एक युवक ने कहा, 'मैं परमात्मा को नहीं मानता हूं, मैं स्वतंत्र हूं।' मै कहता हूं यह स्वतंत्रता नहीं पागलपन है।
क्यों है, यह पागलपन? क्योंकि अपने को अस्वीकार किए बिना परमात्मा को अस्वीकार करना असंभव है।
एक कहानी है : किसी के घर पर एक छोटा बच्चा था। वह खेलते खेलते बढ़ते-बढ़ते, आज्ञा मानते-मानते थक गया था। उसका मन परतंत्रता से ऊब गया था और फिर एक दिन उसने भी स्वतंत्र होना चाहा । वह जोर से चिल्लाया कि सारा आकाश सुन ले, 'मैं अब बढ़ूंगा नहीं!'
'मैं अब बढ़ूंगा नहीं!'
यह विद्रोह निश्चय ही मौलिक था, क्योंकि स्वभाव के प्रति ही था। उसके पिता ने कहा, 'न बढ़ो, बढ़ने की आवश्यकता ही क्या है?' वह खुश हुआ, विद्रोह सफल हुआ था। वह न बढ़ने के श्रम में लग गया। पर बढ़ना न रुका, न रुका। वह बढ़ने में लगा रहा और बढ़ता गया और उसका पिता ये पहले से जनता था ।
यही स्थिति है। परमात्मा या आनंद हमारा स्वभाव है। वह हमारा आंतरिक नियम है। उससे दूर नहीं जाया जा सकता है। वह हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। कितना ही अस्वीकार करें, कितना ही स्वतंत्र होना चाहें उससे, पर उससे मुक्ति नहीं है, क्योंकि वह हमारा स्व है। वस्तुत: वह ही है और हम कल्पना हैं। इसलिए कहता हूं : उससे नहीं, उसमें, स्वयं में ही मुक्ति है।
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Bahut Sundar .
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