Saturday, August 27, 2016

*अदैूत*

सुप्रभात जी

अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अदूैतअंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अदूैतअंश बिछुड़ कैसे सकता है? अदूैत तो अदूैत ही होता है।ये हो सकता है तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
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बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। तुमहारी नजर जीव की नजर से मिली, जिसे कह देते है कि तुम सोए, जीव की मान्यता से उसका जो मान्यता का अस्तित्व बना , जिसे कहते है की तुमने सपना देखा, कि सपने में तुम जीव की मान्यता का रूप हो गए। अब जागने पर तुम पूछो कि हम ये क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है।कयोंकि तुम हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? मान्यता का अस्तित्व है ही नही। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा अर्थात जीव की मान्यता से मिले।  जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम मान्यता वाला रूप नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि वही हो । यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।
गीता भी यही कहती है..
'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने जिस से जोड लिया, तुम वही हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*

वो कया है ?

वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
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प्रणाम जी

Wednesday, August 24, 2016

शून्य मरे अजपा मरे अनहद हूं मरजाय,
राम स्नेही न मरे, कहे कबीर समझाय ||
( कबीर )

शून्य या निराकार नाशवान है, अजपा जाप भी प्राणहीन है अर्थात ये भी शरीर के साथ नष्ट हो जाता है, और अनहद नाद भी असत्य व लय होने वाला है.. परन्तु जो परमात्मा से अदूैत भाव में रहते हैं वे अदूैत परमात्मा के साथ सदा स्नेह अर्थात अखंड आनंद में विश्रामित रहते है.. कबीर जी यह सबको समझा रहे हैं...पर कबीर को मान्ने वाले अभी भी अदूैत भाव से दूर अजपा में ही जीवन गवां रहे है.. कोई और कबीर को परमात्मा तुल्य ना माने तो उन्हे बुरा लगता है पर सवंय कबीर के भाव ना जान कर कबीर विरोधी हो रहे है...
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प्रणाम जी

Thursday, August 18, 2016



परमात्मा का गुणगान...???
बचपन से सुन्ता आया हूं कि परमात्मा का गुणगान करने से परमात्मा खुश होते हैं..
पर परमात्मा गिणातीत हैं अर्थात परमात्मा तक गुण नही पहुंच सकते फिर वो गुणगान करने से कैसै खुश होंगे..
सबसे अहम बात की परमात्मा को खुश करना पडे कया ऐसा हो सकता है..?? अर्थात परमात्मा तो सवंय आनंद है तो कया आनंद को भी खुश करना पडता है.?? नही ..
अनादि काल से परमात्मा प्राप्ति के साधन सुन्ते आये हैं और उनपर चले भी हैं पर परिणाम शून्य कयोंकि केवल ऊपरी साधन अपनाये हैं कभी मूल पर ध्यान नही गया ना ही किसी ने बताया .. अगर बतााया भी तो निरंतर संगत नही हो पाने के कारण विषय स्पष्ट नही हो पाया..
तो स्पष्ट है कि परमात्मा का गुणगान या अन्य सुने हुये साधन (नाम जाप,रूप ध्यान, पारायण, परिकरमा, गुरू के शरीर का ध्यान..आदी अन्य साधन जो अबतक सुने है)उसको पाने का माध्यम नही है , कुछ और है , तो वो कया है??

केवल तीन विषय ग्रहण करने पर हमारे लिय परमात्मा का साक्षातकार सुगम हो जाता है वो है..
1.मन से परमात्मा नही मिलेंगे
2.कर्ता-भोक्ता
3.प्रेम कया है..
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प्रणाम जी
परमात्मा कितने है ?

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं
मातरिश्वानमाहुः ।।८।।
(ऋग्वेद मं० १। सूक्त १६४। मन्त्र ४६)
भावार्थ :- वह परमात्मा एक ही है जो बहुत से नामो से जाना जाता है ।

इसके बारे में कैवल्य उपनिषद लिखता है
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स
शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।।७।।
(कैवल्य उपनिषत)

अर्थात ब्रह्मा भी वही है विष्णु ,रूद्र , शिव ;अक्षर , परम् ,स्वराट ,इंद्र , काल , अग्नि चन्द्रमा इत्यादि उसी एक परमात्मा के नाम है ।  
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प्रणाम जी

Monday, August 8, 2016

  विषय कोई क्रिया नहि है . अर्थात जिसे करना आप गलत मान्ते हो और उसे विषय वासना कि श्रेणी में रखते हो,, तो में बता दूं के संसार कि कोई भी क्रिया विषय नही है,, तो विषय कया है , विषय केवल चिंतन है, अर्थात जो भी कार्य आप करते हो, जिसे बूरे कि श्रेणी में रखा जाता है , तो वो आपके अंतःकरण को नुकसान नही पहुंचा सकता, केवल उसका चिंतन ही नुकसान दायक है ..चाहे क्रिया न करके केवल चिंतन करते हो तो भी ये उतना ही घातक है..
*तो विषय कया है, विषय केवल चिंतन है*
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प्रणाम जी

Sunday, August 7, 2016

"""वैराग्य कितने प्रकार का होता है"" और श्रेष्ठ कोन सा है..
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योगदर्शन में पर और अपर भेद से दो प्रकार के वैराग्य बतलाये गये हैं । इनमें अपर वैराग्य चार प्रकार के हैं:
1) यतमान : जिसमें विषयों को छोड़ने का प्रयत्न तो रहता है, किन्तु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैराग्य है ।
2) व्यतिरेकी : शब्दादि विषयों में से कुछ का राग तो हट जाये किन्तु कुछ का न हटे तब व्यतिरेकी वैराग्य समझना चाहिए ।
3) एकेन्द्रिय : मन भी एक इन्द्रिय है । जब इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण तो न रहे, किन्तु मन में उनका चिन्तन हो तब एकेन्द्रिय वैराग्य होता है । इस अवस्था में प्रतिज्ञा के बल से ही मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है ।
4) वशीकार : वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ । लेकिन इसमें भी भटकाव है..

श्रेष्ठ कोन सा है..

पर वैराग्य-
जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसका भी त्याग हो जाता है, पर अहम बात यह है कि इसमें त्यागना कुछ नही है, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
यह वैराग्य मन से नही होता कयोंकी मन गुणातीत नही है इसके लिय मन से उलग कोई स्थिती है.. सबसे अहम बात कि यह सबसे सरल है..
*इसे पाने के लिय या तो सवंय खोज करो या जिसने पाया हो उस से संगत करो..*
*पहले दिन से लाभ होना शुरू हो जाता है*
प्रणाम जी
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Saturday, August 6, 2016

ग्यान और अग्यान ..

कभी भूलकर भी मत कहना की इस या उस संत ने बृह्म को प्राप्त किया है. बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है, ..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..

"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """

अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की

""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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प्रणाम जी

Thursday, August 4, 2016

प्रेम कया है ?? *उल्टि बात*

सुप्रभात जी
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परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस  झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. *ध्यान दो* परमात्मा की दो लिलाऐं हैं एक वास्विकी और एक वैवहारिकि, वैवहारिकि का वास्विकी में प्रवेश नही है, कयोंकि वास्विकी में करना नहि होता , वो तो "है" सदा से ... वैवहारिकि में करना होता है ,वैवहारिकि को समाप्त करने के लिय..  वैवहारिकि और  वास्विकी को मिलाओ मत, ये मिलेंगे नही....सतसंग करना भी वैवहारिकि है...ये जो मैं कह रहा हूं ये भी वैवहारिकि है.. इसके शुक्ष्म भेद को जाने बिना वैवहारिकि के पार नही जा पाओगे जहा वास्तविकि है और ये दोनो कहीं बाहर नही है...
इसके सही भाव को समझने के लिय किसी सत्य तत्वदर्शी की संगत किजिय...
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प्रणाम जी