मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने को जान सकता है और न वासनाओं से लड़ने वाला अपने को जान सकता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।
मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसमें संतुष्ट होना है। क्योंकि संतुष्टि से ही शांति आती है और इस स्वीकृति और शांति से ही प्रेम व प्रकाश की शुरुआत होती है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- अंतकरण के इस परिवर्तन का नाम ही आध्यात्मिक जीवन है।
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