Friday, July 8, 2016

वासना..
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     प्रकृती के साथ संयोग करके बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मान्यता रूपी मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। प्रकृती के साथ संयोग से वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
          विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्मस्प से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाऍ अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव की प्रकृती के साथ संयोग की धारणा या मान्यता का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
     मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है । फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। जब परमात्मा का आनंद आता है तो जन्म जन्म के विकार अपने आप छूट जाते हैं..*जब ये सुख आवे अंगमे तो छूट जाये सब विकार..*
*ये सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता किसी आप ऐसे व्यक्ती से ग्रहण कर सकते है जीसे आत्मा और परमात्मा की एकरसता का बोध या स्वः साक्षात अनुभव हो*

*पर ध्यान रहे उसे गुरू मत समझना कयोंकी वो आपकी सतगुरू से भेंटकरवा देगा अर्थात आपको गुरूमुख कर देगा ,वो सवंय गुरू नही होता*
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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