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इस संसार में सुख और दुःख दोनों नहीं हैं. इस पर गहराई से विचार करना चाहिये.
सुख की वास्तविक परिभाषा है 'यो वै भूमा तत्सुखम' अर्थात् जो अनंत मात्रा का हो, अनंत काल के लिये मिले, कभी छिने ना और उस पर कभी दुःख का अधिकार न हो.
संसार की किसी वस्तु में ऐसी बात नहीं होती. वह सुख सीमित होता है, क्षणिक-नश्वर होता है, प्रतिक्षण घटमान होता है और एक अवस्था में उसी वस्तु से दुःख मिलने लगता है.
दूसरी बात कि अगर किसी वस्तु में सुख होता तो वह सबको मिलता और सदा मिलता. संसार में ऐसा भी नहीं होता. शराब से शराबी को सुख तो एक कर्मकांडी को घोर दुःख होता है.
वास्तव में संसार की किसी वस्तु में जितना स्वार्थ या सुख हम मान लेते हैं, बस उसी का चिंतन होने लगता है, फलस्वरूप उसी में आसक्ति हो जाती है फिर उसी की कामना बनने लगती है.
यह कामना जितनी बलवती होती है उस वस्तु की प्राप्ति में उतना ही सुख हमें मिलता है और अगर वस्तु न मिले या छिन जाय तो उतनी ही मात्रा का दुःख हमको मिलता है.
अर्थात् सुख या दुःख वस्तु में नहीं होता, हमारे मानने पर निर्भर करता है. अगर हम सुख न मानें तो दुःख भी कभी न मिले.
किसी भी वस्तु में सुख मान लेने से उसमे आसक्ति हो जाती है, और इससे कामना पैदा हो जाती है. यह कामना मन का सबसे बड़ा रोग है.
संसार में आनंद नहीं है, परमात्मा ही आनंद है यह दृढ़ निश्चय करके बार बार परमात्मा में ही आनंद का चिंतन करने से परमात्मा में ही आसक्ति हो जायेगी और फिर परमात्मा की ही कामना होगी..
Sarsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
इस संसार में सुख और दुःख दोनों नहीं हैं. इस पर गहराई से विचार करना चाहिये.
सुख की वास्तविक परिभाषा है 'यो वै भूमा तत्सुखम' अर्थात् जो अनंत मात्रा का हो, अनंत काल के लिये मिले, कभी छिने ना और उस पर कभी दुःख का अधिकार न हो.
संसार की किसी वस्तु में ऐसी बात नहीं होती. वह सुख सीमित होता है, क्षणिक-नश्वर होता है, प्रतिक्षण घटमान होता है और एक अवस्था में उसी वस्तु से दुःख मिलने लगता है.
दूसरी बात कि अगर किसी वस्तु में सुख होता तो वह सबको मिलता और सदा मिलता. संसार में ऐसा भी नहीं होता. शराब से शराबी को सुख तो एक कर्मकांडी को घोर दुःख होता है.
वास्तव में संसार की किसी वस्तु में जितना स्वार्थ या सुख हम मान लेते हैं, बस उसी का चिंतन होने लगता है, फलस्वरूप उसी में आसक्ति हो जाती है फिर उसी की कामना बनने लगती है.
यह कामना जितनी बलवती होती है उस वस्तु की प्राप्ति में उतना ही सुख हमें मिलता है और अगर वस्तु न मिले या छिन जाय तो उतनी ही मात्रा का दुःख हमको मिलता है.
अर्थात् सुख या दुःख वस्तु में नहीं होता, हमारे मानने पर निर्भर करता है. अगर हम सुख न मानें तो दुःख भी कभी न मिले.
किसी भी वस्तु में सुख मान लेने से उसमे आसक्ति हो जाती है, और इससे कामना पैदा हो जाती है. यह कामना मन का सबसे बड़ा रोग है.
संसार में आनंद नहीं है, परमात्मा ही आनंद है यह दृढ़ निश्चय करके बार बार परमात्मा में ही आनंद का चिंतन करने से परमात्मा में ही आसक्ति हो जायेगी और फिर परमात्मा की ही कामना होगी..
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