प्रेम कया है ?? *उल्टि बात*
सुप्रभात जी
www.facebook.com/kevalshudhsatye
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. *ध्यान दो* परमात्मा की दो लिलाऐं हैं एक वास्विकी और एक वैवहारिकि, वैवहारिकि का वास्विकी में प्रवेश नही है, कयोंकि वास्विकी में करना नहि होता , वो तो "है" सदा से ... वैवहारिकि में करना होता है ,वैवहारिकि को समाप्त करने के लिय.. वैवहारिकि और वास्विकी को मिलाओ मत, ये मिलेंगे नही....सतसंग करना भी वैवहारिकि है...ये जो मैं कह रहा हूं ये भी वैवहारिकि है.. इसके शुक्ष्म भेद को जाने बिना वैवहारिकि के पार नही जा पाओगे जहा वास्तविकि है और ये दोनो कहीं बाहर नही है...
इसके सही भाव को समझने के लिय किसी सत्य तत्वदर्शी की संगत किजिय...
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
सुप्रभात जी
www.facebook.com/kevalshudhsatye
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. *ध्यान दो* परमात्मा की दो लिलाऐं हैं एक वास्विकी और एक वैवहारिकि, वैवहारिकि का वास्विकी में प्रवेश नही है, कयोंकि वास्विकी में करना नहि होता , वो तो "है" सदा से ... वैवहारिकि में करना होता है ,वैवहारिकि को समाप्त करने के लिय.. वैवहारिकि और वास्विकी को मिलाओ मत, ये मिलेंगे नही....सतसंग करना भी वैवहारिकि है...ये जो मैं कह रहा हूं ये भी वैवहारिकि है.. इसके शुक्ष्म भेद को जाने बिना वैवहारिकि के पार नही जा पाओगे जहा वास्तविकि है और ये दोनो कहीं बाहर नही है...
इसके सही भाव को समझने के लिय किसी सत्य तत्वदर्शी की संगत किजिय...
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
No comments:
Post a Comment