Saturday, June 10, 2017

*बाह्य आवरण*

बाह्य आवरण से कोई संत नही होता..जो बाह्य आवरण से संत अपने को संत प्रतीत करता है वो अहं रूप से संत होता है.. उसके अहं ने ये मान लिया है की वो संत है. अर्थात वो सवंय के व्यक्तित्व को मान्ता है अर्थात उसके और परमात्ता के बिच में ये संत या गुरू होने पन का अहं है अर्थात वो अभी विमुख है अपने वास्तविक स्वरूप से कयोंकी वो अभी अपने को वो मानता है जो वो नही है वो अभी अपने को गुरू या संत या महात्मा भक्त या परमात्मा का प्रेमी मानता है. और ये सब मान्यता की स्थितीयां हैं .अभी वो सत्य बोध से विमुख है ..जो अन्दर से अति निर्मल हो, अर्थात अत्मभाव या अदूैत भाव मे आ चुका हो..उसके लिय सब प्रकार के व्यक्तित्व समाप्त हे जाते हैं.. वो ऊपर से वेश-भूषा आदि से अपनी पहचान नही देतेे अर्थात् उनकी आन्तरिक स्थिति का का बोध उनके शब्दभाव से होता है, वही सत्य को जो की शब्दों से परे है उसी सत्य को वो शब्दभाव से समझा सकते हैं..
*शबद शबद सब कोय कहे । शबद न जाने कोय ।*
*आदि शब्द जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।*
(कबीर)
वही वास्तव में परब्रह्म की पहचान रखने वाला होता है। ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी की संगति करनी चाहिए जो व्यकतित्व रूप में ब्रह्मज्ञानी न हो ...
*कबीर जी इस विषय में कहते हैं..*
*बिन सद्गुरु कोई नाम न पावै । पूरा गुरु अकह समझावै ।*
*अकह नाम वह कहा न जाई । अकह कहि कहि गुरु समुझाई ।*
*अर्थात जो कहने में नही आता वो उसको भी समझा सकता है कययोंकी जो सतगुरू है वह सत्गुरू नही है और जो सतगुरू नही है वही सतगुरू है* (यह गहरा भेद है)
तथा उस से ही अध्यात्म के शुद्धअदूैत के गुह्य रहस्यों को जानना चाहिए..

*जो मांहें निरमल बाहेर दे न देखाई, वाको पारब्रह्मसों पेहेचान।*
*महामत कहे संगत कर वाकी, कर वाही सों गोष्ट ग्यान।।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)
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प्रणाम जी

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