Wednesday, June 28, 2017

किसमें कितनी शक्तियां थी.. कोन कम था कौन ज्यादा..ये सब बातें तोते की तरह रटने से कोई लाभ नही होने वाला, और न ही धर्म ग्रन्थों के शब्दो के अर्थ बता कर इस बात पर बहस करने से कोई लाभ है की मेरे अर्थ तुमसे अच्छे है.. अगर आत्म जाग्रती नही हुई तो ये सब भी तुम्हे नर्क में जाने से नही रोक पायेंगे.. आत्म जाग्रती के पश्चात भी ये सब व्यर्थ है और पहले भी | इससे अलग एक मार्ग और है जो सत्य को जाता है, जो तुम तक आता है, उसकी खोज करो..
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Tuesday, June 27, 2017

मन

*मन का भेद*

अहं की उपस्थिती से उत्पन्न भाव, दशा, स्थिती, या अनुभव मन है.. ध्यान के अनुभव या भजन भक्ती में होने वाले सुख या आनंद का भास भी इसके अंतर्गत आते हैं..
प्रश्न-कया मन होता है ?
उत्तर- नही मन है ही नही, ये तो अहं का क्रिया या अक्रिया का भास है..
कया मन का लय होना होता है?
उत्तर - नही मन का कभी लय नही होता..

प्रश्न- आप कहते हो की मन है ही नही, फिर कहते हो की मनका लय नही होता, कया ये विरोधाभास नही है ??
उत्तर- अहं की उपस्थिती ही मन कहा जाता है अर्थात जो है वो अहं ही है, मन का कोई अलग अस्तितव नही है, इसलिय कहा है मन नही है |
*मनका लय नही होता* का अर्थ है की जब मन है ही नही तो लय किस का होगा, जब तक अहं है इस मन के भास के भाव का लय नही होता, लय केवल अहं का होना है, अहं के लय के साथ ही इसकी उपस्थिती से उत्पन्न भाव का भी लय हो जाता है जिसे आप मन कहते हो | अहं की उपस्थिती की क्रिया को ही मन, चित, बुद्धि, अंकार कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही मन कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही बुद्धि कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही चित कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही हृदय कह दिया जाता है, परन्तु ये अहं ही है |
ये भेद भी सत्य के मार्ग में सहायक हो सकता है |
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अहं की उपस्थिती से उत्पन्न भाव, दशा, स्थिती, या अनुभव मन है.. ध्यान के अनुभव या भजन भक्ती में होने वाले सुख या आनंद का भास भी इसके अंतर्गत आते हैं..
प्रश्न-कया मन होता है ?
उत्तर- नही मन है ही नही, ये तो अहं का क्रिया या अक्रिया का भास है..
कया मन का लय होना होता है?
उत्तर - नही मन का कभी लय नही होता..

प्रश्न- आप कहते हो की मन है ही नही, फिर कहते हो की मनका लय नही होता, कया ये विरोधाभास नही है ??
उत्तर- अहं की उपस्थिती ही मन कहा जाता है अर्थात जो है वो अहं ही है, मन का कोई अलग अस्तितव नही है, इसलिय कहा है मन नही है |
*मनका लय नही होता* का अर्थ है की जब मन है ही नही तो लय किस का होगा, जब तक अहं है इस मन के भास के भाव का लय नही होता, लय केवल अहं का होना है, अहं के लय के साथ ही इसकी उपस्थिती से उत्पन्न भाव का भी लय हो जाता है जिसे आप मन कहते हो | अहं की उपस्थिती की क्रिया को ही मन, चित, बुद्धि, अंकार कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही मन कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही बुद्धि कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही चित कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही हृदय कह दिया जाता है, परन्तु ये अहं ही है |
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Monday, June 26, 2017

दो गलतियाँ

अदूैतसत्य के रस्ते पर कोई दो ही गलतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता...
सफ़र की शुरुआत न करना सबसे ज्यादा होने वाली गलती है, इस गलती से अपने को वो कदापी अलग न समझें जो नाम जाप, चितवनी, परिक्रमा, परायण, रूपध्यान, रोना, रिझाना आदीआदी करते हैं | अगर मार्ग सत्य नही है तो ये सब वैसे ही है जैसे आप अपने और सांसारिक कार्य करते हैं..
सफ़र की शुरुआत सही करें फिर धैर्य से पूरा सफ़र तय करें..
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 प्रणाम जी

Thursday, June 22, 2017

परमात्मा से प्रेम बढ़ाने का कया उपाय है

*प्रश्न- परमात्मा से प्रेम बढ़ाने का कया उपाय है ? कृपया समाधान करें |*

उत्तर- प्रेम में घटना-बढ़ना, कम या ज्यादा नही होता | जिसे तुम बढ़ाने की बात कर रहे हो वो प्रेम नही है ये सौदा है व्यापार है, इसमें एक भाव छिपा रहता है की मैं आपसे प्रेम करूंगा तो तुम मुझे अपने पास बुला लोगे या मुझे पार उतार दोगे, ये व्यपार कर रहे हो| प्रेम की बात में मैं और तूं काहां से आ गया ? जाहां मैं और तू है वो प्रेम नही है.. ध्यान देना जब मैं नही और तू नही जब प्रेम है | तो प्रेम कया है ?? और कैसे होता है ?
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
ये जो आत्मा और परमात्मा को अलग मानते हो यही सारी बिमारी की जड़ है.. इनकी एकरूपता ही प्रेम है..
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस  झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है कि मैं परमात्मा से अलग हूं फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. जबतक आपकी उपस्थिती रहेगी प्रेम को नही समझपाओगे.. ये अहं समाप्त होगा तभी प्रेम दिखेगा जिसमे करना नही होता कयोंकी करने में तुम रहते हो.. करना प्रेम नही है होना प्रेम है और ये होना करना नही होता ये तो है यदा से इसलिय करने का प्रयास करोगे तो अहं आ जायेगा फिर प्रेमी हो जाओगे और प्रेम से दूर हो जाओगे..
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)

*जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।*
(कबीर)

*एक आशिक अपनी प्रेमिका के घर पहुँच दरवाजा खटखटाता है प्रेमिका नें पूछा कौन है प्रेमी नें जवाब दिया मैं हूँ प्रेमिका नें बगैर दरवाजा खोले कहा अच्छा अभी तक ""मैं""जिन्दा है तो यहाँ दो आदमी की जगह नहीं जब मैं खत्म हो जाऐ तब आना*

...मूल सत्य तो इस से भी गहन है..
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प्रणाम जी

Wednesday, June 21, 2017

सुप्रभात जी

जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में लिप्तता का अनूभव होता है तबतक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न होगा । जैसे आकाश में धूलि दिखती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल दिखता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, वैसे ही सवंय के बोध से रहित आत्मा देह से मिश्रित दिखती है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सोना कीच और मल से अलेप रहता है । देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है अग्यान में ही सुख दुःख का अभिमान आत्मा में दिखता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा और नीला रंग असत्यरूप है वैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं । सुख दुःख जीव के देह को होता है, सबसे मिर्लेप आत्मा में सुख दुःख का अभाव है । देह बोध के नाश हुए आत्मा का प्रकाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है । यह जो विस्तृत रूप जगत् दिखाई देता है वह मायामय है, इसलिय अपने सवंय के आत्म स्वरूप में स्थापित होकर सभी प्रकार के दुखों से निवर्त होकर परम आनंद को प्राप्त करो....
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प्रणाम जी

Monday, June 12, 2017

प्रश्न - मैं सारा दिन प्रयत्न करता हूं पर विकार कम नही होते..

प्रश्न - मैं सारा दिन प्रयत्न करता हूं पर विकार कम नही होते..
उत्तर -- कयों विकार विकार करते हो, तुम कभी विकारित नही हो सकते, जिसको तुम विकार, काम,क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार आदि मान्ते हो वो तो जीव और शरीर का विषय सम्बंध है, तुम तो शुद्ध आत्मा हो तुममें कभी विकार नही आ सकते, फिर तुम कयों व्यर्थ में सवंय को आरोपित कर रहे हो.. मत लो ये आरोप अपने उपर की तुम विकारित हो..और तुम लाख प्रयत्न करलो इस शरीर से विकार अलग नहीं होगें, कयोंकी ये इस जीव का विषय है, ये जीव और शरीर बना ही विकार से है तो इनसे अलग कैसे होगा..जैसे मिट्टी के ढेले से मिट्टी को अलग नही कर सकते कयोंकी वो बना ही मिट्टी से है, इसी प्रकार तुम भी आत्मा हो आनंद हो, तुम्हारा विषय आनंद है तुम आनंद से बने हो, तुम अपना विषय भूलकर जीव व शरीर के विषय को अपने पर आरोपित मत करो, बल्कि अपना विषय शरीर और जीव को दो ताकी यो भी तुम्हारे विषय को जान सकें..ये भी आनंदित हो सकें..
प्रणाम जी
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Saturday, June 10, 2017

*बाह्य आवरण*

बाह्य आवरण से कोई संत नही होता..जो बाह्य आवरण से संत अपने को संत प्रतीत करता है वो अहं रूप से संत होता है.. उसके अहं ने ये मान लिया है की वो संत है. अर्थात वो सवंय के व्यक्तित्व को मान्ता है अर्थात उसके और परमात्ता के बिच में ये संत या गुरू होने पन का अहं है अर्थात वो अभी विमुख है अपने वास्तविक स्वरूप से कयोंकी वो अभी अपने को वो मानता है जो वो नही है वो अभी अपने को गुरू या संत या महात्मा भक्त या परमात्मा का प्रेमी मानता है. और ये सब मान्यता की स्थितीयां हैं .अभी वो सत्य बोध से विमुख है ..जो अन्दर से अति निर्मल हो, अर्थात अत्मभाव या अदूैत भाव मे आ चुका हो..उसके लिय सब प्रकार के व्यक्तित्व समाप्त हे जाते हैं.. वो ऊपर से वेश-भूषा आदि से अपनी पहचान नही देतेे अर्थात् उनकी आन्तरिक स्थिति का का बोध उनके शब्दभाव से होता है, वही सत्य को जो की शब्दों से परे है उसी सत्य को वो शब्दभाव से समझा सकते हैं..
*शबद शबद सब कोय कहे । शबद न जाने कोय ।*
*आदि शब्द जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।*
(कबीर)
वही वास्तव में परब्रह्म की पहचान रखने वाला होता है। ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी की संगति करनी चाहिए जो व्यकतित्व रूप में ब्रह्मज्ञानी न हो ...
*कबीर जी इस विषय में कहते हैं..*
*बिन सद्गुरु कोई नाम न पावै । पूरा गुरु अकह समझावै ।*
*अकह नाम वह कहा न जाई । अकह कहि कहि गुरु समुझाई ।*
*अर्थात जो कहने में नही आता वो उसको भी समझा सकता है कययोंकी जो सतगुरू है वह सत्गुरू नही है और जो सतगुरू नही है वही सतगुरू है* (यह गहरा भेद है)
तथा उस से ही अध्यात्म के शुद्धअदूैत के गुह्य रहस्यों को जानना चाहिए..

*जो मांहें निरमल बाहेर दे न देखाई, वाको पारब्रह्मसों पेहेचान।*
*महामत कहे संगत कर वाकी, कर वाही सों गोष्ट ग्यान।।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)
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प्रणाम जी

Thursday, June 8, 2017

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए ऐसा प्रतीत होता है की हम परमात्मा से बात कर रहे हैं,  परन्तु यह भजन से उत्पन्न मन का खेल होता है,और कथा सुन्ने  में भी मन ही खेलता है । लेकिन अगर अदूैतरूपी सारतत्व को नहीं समझा, और आनंदरूपी मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात सत्यअदैतआनंदरस्वरूप बृह्म को जाने बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है..

वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा के अदूैत भाव को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)
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प्रणाम जी

Wednesday, June 7, 2017

*ग्यान v/s प्रेम*
अक्सर लोग इस विषय पर बहस करते हैं |
जिन लोगो को या ग्यानीयों को ग्यान में आनंद आता है वो प्रेम को ज्यादा अहमियत नही देते, वो अपने आप को अपने स्थान पर सही मानते है व प्रेम के लिय ग्यान से मिलने वाले आनंद को छोड़ना नही चाहते..
वहीं जो प्रेमी होते हैं वो प्रेम में ही आनंद लेते है रोते हैं रिझाते हैं | ये भी अपने को ग्यानीयों से सही मान्ते हैं व प्रेम से मिलने वाले आनंद को छोड़ नही सकते..
इसलिय ये दो मार्ग बन गये..
*अब प्रश्न उठता है की सही मार्ग कौन सा है और कया वो इन दोनो से अलग है और यह भी कहा गया है की सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???*
इन सभी शंकाओं का निवारण आज हम इस पोस्ट में करेंगें तो ध्यान से पढिये...
तो ध्यान दो ग्यान और प्रेम ये दो वस्तुऐ नही हैं, ये एक ही वस्तु के दो नाम याहां ध्यान देने वाली बात यह है की ग्यानी और प्रेमी ये दो अलग भाव के नाम हैं ये दूैत के नाम हैं पर ग्यान व प्रेम दो नही हैं यह एक ही है.. ये अदूैत के भाव हैं |
ग्यान व प्रेम एक कैसे है ?
जब ग्यानी और प्रेमी समाप्त हो जाता है तब ग्यान और प्रेम शेष रहता है यह वही है जो सत्य है नित्य है और जो आनंद है यही आत्मा है यही परमात्मा है यही ग्यान है यही प्रेम है | इसलिय ये एक ही है दो नही है.. ग्यानी और प्रेमी दो हैं कयोंकी इनमें अहं विद्यमान रहता है अहं से ही ग्यानी और प्रेमी हो जाते हैं|
सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???
ग्यानी को ग्यान में *आनंद* आता है प्रेमी को प्रेम में *आनंद* आता है दोनो अपने को सही मानते हैं कयोंकी दोनो को *आनंद* आता है | याहां ध्यान देने वाली वाल यह है की दोनो में आनंद की समानता है , दोनो का जो कोमन भाव है वह आनंद है और आनंद ही आत्मा है आनंद ही परमात्मा या बृह्म है, तो अब बात को ध्यान से पकडना की आनंद कही बाहर से नही आता ये दोनो का सवंय का ही आनंद है जो उन्हे ग्यानी और प्रेमी होने मे भास हो रहा है इसलिय मार्ग दोनो का एक ही है *आनंद* इसलिय सभी मार्ग आनंद की और ही जाते है पर इनमें जो गलत है वो है *अहं* जिस की उपस्थिती से ग्यानी और प्रेमी हो जाते हो.. भोग व योग में भी आनंद है कयोंकी सब आनंद से ही बना है पर अहं के कारण भोगी व योगी हो जाते हो.. तो सभी मार्ग जैसे कर्म, ग्यान, योग, भक्ती, प्रेम, या भोग सभी आनंद के ही मार्ग हैं पर ये सभी अहं के कारण सत्य से विमुख हैं, अहं समाप्ती के बाद सब एक ही हैं दो तीन या चार नही हैं....
प्रणाम जी
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Tuesday, June 6, 2017

जनक को शुकजी ने कहा कि भगवन् जो कुछ तुम कहते हो वही मेरे पिता भी कहते थे , वही शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार मान्यता से उत्पन्न होता है और मान्यता हटने से भ्रम की निवृत्ति होती है,पर मुझको आनंद नहीं प्राप्त होता है ? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर ! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है । यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त भटकाव से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है । आत्मतत्त्व नित्य शुद्ध; परमानन्दरूप केवल चैतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम आनंद पावोगे । तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो । हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आये हो, पर तुम मुझसे से भी अधिक हो , क्योंकि हमारी चेष्टा  बाहर से कुछ भी नहीं,  तब शुकजी ने निःसंग निष्प्रयत्न और निर्भय होकर अदूैतचेतन का अभ्यास किया। जैसे समुद्र में बूँद लीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलंक को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए ...*निष्कर्ष यह है की हमें जो दृष्यमान है इसका अनंत काल से अभ्यास है पर जो दृष्य में आनंद प्रतीत होता है जो हमारा नित्य स्वरूप है उसका हमें अभ्यास करना है*
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प्रणाम जी

Sunday, June 4, 2017

तो अगर तुम्हें कभी भीतर का रस जन्मने लगे और भीतर स्वाद आने लगे.. और देर नहीं लगती आने में, जरा भीतर मुड़ो कि वह सब मौजूद है। सरोवर की तरफ पीठ किये खड़े हो, इसलिए प्यासे हो। बदलो रुख, संसार की तरफ पीठ करो और अपनी तरफ मुंह करो। और तुम चकित हो जाओगे कि क्यों तुम प्यासे थे इतने दिन तक! तुम रोओगे इसलिए कि कितना गंवाया और हसोगे इसलिए कि यह भी खूब रही, जो अपने पास था उसकी तलाश कर रहे थे! जो मिला ही था उसे खोजने निकले थे, और नहीं मिलता था तो तड़प रहे थे, परेशान हो रहे थे। और मिल सकता नहीं था, क्योंकि जो भीतर होगा बाहर नहीं मिलेगा। जो जहां है वहीं मिलेगा...
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Friday, June 2, 2017

*ज्ञान कया है*

एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका एकरूपता से ज्ञान होता है, पर अपने स्वरूप का एकरूपता या समरूपता से ज्ञान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि ‘है’ (आनंदस्वरूप) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं। ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये। ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा।
*गीता कहती हैं।*

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
(गीता 2। 16)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।’

एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, मान्यता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में दिखनेवाली सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत नहीदिखनेवाली सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये परमतत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः परमतत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही परमतत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं।
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Thursday, June 1, 2017

*तत्त्वज्ञान का सहज उपाय, यह समझ आ गया तो आधा काम बन जायेगा*

हमारा स्वरूप आनंदस्वरूप है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—

*संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।*
(मानस, बाल. 58/4)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही मान्यता (जड़ में चेतन की मान्यता) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। *यही अहं है* ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही आत्मबोध है मूलतत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है। इसमें अहं नही है यह निर्विकार है, इसमें अस्तित्व नही है..

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।

बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। परमात्मा से अलग मान्यता से ही वह अंश है। अगरअगर परमात्मा से अलग नही हो का बोध हो जाये तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है,  ‘है’ (स्वरूप है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
(गीता 2/71)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।

मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

*एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।*
(गीता) 2/72)
'हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त,आनंद) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
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