Tuesday, June 6, 2017

जनक को शुकजी ने कहा कि भगवन् जो कुछ तुम कहते हो वही मेरे पिता भी कहते थे , वही शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार मान्यता से उत्पन्न होता है और मान्यता हटने से भ्रम की निवृत्ति होती है,पर मुझको आनंद नहीं प्राप्त होता है ? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर ! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है । यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त भटकाव से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है । आत्मतत्त्व नित्य शुद्ध; परमानन्दरूप केवल चैतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम आनंद पावोगे । तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो । हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आये हो, पर तुम मुझसे से भी अधिक हो , क्योंकि हमारी चेष्टा  बाहर से कुछ भी नहीं,  तब शुकजी ने निःसंग निष्प्रयत्न और निर्भय होकर अदूैतचेतन का अभ्यास किया। जैसे समुद्र में बूँद लीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलंक को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए ...*निष्कर्ष यह है की हमें जो दृष्यमान है इसका अनंत काल से अभ्यास है पर जो दृष्य में आनंद प्रतीत होता है जो हमारा नित्य स्वरूप है उसका हमें अभ्यास करना है*
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प्रणाम जी

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