके बार बार परमात्मा में ही आनंद का चिंतन करने से परमात्मा में ही आसक्ति हो जायेगी और फिर परमात्मा की ही कामना होगी..
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प्रणाम जी

Sunday, May 8, 2016

सुप्रभात जी

प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही स्वाभाविक रूप से चाहता है, जैसे अग्नि सदा ही ऊपर सूर्य की ओर उठती है, क्योंकि वो सूर्य का अंश है. ऐसे ही हम आत्माऐं परमात्मा के अंश हैं.
वेदों में उन परमात्मा का एक नाम 'आनंद' कहा गया है. आनंद और परमात्मा दोनों ही पर्यायवाची शब्द है. परमात्मा में आनंद है, ऐसा नहीं है. वास्तव में परमात्मा ही आनंद है, आनंद ही परमात्मा है.
उसी आनंद के अंश होने के कारण हम आनंद ही चाहते हैं, आनंद ही चाह सकते हैं. यही हमारा सहज स्वभाव है. कोटि कल्प प्रयत्न करके भी हम कभी दु ख नहीं चाह सकते.
अर्थात समस्त आत्माऐं आनंद की ही प्रेमी हैं यानि की परमात्मा की ही प्रेमी , उन्ही से ही प्रेम करने वाले. अतएव समस्त चराचर जीव आस्तिक हैं, निरंतर आस्तिक परमात्मा के आस्तिक..
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प्रणाम जी

Friday, May 6, 2016

सुप्रभात जी

हे आत्मा! इस संसार की माया में फँस कर झूठे सुख प्राप्त करने की लालसा में तूं स्वयं ही परमात्मा से अलग हो जाती है| वास्तविकता तो यह है कि  परमात्मा तो तुझ से दूर नहीं हैं| तू ही अज्ञानता में फँसकर झूठ का आवरण खड़ा कर रही है| वास्तव में तेरे और परमात्मा के तेज के बीच कोई पर्दा नहीं है..वह तो तेरे ह्रदय में ही है..और तू उनके ह्रदय में है..
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प्रणाम जी
खुली किताब है परमात्मा तुम पढ़ो तो सही
तुम्हे जकडा है खुदके बनाऐ खुदाने, ऐ पत्ते बहोत आनंद है उन्मुक्त हवा में तुम झड़ो तो सही..

अपना ग्यान मत दबाओ किसी के कहने पर, मत ढ़ंडो भाहर फूटनेदो खुदका अंकुर, खुदसे ही निकलेगी यह धारा, कभी खुदपे अड़ो तो सही
खुली किताब है परमात्मा तुम पढ़ो तो सही..

बेफिक्र मस्ताना बनजा, चट्टान बन लहरों से तनजा, खुदकी कश्ती से भी पार पहुंचते हैं ऐ राही,किनारो कि परवाह छोडकर प्रवीण तुम बढ़ो तो सही..
ऐ पत्ते बहोत आनंद है उन्मुक्त हवा में तुम झड़ो तो सही..
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प्रणाम जी

Tuesday, May 3, 2016

सुप्रभात जी

संसार के अभाव से वैराग्य है अगर तो वो संसार का वैराग्य नहीं है, जेसे आपके पास धन नहीं है, और धन से वैराग्य है, जेसे आपको बेटा नहीं हे और बेटे से वैराग्य है, तो यह सही वैराग्य नहीं है। यह तो संसार के अभाव से वैराग्य है , संसार से वैराग्य नहीं है। सही वैराग्य तो तब माना जायेगा जब आपके पास सब कुछ हो जैसे माँ भी हो, बाप भी, बेटा भी हो, धन भी हो और आप उन सबकी सेवा करते हुये निर्लेप रहते हुये एक मात्र परम सत्य परमात्मा को धारण किय रहें । यह है सच्चा वैराग्य।
   **वैराग्य आंत्रिक विषय है शारीरीक नही..
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प्रणाम जी

Monday, May 2, 2016

आतम तो फरामोस में, भई आड़ी नींद हुकम|
सो फेर खड़ी तब होवहीं, रूह दिल याद आवे खसम||

आनंद की अंशी आत्मायें याहां विपरीत विषय के संसार में भ्रम की नींद में है| यह नींद भी परमात्मा के आदेश से आवरण रूप में बनी है| जब आत्माओं के हृदय में श्री परमात्मा अर्थात सवंय का विशय का स्मरण हो आएगा, तभी ब्रह्मात्मएँ जागृत हो पाएँगी....
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प्रणाम जी

Sunday, May 1, 2016

इन हक का इसक दुनी मिने, न पाइए लदुन्नी बिन|
बिना इसक न इलम आवही, दोऊ तौले अरस परस वजन||
(सागर)

वस्तुतः तारतम धारणा के बिन इस नश्वर जगत में परब्रह्म परमात्मा के शाश्वत दूैत में अदूैत प्रेम का अनुभव नहीं किया जा सकता| यद्यपि प्रेम के बिना सत्य पहचान प्राप्त नहीं हो सकती, किन्तु दोनों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि दोनों का पारस्पररिक गहन व समान महत्त्व है...

प्रणाम जी