Monday, May 22, 2017

तीर्थ कया है ?

यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। *प्रेम* ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.

*सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने दूैत रूप के अलावा अदूैत स्वरूप का भी बोध हो व आत्मा व परमात्मा के एकत्व भाव का भान हो*। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही होता यह आत्मिक विषय है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे आत्महृदय में ही है...
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प्रणाम जी

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