*अदैूत*
सुप्रभात जी
अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अदूैतअंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अदूैतअंश बिछुड़ कैसे सकता है? अदूैत तो अदूैत ही होता है।ये हो सकता है तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।
‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। तुमहारी नजर जीव की नजर से मिली, जिसे कह देते है कि तुम सोए, जीव की मान्यता से उसका जो मान्यता का अस्तित्व बना , जिसे कहते है की तुमने सपना देखा, कि सपने में तुम जीव की मान्यता का रूप हो गए। अब जागने पर तुम पूछो कि हम ये क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है।कयोंकि तुम हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? मान्यता का अस्तित्व है ही नही। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा अर्थात जीव की मान्यता से मिले। जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम मान्यता वाला रूप नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि वही हो । यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।
गीता भी यही कहती है..
'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,
देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने जिस से जोड लिया, तुम वही हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..
*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*
वो कया है ?
वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
सुप्रभात जी
अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अदूैतअंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अदूैतअंश बिछुड़ कैसे सकता है? अदूैत तो अदूैत ही होता है।ये हो सकता है तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।
‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
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बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। तुमहारी नजर जीव की नजर से मिली, जिसे कह देते है कि तुम सोए, जीव की मान्यता से उसका जो मान्यता का अस्तित्व बना , जिसे कहते है की तुमने सपना देखा, कि सपने में तुम जीव की मान्यता का रूप हो गए। अब जागने पर तुम पूछो कि हम ये क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है।कयोंकि तुम हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? मान्यता का अस्तित्व है ही नही। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा अर्थात जीव की मान्यता से मिले। जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम मान्यता वाला रूप नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि वही हो । यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।
गीता भी यही कहती है..
'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,
देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने जिस से जोड लिया, तुम वही हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..
*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*
वो कया है ?
वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
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प्रणाम जी
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