Tuesday, October 31, 2017

*अगर मै पूरी जिंदगी भक्ति करूं तो क्या मृत्यु के बाद परमधाम चला जाऊंगा ?*

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Sunday, October 29, 2017

*सतगुरु के विषय में लोगों में अनेक भ्रम हैं, कृपया बताएं कि गुरु कौन है ।*

परमात्मा को ही सतगुरु कहते हैं, सतगुरु और परमात्मा ये दो नही है, अगर कोई दूसरी वस्तु है तो वह है यह शरीर व अहं | गुरू को शरीर की परिधियो में सिमित करना अल्पग्यता है गुरू और परमात्मा को अलग मान्ना अल्पग्यता है,

 *तो गुरुतत्व कया है?*

जब हम आनंद की और आकृषित होते है अर्थात सत्य मार्ग की और चलते हैं तो इसे ही अंधेरे से प्रकाश की और चलना कहते है, एक बात और ध्यान देना की अंधेरे में केवल प्रकाश के कारण ही हम मार्ग खोज सकते हैं, ये प्रकाश ही आनंद है यही प्रमात्मा है, और यही गुरू है, इसको समझने के लिय शरीर और अहं भाव से बाहर आना होगा, इसके पश्चात ही सवंय,परमात्मा या सतगुरू को प्राप्त कर पाओगे..
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Friday, October 27, 2017

*क्षमा करें सांसारिक प्रश्न है, पर व्यवहारिक दृष्टि से अहम प्रश्न है । जिसमें सदा सबको संदेह रहता है कि आत्मविस्वास और अहंकार में क्या भेद है कृपया सपष्ट करें ।*

आत्मविस्वास और अहंकार
*लोग कहते है सूर्य डूब रहा है* सूर्य डूब रहा है ऐसा सत्य नही है, ऐसा इसलिय है कयोंकी पृथ्वी ऊपर उठ रही है |
वास्तव में सूरज डूबता ही नही है केवल पृथ्वी ही उपर आती है कयोंकी वो सूर्य के चारो और चक्र लगाती है, जब उसकी स्थिती सूर्य से नीचे होती है तो सूर्य उपर दिखता है और जब सूर्य से उपर होती है तो सूर्य नीचे प्रतीत होता है |
बस यही समझने वाली बात है की कोई भी डूबता या कम नही होता वो केवल इसलिय लगता है की तुम उस समय उपर जा रहे हो ना की वो नीचे..
किसी को नीचे जाते हुऐ समझना ही भ्रम या अहंकार है ..
और खुदमें निरंतर उदय देखना ही आत्मविस्वास है |
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Wednesday, October 25, 2017

*अहम से छुटकारा कैसे पा सकते है ? इसका त्याग कैसे करें ? कृपया बताएं ।*

अहम या "मैं’ से भागने की कोशिश मत करना। उससे भागना हो ही नहीं सकता, क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है। उससे भागना नहीं है बल्कि समग्र शक्ति से उसमे प्रवेश करना है। खुद की अंह  की सत्ता में जो जितना गहन होता जाता है उतना ही पाता है कि अंहता की कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं। अहम को शुक्षमता से देखने पर अहम की सत्ता समाप्त होने लगती है..इसको त्यागना नहीं है क्योंकि त्यागने में अहम रहता है।


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Tuesday, October 24, 2017

*गुरु से नाम लिए हुए 20 साल हो गए, बताया गया था कि नाम लेने से आत्म जाग्रति हो जाती है, बोहोत नाम जाप करता हूं पर आध्यात्मिक प्रगति न के बराबर है । क्या मै सही मार्ग पर हूं या मार्ग कोई ओर है ?*

जाग्रति क्या है?
शारीरिक भाव से आत्मिक अनुभव में आना जागर्ती है.. जागनी शारीरिक बंधनो सेे निकल कर आत्मिक उन्मुक्तता में आने का नाम है..आत्मिक पहचान होना जागनी है.. जागनी से शरीर के निमित सभी बन्धन जैसे सम्प्रदायवाद, जप, स्थानवाद, चित्रवाद, आदी आदी सभी बंधन स्वतः ही छूट जाते हैं इन्हे छोडना नही पड़ता..
अगर आप इनमें बंधे है तो आप आत्म जाग्रति के आस पास भी नहीं हैं ।

जागनी कया नही है..
*पायो निजनाम आत्मा जागी* गाने से जाग्रती नही आती, हां इसके पिछे जो भाव है वो जरूर जाग्रती से सबंध रखता है...भाव यह है की पायो नित नाम अर्थात
निज= सवंय
नाम= पहचान
*सवंय की पहचान होने से आत्म जागर्ती या जागनी होती है* ( पायो निजनाम आत्मा जागी)
इसका भाव न जानने के कारण शब्दो को पकड़ कर खुद के बंधन बढ़ा लेते है...अपने को और नये नियमों में बांध लेते हैं..
निष्कर्ष यह है की हमें जागनी समझे जाने वाले सभी बंधनो को त्याग कर आत्म जाग्रती की और बढ़ना ही पड़ेगा..
जाग्रती या जागनी जीते जी मुक्त की अवस्था है
*जो अनभिज्ञ हैं कि वे अँधेरे में चल रहे हैं वे कभी प्रकाश की तलाश नहीं करेंगे।*
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Sunday, October 22, 2017

*कोई ज्ञान मार्ग को श्रेष्ठ बताता है तो कोई प्रेम मार्ग को, कृपया स्पष्ट करें की कोनसा मार्ग श्रेष्ठ है ।*

जिन लोगो को या ग्यानीयों को ग्यान में आनंद आता है वो प्रेम को ज्यादा अहमियत नही देते, वो अपने आप को अपने स्थान पर सही मानते है व प्रेम के लिय ग्यान से मिलने वाले आनंद को छोड़ना नही चाहते..
वहीं जो प्रेमी होते हैं वो प्रेम में ही आनंद लेते है रोते हैं रिझाते हैं | ये भी अपने को ग्यानीयों से सही मान्ते हैं व प्रेम से मिलने वाले आनंद को छोड़ नही सकते..
इसलिय ये दो मार्ग बन गये..
*अब प्रश्न उठता है की सही मार्ग कौन सा है और कया वो इन दोनो से अलग है और यह भी कहा गया है की सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???*
इन सभी शंकाओं का निवारण आज हम इस पोस्ट में करेंगें तो ध्यान से पढिये...
तो ध्यान दो ग्यान और प्रेम ये दो वस्तुऐ नही हैं, ये एक ही वस्तु के दो नाम याहां ध्यान देने वाली बात यह है की ग्यानी और प्रेमी ये दो अलग भाव के नाम हैं ये दूैत के नाम हैं पर ग्यान व प्रेम दो नही हैं यह एक ही है.. ये अदूैत के भाव हैं |
ग्यान व प्रेम एक कैसे है ?
जब ग्यानी और प्रेमी समाप्त हो जाता है तब ग्यान और प्रेम शेष रहता है यह वही है जो सत्य है नित्य है और जो आनंद है यही आत्मा है यही परमात्मा है यही ग्यान है यही प्रेम है | इसलिय ये एक ही है दो नही है.. ग्यानी और प्रेमी दो हैं कयोंकी इनमें अहं विद्यमान रहता है अहं से ही ग्यानी और प्रेमी हो जाते हैं|
सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???
ग्यानी को ग्यान में *आनंद* आता है प्रेमी को प्रेम में *आनंद* आता है दोनो अपने को सही मानते हैं कयोंकी दोनो को *आनंद* आता है | याहां ध्यान देने वाली वाल यह है की दोनो में आनंद की समानता है , दोनो का जो कोमन भाव है वह आनंद है और आनंद ही आत्मा है आनंद ही परमात्मा या बृह्म है, तो अब बात को ध्यान से पकडना की आनंद कही बाहर से नही आता ये दोनो का सवंय का ही आनंद है जो उन्हे ग्यानी और प्रेमी होने मे भास हो रहा है इसलिय मार्ग दोनो का एक ही है *आनंद* इसलिय सभी मार्ग आनंद की और ही जाते है पर इनमें जो गलत है वो है *अहं* जिस की उपस्थिती से ग्यानी और प्रेमी हो जाते हो.. भोग व योग में भी आनंद है कयोंकी सब आनंद से ही बना है पर अहं के कारण भोगी व योगी हो जाते हो.. तो सभी मार्ग जैसे कर्म, ग्यान, योग, भक्ती, प्रेम, या भोग सभी आनंद के ही मार्ग हैं पर ये सभी अहं के कारण सत्य से विमुख हैं, अहं समाप्ती के बाद सब एक ही हैं दो तीन या चार नही हैं....


*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*


प्रणाम जी
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Saturday, October 21, 2017

*मेरे मन में कई बार ये धारणा आती है की मै बैरागी होकर जंगल, पहाड़, वृन्दावन, या गंगा तट पर जाकर रहूं ओर निर्विघ्न अपनी साधना करूं, क्या इस मार्ग से कल्याण सम्भव है?*

तुम जहां भी रहोगे, जो भी बनके रहोगे तो ये होनापन तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा, सही मार्ग में कोई विघ्न नहीं होता, ओर जिसमें तुम्हें विघ्न नज़र आता है वो मार्ग सही नहीं है। तुम्हे अपने ओर साधना में को विघ्न नज़र आता है वो केवल इसलिए है कि तुम हो ओर साधना है। ओर जहां भी जाओगे तुम रहोगे ओर वहां का वातावरण रहेगा, तो वहां भी नई परिस्थितियां मिलेंगी, ओर अगर तुम रहोगे तो निश्चित है की विचलित भी रहोगे, फिर क्या फ़र्क है यहां में ओर वहां में। समस्या का मुख्य कारण परिस्थितियां या वातावरण नहीं है, मुख्य कारण है तुम्हारा होना या अहम। जहां भी जाओगे या तो बैरागी रहोगे या संत या गुरु या चेला या भगत या दास या तुच्छ या महान, पर रहोगे जरूर कुछ ना कुछ। बस यही मूल बंधन है, जिसको खोलने तुम जाओगे अज्ञानवश ओर बन्धन बना लोगे।
मूल तत्व है आत्मतत्व बोध जिसके बाद ये ग्रहस्त, बैरागी, संत आदि सब तो रहेगा पर वो तुम नहीं रहोगे।

शास्त्रों के अनुसार...
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो  केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...
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प्रणाम जी

Thursday, October 19, 2017

एक बार एक पागल व्यक्ति के कपड़ों पर किसी ने इत्र छिड़क दिया, उस पागल को वो खुशबू बोहोत अच्छी लगी, अब लगा वो उसे ढूंडने, उस खुशबू तो आ रही थी पर वो समझ नहीं पा रहा था कि कहां से आ रही है ओर लोग उसे देख कर उसका उपहास कर रहे, उस पागल ने उसे उस इत्र को *बाहर* हर जगह ढूंडा पर उसे बाहर कहीं नहीं मिला, वो जहां भी बाहर ढूंढता लोग उतना ही हंसते, पर लोग उस समय हंस हंस कर जमीन पर गिर पड़े जब वो उस इत्र को ढूंडने गोबर में भी गया। पर शायद हम पागल नहीं है, हम ऐसा नहीं करेंगे...

Happy *गोबरधन* ....
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Wednesday, October 18, 2017

*लोग दीपावली को लक्ष्मी पूजन करते है, वैसे लक्ष्मी की सही पूजा कैसे करें व लक्ष्मी का सही अर्थ बताएं*


दीपावली के दिन जो पूजा होती है उसे लक्ष्मी पूजन कहा जाता है। आज ज्यादातर लोग समझते हैं कि लक्ष्मी का अर्थ है धन की देवी। ये लक्ष्मी शब्द का बहुत संकुचित अर्थ हो गया। वास्तव में इस शब्द का अर्थ बहुत विशाल है। लक्ष्मी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की लक्ष धातु से हुई है। लक्ष का शाब्दिक अर्थ है ध्यान लगाना, ध्येय बनाना, ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना इत्यादि। इसका अर्थ ये है कि जब हम एकाग्रचित्त होकर कोई कार्य या साधना करते हैं तो उसका जो फल प्राप्त होता है उसे लक्ष्मी कहते हैं, इसी फल को धन के नाम से संबोधित करते है। जैसे आगर आप अदूैत भाव में साधना करते है तो उसकेफलस्वरूप जो आप अदुैत मे एकरसता को प्राप्त करते है वह एकरसता अदुैत भाव में तो शब्दातीत भाव है पर शब्दो में कहें तो यह उस साधना का फल है, अर्थात यह उसका धन है, जो कभी समाप्त नहीं होगा,इस फल को ही या साधना के उस फलस्वरूप भाव को ही लक्ष्मी कहते है...यही सही लक्ष्मी पूजन है। इस लक्ष्मी पूजन से वो धन प्राप्त होगा जो कभी समाप्त नहीं होगा।
*अतः धन, मूर्ती या अन्य बाह्य साधनो से पूजा करके लक्ष्मी के भाव को तुच्छ ना बनायें अपितु इसका व्यापक अर्थ ग्रहण करें..*
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प्रणाम जी

Saturday, October 14, 2017

*दृष्टा कौन है ? बार बार कहा जाता है की दृष्टा बनों, क्या दृष्टा बनना आत्म भाव है? या ये आत्मा से अलग है? क्या साक्षी भाव दृष्टा से अलग है*


विचारों के अलावा जो शेष चेतना है ,वह यदि सोयी हुई है ,तो वह विचारक है यदि यह शेष चेतना जागी हुई है तो यही दृष्टा है . सोई हुई चेतना को विचारक या मन कहते हैं ,अहम का विकार कहते हैं ,कई लोग इस अहम भी कहते है।जाग्रत चेतना को ही दृष्टा कहते हैं । यही मूल अहम भाव है इसमें विकार नहीं है, ये विचार रहित है। इसमें सव्येम का आभास मात्र है। इसलिए इसको निर्विकार अवस्था या दृष्टा कहते हैं। (यहां विकार का अर्थ विचार उत्पन अवस्था से है)


*फिरविचार क्या है ?*

विचार इस चेतना का ही छोटा सा अंश है . विचार विचारक से पृथक नहीं है ,उसी का ही अंश है . विचार विचारक की क्रिया है .जब आप विचार के साक्षी होंगे ,दृष्टा होंगे तब विचार और विचारक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा .सिर्फ आप खालिस जागरूकता होंगे . मूल अहम भाव रहेगा जो दृष्टा है।


*तो साक्षी भाव क्या है???*

इन सबका मूल ही इन सबका साक्षी है। कोई भाव नहीं, वो तो केवल "है" सदा से। इस भाव के विषय में केवल बात हो सकती है, इसे थोड़ा बोहोत महसूस कर सकते हैं, *पर इसमें जबतक हम हैं हम आ नहीं सकते*। जैसे सूर्य के विषय में बात कर सकते हैं , उसकी ऊष्मा को महसूस कर सकते हैं, पर उसपर जायेंगे तो हम समाप्त हो जाएंगे। वैसे ही साक्षी भाव है , यही आत्मा है यही परमात्मा है.. *इसे गीता में उपदृष्टा कहा है* ...


भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

*इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.*

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।  दृष्टा रहता है.

वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल दृष्टा होने पर ही संभव है.

इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान  में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.

मुंडकोपनिषद में दृष्टा भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.


तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.

एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (दृष्टा)  रहता है. *ध्यान देना इसमें दोनों रहते हैं*

तुम्हारे पास केवल दो ही रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा  दृष्टा  होकर उस साक्षी की ओर चल पड़ो जिसमें दृष्टा भी समाप्त हो जाता है.
यदि तुम आंतरिक दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल बाह्य दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा होने पर मूल दृष्टा का भाव भी अलग किया जा सकता है फिर विशुद्ध बोध का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.

यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण करकर.
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Tuesday, October 10, 2017

*आजकल साधु और चोर के बीच का भेद समझना बोहोत विकट हो गया है, जिसको साधू समझते हैं वो चोर निकलते है, इसका क्या समाधान हो ?*

वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के मान्यता रूपी प्रभाव से ही होता है। प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है  ... इसलिय इस आडम्बर में फंसे हुए कई लोग ध्यान का नाटक करते हैं। संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (विद्याओं) पर भी त्रिगुणात्मक प्रिवर्तनशील माया ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
इसलिय  अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। अदूैत रस में डूबकर सत्व, रज और तम से मुक्त हुए बिना परम तत्व की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है....
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प्रणाम जी

Sunday, October 8, 2017

*सत्संग में रोज जाता हूं, पर लाभ नहीं हो रहा, क्या करूं??*

जन्मो से हमे एक भयानक रोग हो गया है की हम सच को झूट और झूट को सच मानने लगे है इस कारण हम सत्संग का मतलब भी झूठ का संग समझने  लगे है इसलिए सत्संग के नाम पे झूठ का ही संग करते है सत्संग की व्याख्या से पहले  हमें  ये जानना जरूरी है की सच क्या है और झूट क्या है ,
पहले जान  लें की झूट क्या है ,हमारा ये पञ्च भोतिक शरीर या पञ्च तत्त्व से बनी कोई भी चीज़,  अन्दर मन चित बुद्धी और अहंकार ये सब झूट है, शब्द जो तुम सत्संग जानकर सुनते हो वो भी झूठ है। फिर सच क्या है एक मात्र परमात्मा या आत्मा ही सत्ये है,
अब इसी थ्योरी से सच झूट को समझना होगा ..हम पञ्च भोतिक तत्वों को ही सच मान बैठे है जरा सोचिये मंदिर में रखी मूर्ति क्या पञ्च भोतिक नही है तो क्या वो सच है? और  ऊपर से है हम उन झूटी मूर्तियों की भी फोटो (याने झूठ का भी झूठ) लेके कहते है की आज के दर्शन मतलब झूटी मूर्ति की भी झूटी तस्वीर के साथ हम सत्संग करते है क्या ये सत्संग है फिर झूटे शरीरो में आस्था रखते है चेतनता से हमारा कोई नाता नही रह गया है तो सत्ये क्या है ..?? *दूैत परिवर्तनशील है इसलिय इसे असत्य कहा है और अदूैत सदा से है वैसा ही, अदूैत हमारा मूल है इसलिय सत्य कहा है* इसी सत्ये मेें सत्ये का बोध सत्ये है
इस सत्येता में उतर के देखिये आप अपने आप असत्य से दूर हो जायेंगे सावधान रहें झूट कब सत्ये में मिलके हमे भरमित कर देती है हमे पता भी नही चलता सत्ये का कोई नाम नही है इसलिए नाम को सत्ये मत मानो बल्कि केवल सत्ये को स्वीकार करो चाहे कोई भी नाम से हो सत्ये का कोई नाम नही होता क्योंकि हम तीन गुणों के संसार में रहते है इसलिए हम सत्ये को भी गुणों के आधार  पर देखते है इसलिए उसका गुणों के अनुरूप नाम या संबोधन करते है जो कालांतर के साथ नाम बन जाता है जिस से भरम और असत्य का जन्म होता है |
इसलिए सत्ये को समझ कर केवल  सत्संग करें .
फिर सत्संग क्या है?
*सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..*
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