Friday, July 29, 2016

*कबीर*

में रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय |
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ||
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मैं हर किसी को अदैूत के लिय कहता रहता हूं..बार बार अदूैत में आने को कहता हूं..  किन्तु मेरी अदूैत कि भाषा कोई नही समझ पा रहा है..सब दूैत मे अटके पडे हैं...मेरे लिए कोई नहीं रोता अर्थात् मेरे दर्द को कोई नहीं समझता | मेरे दर्द को वही प्राणी देख और समझ सकता है जो केवल मेरे शब्दो के फेर में ना पड़के ‘शब्द-सार’ को समझता है | अर्थात मेरे शब्दो को हृदय में बोने के बाद उससे जो सार रूपी वृक्ष लगेगा उसपे अदूैत के फल लगेंगे उन फलो से अदूैत का रस लेने से तुम माया को और बृह्म को जानकर अदूैत में स्थित हो पाओगे..
इसलिय शब्दो के सार को गृहण करो..
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प्रणाम जी

Tuesday, July 26, 2016

परमात्मा एक ही हैं.

वेद के आचार्यों के भाष्यों तथा उनके आधार पर लिए गए पाश्चात्य विद्वानों के वेदों के अनुवादों को पढने से पाठकों ने वेद जगत के कर्ता- धर्ता और नियन्ता एक परमात्मा को मानने के स्थान पर अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि अनेक देवी देवताओं को मानने लगे.व देवी देवताओं की पूजा का विधान बन गया..और अग्यान कि हद तब हो जाती है जब केवल एक परमात्मा को मान्ने में भय लगता है कि देवी देवता नराज होकर अनिष्ट न कर दें..  
स्वामी दयानंद ने स्पष्ट रूप से घोषणा की वेद एकेश्वरवादी हैं न की बहुदेवतावादी.
वेदों में एकेश्वरवाद के प्रमाण

१. ऋग्वेद १.१६४.४६ – उसी एक परमात्मा को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्या, सुपर्ण, गरुत्मान, यम और मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं.
२. यजुर्वेद ३२.१- अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, आप: और प्रजापति- यह सब नाम उसी एक परमात्मा के हैं.

३. ऋग्वेद १०.८२.३ और अथर्ववेद २.१.३- वह परमात्मा एक हैं और सब देवों के नामों को धारण करने वाला हैं, अर्थात सब देवों के नाम उसी के हैं.

४. ऋग्वेद २.१ सूक्त में अग्नि शब्द को ज्ञानस्वरूप परमात्मा का वाचक के रूप में संबोधन करते हुए कहाँ गया हैं की हे अग्नि, तुम इन्द्र हो, तुम विष्णु हो, तुम ब्रह्मणस्पति, वरुण, मित्र, अर्यमा, त्वष्टा हो. तुम रूद्र, पूषा, सविता, भग, ऋभु , अदिति, सरस्वती,आदित्य और ब्रह्मा हो.

५. अथर्ववेद १३.४ (२), १५-२०- जो व्यक्ति इस परमात्मा देव को एक रूप में विद्यमान जनता हैं, जो की वह न दूसरा हैं, न तीसरा हैं और न चौथा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह पांचवा हैं, न छठा हैं और न सांतवा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह न आठवां हैं, न नवां हैं और न दसवां हैं ऐसा जानता हैं, वह सब कुछ जानता हैं. वह चेतन और अचेतन संपूर्ण रहस्य को जन लेता हैं. उसी परमात्मा देव में यह सारा जगत समाया हुआ हैं. वह देव अत्यंत सहन शक्ति वाला हैं. वह एक ही हैं, अकेला ही वर्तमान हैं, वह एक ही हैं.

इस प्रकार वेदों में अनेक प्रमाण केवल एक परमात्मा के हैं  बहुदेवतावाद का स्पष्ट खंडन है..
जो अब भी बहुदेवतावाद को मान्ता है वो वेद विरोधि है अर्थात 'धर्मविरोधी'
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प्रणाम जी

Sunday, July 24, 2016

आनन्दस्य कुलं प्राप्तं नित्येधाम्नी प्रकिर्तितम । सम्प्रदायश्चिदानन्दो निजानंदै: प्रकाशित: ।।
(श्री माहे०तं० २८)

गहनअर्थ -आत्मसाक्षातकार के द्वारा पूर्ण आनन्द परमात्मा मे सदा स्थित रहने वाले ब्रह्ममुनियों का एक मायातीत "समूह" कलयुग में जाहिर या अवतरित होगा आंतरिक दृष्टि न होने के कारण संसार के लोग भविष्य मे उन्हे केवल सम्प्रदाय मात्र मान कर उन्हे केवल निजानंद सम्प्रदाय के नाम से जानेंगे पर जो उनको पहचान कर उनके गहन व अलौकिक अदूैत ग्यान को ग्रहण करेंगे उन सभी को आत्मसाक्षात्कार होगा ..
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प्रणाम जी

Saturday, July 23, 2016


अविद्यायामंतरे वर्तमाना: स्वयंधीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जंघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८)

व्याख्या:- जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मान बडाई के लालच में गूरू बने हुये मूर्खो को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, थोडा बहोत धर्म सास्त्रो का दूैत में भाव निकाल के अर्थ का अनर्थ बना रखा है..धर्म सास्त्रो को कंठस्त करके विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में "परा विद्या" की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते है.. और अंधकार में भटकाते हैं..

अदूैत के मार्ग के बिना माया का फन्दा नही हट सकता, बडे बडे संत गुरू भी दूैत की भक्ति करके दूैत रूपी माया में ही अटक कर विषय वासनाओ कि अग्नी में जलते रहते हैं. और जल्ती हुई वस्तु अपने सम्पर्क से दूसरो को भी जलाती है इसलिय उनके अनुयायी व उनके शिष्य भी विषय वासनाओ  घिरे रहते हैं... एकमात्र अदैत ही मार्ग है..
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प्रणाम जी

Wednesday, July 20, 2016


*मन का कार्य है आपकी सवंय की स्थिती से उत्पन्न विषय में निरंतर वृद्धि करना..*
उदाहरण-
जैसे आपके सवंय कि स्थिती वैज्ञानिक की है तो मन आपके इसी स्थिती के अनुसार आपके विषय में निरंतर वृद्धि करता रहता है, कहने का भाव है कि जहा आपकी संवय कि स्थिती होती है मन आपको उसी स्थिती के अनुसार सहायता व विषय वृद्धि करता है..
कहने का अर्थ है कि आप जहां होंगे मन वहीं होगा .. अगर आप किसी संसारी प्रेम में हो चाहे वो कोई विषय वस्तु हो या स्त्री पुरूष का प्रेम हो अर्थात आप अपनी स्थिती किसी भी प्रेम में रखें, तो आपका मन भी निरंतर वही रहेगा.. मनको विषय आप दे रहे हैं .. ध्यान दो मनको विषय आप दे रहे हैं और उलाहना मनको देते हो कि मन परमात्मा में नही लगता.. कैसे लगेगा मन वही होगा जहा आप होगे, बडे चालाक हो खुद माया से जुडे हो और मन परमात्मा जे जोडना चाहते हो ..

बहोत ही simple है खुदको परमात्मा से जोडलो मनको वही आना पडेगा और आपके परमात्मा विषय में खुद वृद्धि करता रहेगा निरंतर, ये नियम है,
इसलिय कभी भी परमात्मा में मन लगाने का व्यर्थ प्रयास मत करना, नही लगेगा, जीवन लगा दो फिर भी नही लगेगा...

*कयोंकि मन का कार्य है आपकी सवंय की स्थिती से उत्पन्न विषय में निरंतर वृद्धि करना..*

सवंय कि स्थिती परमात्मा में करलो मन लगाना नही पडेगा लगजायेगा, अपने आप...

पर ध्यान रहे विषय परमात्मा ही हो अर्थात अदूैत, जोकी 99% जीवो का नही होता 1% जीव होते हैं जो अदूैत में रहते है अन्यथा सभी दूैत में है .. और जो 99% दूैत में हैं तो उनका मन भी दूैत के विषय मे निरंतर वृद्धि करता रहता है इसलिय अदूैत उनके लिय कठिन हो जाता है...
इसलिय अदूैत को समझना परम आव्यषक है..
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प्रणाम जी


गुरू का संबंध कोई पुर्णिमा से नही है, पुर्णिमा तो महिने में एक बार आती है मासिक है, और उसमें भी अंधेरे का आधिपत्य रहता है , गुरू तो सूर्य के समान नित्य है, जिसकि उपस्थिती मात्र से निरंतर  अंतरहृदय में अग्यान रूपी अंधेरे का नाश है.....
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प्रणाम जी


दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...

अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)

आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन और दर्शन के साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...

*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Saturday, July 16, 2016

सुप्रभात जी
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अरे जीव ! तुने प्रकृती से संबंध बना कर अपनी स्थिती उसमें करके तू बाह्यमुखी हो गया है.. तूं अपनी मुर्खता में इधर - उधर क्यों भटक रहा है ? प्रकृती से संबंध से तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये | अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये, एवं अब भी बनाता जा रहा है | किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता | अरे जीव सुन ! वेद - पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र तेरी शरणागति व प्रेम मार्ग से ही प्राप्त हो सकता है | *ध्यान दे, तेरी शरणागती, नाकि तेरे मनकि शरणागती..* जब तू परमात्माको भलीभांती शुक्ष व अन्नत रूप मे जानकर अन्नय अदूैत प्रेमभाव से उनको धारण करेगा तब तू अनन्त काल के लिए आनन्दमय होजायगा; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी | शिघ्र कर समय निकल रहा है... *अपने को प्रकृती से हटा कर परमात्मा में स्थित करले इसके अलावा कोई मार्ग नही है..*
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प्रणाम जी

Friday, July 15, 2016

*सार*

सुप्रभात जी
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तुम्हारा याहां किसी से भी संयोग नहीं है, तुम आत्मा हो शुद्ध आनंद स्वरूप व चेतन जबकी यह संसार जड व दुख के घर की मान्यता मात्र है ,इसलिय तुम्हारा इस से संयोग कैसे हो सकता है.. ये तो मात्र तुम्हारे जीव की मान्यता से यह संसार तुम्हे भाषित हो रहा है. जिस दिन तुम अपनी मान्यता संसार से हटा लोगे उसी दिन तुम्हारा बनाया हुआ संसार लय हो जायगा ... ध्यान दो तुम शुद्ध हो, और ये संसार है ही नही, तुम हो, सदा से हो, पर ये संसार परपंच है ही नही, सदा से नही, इसलिय तुम हो और ये नही है, तो "है" और "नहि" का कया मेल अर्थात कोई मेल नही है .. तुम "हो" इसलिय तुमने अपनी मान्यता से इस "नही" को भी "है" बना रखा है..कयोंकि "है" कि मान्यता में "नही" भी "है" जैसा लगता है पर वास्तव मे ये है ही नही केवल तुमहारी मान्यता मात्र है बस..*इसलिय जब तुम्हारा और संसार का मेल ही नही है तो तुम क्या त्यागना चाहते हो,* जो तुम्हारा है (परमात्मा) वो तो सदा से तुमहारा है और सदा रहेगा तो उसमें पाना कया है, जो तुमसे अलग नही है उसे पाने के लिय मूढंता में रोते हो ओर कहते हो ये प्रेम है, *और जो तुम्हारा है हि नही (संसार) तो उसमे त्यागना कया.* उसे तुम मुर्खता में त्यागना चाहते हो.. अरे मान्यता का बनाया संसार है तो अपनी मान्ता इस से हटालो, तुम्हारा संसार खत्म.. इसलिय इस (अवास्तविक) मेल को समाप्त कर के "है" से "है" को मिलाकर पहले जैसा "है" करदो अर्थात ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥
यहि सार है ..
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प्रणाम जी

Wednesday, July 13, 2016

*अदैूत*

सुप्रभात जी

अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता है? अंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
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बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोए, तुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है। ‘क्यों घोड़े हुए?’ हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? घोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने घोड़े से जोड लिया, तुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*

वो कया है ?

वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
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प्रणाम जी

Tuesday, July 12, 2016

यमराज और चित्रगुप्त कौन हैं ??
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*यमराज* यम का अर्थ है "जोडना" या "दो" हमारा माया के साथ योग से माया हमपर राज करने लगती है यही यम का राज है आर्थात यमराज इसके कई पार्षद है जैसे मन, चित, बुद्धि, अहंकार इन्द्रियां आदी. इन सबके वशिभूत होकर जीव यमराज से संयोग करता है या यूं कहें कि यमराज के साथ संयोग से ही उसके पार्षद जीव को पकड़ लेते है...
यमराज का वाहन भैसा बताया गया है जो काल का प्रतीक है अर्थात माया काल से चलायमान है या यूं कहें की माया याने यम का वाहन काल याने भैंसा है..जो बना है वो मिटेगा यही काल है इसी काल रूपी भैंसे की थ्योरी पर माया याने यमराज विराजमान है ...

*यमराज का रंग नीला कहा गया है* ये हमारी परकृती के साथ स्थिती का रंग है इसको आप ध्यान में बडी आसानी से देख सकते हैं.. अर्थात ध्यान में हमें कई बार जो नीला रंग दिखाई देता है वह हम पर यम याने माया का राज या हमारी माया या पृकृती के सात स्थिती को दर्शाता है अर्थात ध्यान में दिखने वाला नीला रंग ही हमारा यमराज है..
यमराज का दूसरा नाम धर्मराज भी है , अर्थात जीव की प्रकृती से संयोग की मान्यता से उसे अनेक धर्मों का पालन करना पडता है जैसे पूत्र धर्म, पिता धर्म, राज धर्म आदि आदि.. यही प्रकृती से संयोग की मान्यता से अनेक धर्मों की हमारी दासता या धर्मों की हमपर सत्ता या राज ही धर्मराज है.. प्रकृती से संयोग याने यमराज से ही हम पर अनेक धर्मों का राज होता है अर्थात यमराज का दूसरा नाम ही धर्मराज है..
सर्व धर्मान परित्यज्य माम् एकम सरणं व्रज : I
अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्ष्य इस्यामि माँ शुच :II (भ.गी:अ १६,श्लो६६)

यमराज को गदाधारी दर्शाने का भाव उसे बलवान दिखाने से है.. जैसे हनुमान और भीम को बलशाली व गदाधारी कहा गया है, प्रतेक बलवान को गदाधारी दर्शाया जाता है..

यमराज के गुप्तचर नाम श्रवण कहा गया है.  श्रवण का शाब्दिक अर्थ सुन्ना होता है और मूल अर्थ ग्रहण करना है अर्थात जो भी हम गरहण करते है उस से हमारी प्रकृती या माया के साथ स्थिती का पता चलता है..

*चित्रगुप्त* चित्रगुप्त का अर्थ है जो चित्र या दृष्य गुप्त रूप से विराजमान हैं .. ये हमारा चित है ,चित ही चित्रगुप्त है , हमारे अनंन्त जन्मो के कर्म संसकार या चित्र रूप में शुषुप्त मन याने चित में गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं, इन्हि चित के गुप्त संग्रहो को चित्र गुप्त कहते है इसमें आपके अनंन्त जनमों का लेखा जोखा या संसकार व्याप्त है जो प्रारब्द के रूप में हमें मिलते हैं... यही हमारे कर्मों के फल के रूप है...
ये गहन्ता की पेचितगी आमजन के लिय समझपाना कठीन है इसलिय पुराणो में इसे मूर्तिमान करके कथारूप मे दर्शादिया गया..
*यमराज और नचिकेता कि कथा का सार इसी भाव से समझ आ जायगा*

* जब जीव का संयोग परमात्मा से हो जाता है तो वह दो या दूैत या यम के बन्धन से मुक्त हो सकता है*
*याने केवल अदैत के दूारा*

ध्यान रहे दूैत में स्थित रहे तो यमराज याने माया तुम्है धसीट कर ले जायेगा..
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प्रणाम जी

Saturday, July 9, 2016

संतन का गुरु राम

सुप्रभात जी
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जिस वस्तु में अपनी स्थिती बना लोगे वही तुम्हे अपनी ओर आकृषित करने लगती है , इसी को शुक्ष्मता में गुरूतत्व कहते है और विग्यान इसे गुरूत्व आकृषण कहता है .. *कबीर जी ने इस विषय पर कहा है..*

*कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम |
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ||*

अर्थात कामी व्यक्ति कि स्थिती काम मे होने के कारण वह निरंतर कामिनी कि और आकृषित रहता है , वह काम के विषय में स्थित होने के कारण उसे काम का विषय कामिनी अपनी और निरंतर आकृषित करती रहती है, इसलिय कामी का गुरू कामिनी कहा है.. इसी प्रकार लोभी को अपनी स्थिती के अनुसार दाम में आकृषित रहने के कारण उसका गुरू दाम कहलाता है, .. अब ध्यान दें..

*कबीर का गुरू संत है* इसमें कबीर ने सामान्य जन को कबीर कहा है .. अर्थात यामान्य लोग संसार मे सार ना जानकर आत्मा परमात्मा के विषय में स्थिती चाहने लगते है पर मार्ग ना मिल पाने के कारण संत में अपनी स्थिती बना लेते है व संत में ही आकृषित होते रहते है इसलिय उनके गुरू को संत काहा गया है..
संतन का गुरु राम  *पर जो वास्तव में आत्मा-परमात्मा के ही विषय को धारण किये रहते हैं वो केवल परमात्मा में स्थित रहते है व अपनी स्थिती के कारण केवल परमात्मा में ही निरंतर आकृषित रहते है इसलिय उनके गुरू राम याने परमात्मा रहते है सतगुरू मेरे शयाम जी का भाव भी यही है*
अब जान्ने वाली बात है कि संतों के गुरू राम काहा है तो संत कौन है *इसविषय पर कबीर जी ने कहा है*..

*आतम चिन्ह परमातम चीन्है, संत कहावै सोई ।
यहै भेद काय से न्यारा, जानै बिरला कोई ॥*
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प्रणाम जी

*केवल पढ़कर मत छोडना इसविषय पर गहन मंथंन करना,तो इस विषय के भी विषय को गरहण कर पाओगे*

Friday, July 8, 2016

वासना..
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     प्रकृती के साथ संयोग करके बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मान्यता रूपी मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। प्रकृती के साथ संयोग से वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
          विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्मस्प से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाऍ अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव की प्रकृती के साथ संयोग की धारणा या मान्यता का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
     मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है । फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। जब परमात्मा का आनंद आता है तो जन्म जन्म के विकार अपने आप छूट जाते हैं..*जब ये सुख आवे अंगमे तो छूट जाये सब विकार..*
*ये सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता किसी आप ऐसे व्यक्ती से ग्रहण कर सकते है जीसे आत्मा और परमात्मा की एकरसता का बोध या स्वः साक्षात अनुभव हो*

*पर ध्यान रहे उसे गुरू मत समझना कयोंकी वो आपकी सतगुरू से भेंटकरवा देगा अर्थात आपको गुरूमुख कर देगा ,वो सवंय गुरू नही होता*
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प्रणाम जी

Tuesday, July 5, 2016



*साकाम और निस्काम भक्ति वो नही है जो आजतक हमने सुना है या समझा है..*
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आज तक कि हमारी धारणा या मान्यता के अनुसार साकाम भक्ति का अर्थ है कोई सांसारीक कामना से परमात्मा की भक्ति करना, और निष्काम भक्ति का आर्थ है बिना किसी सांसारिक कामना के केवल परमात्म की चाह रखना या कामना करना..
और कोई प्रश्न करे कि कामना तो दोनो में है फिर निष्काम भक्ति कैसे हुई, तो हमारे पास कोई जवाब नही होता और अपनी बुद्धि से अटपटा जवाब देते हैं कि परमात्मा कि कामना दिव्य कामना है इसलिय ये कामना नही मानी जायगी इस कारण ये निष्काम भक्ति है..
*गलत बिल्कुल गलत*
*जानलो ये गलत धारणा या मान्यता है*

ध्यान दें भक्ति दो ही प्रकार की है साकाम और निष्काम, पर हमने साकाम भक्ति को बहोत निम्न स्तर पर लाकर माया का रूप बना दिया, साकाम को इतने निम्न स्तर पर मान्ने के कारण हमारी निष्काम भी अपने वास्तविक स्तर पर नही पहोंच पाई और हम वास्तविक निष्काम के स्तर तक नही पहोंच पाये , और निस्काम भक्ती से अनभिग्य हो गये..

हमारी साकाम भक्ति कि मान्यता के अनुसार अपनी कोई सांसारीक इच्छा के लिय परमात्मा कि भक्ती साकाम भक्ति है.. ध्यान दें इसमें भक्ति कया है ? इसे साकाम भक्ति कहना भक्ति का अपमान है .. ये तो परमात्मा की साकाम भक्ति कैसे कह सकते हो ?? गहनता से देखो, इसमें कामना याने इच्छा कि भक्ती है अर्थात केवल माया की चाह है, माया ही मांग रहे हो तो परमात्मा की भक्ति कैसे हुइ..??
ये साकाम भक्ति नही है ये माया है , इसे साकाम भक्ति नही कहना, ये तो कामना है , भक्ति नही ..

फिर साकाम और निष्काम भक्ति कया है ??

अब ध्यान दो पहले जानों कि साकाम भक्ति कया है .. *जिसे तुम निष्काम कहते हो वो है साकाम भक्ति* अर्थात केवल परमात्मा को चाहना या परमात्मा को पाने के लिय उसकी भक्ती करना साकाम भक्ति है ,, कयोंकी इसमे परमात्मा को पाने कि कामना है इसलिय ये साकाम भक्ति है..
अर्थात जो हमारे अनुसार निष्काम थी वो तो साकाम भक्ति है..
तो निष्काम भक्ति कया है???
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इसकि चर्चा कल.....

प्रणाम जी

Saturday, July 2, 2016

सुपरभात जी

*कलयुग*

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कलयुग को इसलिय महत्वपूर्ण माना गया है कयोंकी इसी कलयुग में ब्रह्म ग्यान प्रकट हुवा है ..

बुद्ध स्तोत्र
"" कलियुग ""के प्रथम चरण में वह सच्चिदानन्द परब्रह्म अचानक ही ज्ञान रूप से प्रकट होंगे, जिनके ज्ञान को प्राप्त करके तुम स्वयं भी ज्ञानमयी हो जाना ।।५।।

(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय ४ )
इसमें कहा गया है कि कभी न होने वाले वे ब्रह्ममुनि ""कलियुग"" में अवतरित होंगे, जो एकमात्र प्रधान पुरुष (अक्षरातीत) के ही आश्रय में रहने वाले होंगे और उनको छोड़कर अन्य किसी की भी उपासना नहीं करेंगे । उनका ग्यान अलौकिक होगा

*कलयुग में सतगुरू पचान होनी है ..हम अनंत जन्मों से निगुरे है , कारण, गुरू का ना मिलना, कलयुग में ही सतगुरू से मिलन होना है, जिसे पाकर तुम सवंय सतगुरूरसमय हो जाओगे*

कलियुग केवल नाम अधारा ,
सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।

कलयुग केवल नाम(पहचान) के आधार पर पार हो जाता है ..याहां नाम का अर्थ केवल पहचान है, नाम हमारी पहचान का सुचक है.. *निनाम सोई जाहेर हुआ* का भाव भी पहचान से ग्रहण करोगे तो नाम का झगडा ही नही होगा..

*सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।*

 सुमिरन यवंय का विश्राम है. सवंय का परमात्मा विषय में विश्राम ही सुमिरन है, समाधि मध्य में है और सुमिरन शिखर है. सुमिरन अर्थात परमात्मा के प्रति जागना या उसमें स्थित होना..

*सुरति क्या है ?*

 सांसों के साथ आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति होश को सुरति कहते हैं. सूफी इसे फ़िक्र कहते हैं. इसमें सहज ही निरंतर निर्विचार स्थिती की अवस्था बनी रहती है. सुरति होश से ज्यादा प्रभावशाली है.

*सुमिरन क्या है ?*

जब सुरति में परमात्मा जोड़ दिया जाता है, तो उसे सुमिरन कहते हैं. सूफी इसे जिक्र कहते हैं. यह सर्वाधिक प्रभावशाली है. प्रभाव की दृष्टि से सुमिरन कों 100 प्रतिशत अंक दिया जा सकता है,

”“सुमिरन चार प्रकार से किया जाता है – (1) कंठ से, (2) मन से, (3) ह्रदय से एवं (4) साक्षी होकर.

1- कंठ से सुमिरन का अर्थ है बोलकर सुमिरन, बोलकर प्रभु की याद, कीर्तन. ज्यादातर लोग इसे ही सुमिरन कहते है या समझते है..

2- मन से सुमिरन का अर्थ है प्रभु के नाम और रूप का मनन करते हुए सुमिरन.

3- ह्रदय से सुमिरन का अर्थ है प्रेम से भरकर परमात्मा की याद. ये तीनों प्रकार के सुमिरन संत वाणी में वर्णित हैं.

*साक्षी सुमिरन का अर्थ है आत्मस्थिती को परमात्मा मे स्थित कर लेना या हो जाना, यही सत्य  सुमिरन है. यह सर्वाधिक प्रभावशाली है.”*

इसका सार जो आप ग्रहण कर रहें है यही ब्रह्म ग्यान है, ये कलयुग में ही होना था इसलिय कलयुग महान कहा गया है..
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प्रणाम जी