Wednesday, January 31, 2018

मनुष्य की श्रेष्ठता ओर आत्मज्ञान स्वयं उसके हाथों में है। प्रकृति ने तो उसे मात्र संभावनाएं दी हैं। वह स्वयं का स्वयं ही सृजन करता है। यह स्वतंत्रता महिमापूर्ण है। किंतु, हम चाहें तो इसे ही दुर्भाग्य भी बना सकते हैं। और,अधिक लोगों को यह स्वतंत्रता दुर्भाग्य ही सिद्ध होती है। क्योंकि, सृजन की क्षमता में विनाश की क्षमता और स्वतंत्रता भी तो छिपी है! अधिकतर लोग दूसरे विकल्प का ही प्रयोग करते हें। क्योंकि, निर्माण से विनाश आसान होता है। और,स्वयं को मिटाने से आसान और क्या है? *स्व-विनाश के लिए आत्मसृजन में न लगना ही काफी है*। उसके लिए अलग से और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती। जो जीवन में ऊपर की ओर नहीं उठ रहा है, वह अनजाने और अनचाहे ही पीछे और नीचे गिरता जाता है।

 किसी सभा में चर्चा चली थी कि मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सब प्राणियों को वश में कर लेता है। किंतु, कुछ का विचार था कि मनुष्य तो कुत्ते से भी नीचा है,क्योंकि कुत्तों का संयम मनुष्य से कई गुना श्रेष्ठ होता है। इस विवाद में एक संत उपस्थित थे। दोनों पक्ष वालों ने उनसे निर्णायक मत देने को कहा। संत ने कहा था, ''मैं अपनी बात कहता हूं। उसी से निर्णय कर लेना। जब तक मैं अपना चित्त और जीवन आत्मज्ञान में लगाये रहता हूं, तब तक परमात्मा के करीब होता हूं। किंतु, जब मेरा चित्त और जीवन देह या संसार में होता है, तो कुत्ते भी मुझ जैसे हजार संतो से श्रेष्ठ होते हैं।''


मनुष्य मृत्यु और चेतना का जोड़ है। जो देह का और, उसकी वासनाओं का अनुसरण करता है, वह नीचे से नीचे उतरता जाता है। और, जो आत्मा के अनुसंधान में रत होता है, वह अंतत:सच्चिदानंद को पाता है और स्वयं भी वही हो जाता है।

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Tuesday, January 30, 2018

एक साधु को उसके मित्रों ने पूछा, ''यदि शत्रु आप पर हमला कर दें, तो आप क्या करेंगे?'' वह बोला, ''मैं अपने मजूत किले में जाकर बैठा रहूंगा।'' यह बात उसके शत्रुओं के कान तक पहुंच गई। फिर, एक दिन शत्रुओं ने उसे एकांत में घेर लिया और कहा, ''महानुभाव! वह मजबूत किला कहां है?'' वह साधु खूब हंसने लगा और फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर बोला, ''यह है मेरा किला। उसके ऊपर कभी कोई हमला नहीं कर सकता है। शरीर तो नष्ट किया जा सकता है- पर जो उसके भीतर है- वह नहीं। वही मेरा किला है। मेरा उस आत्माके मार्ग को जानना ही मेरी सुरक्षा है।''

जो व्यक्ति इस मजबूत किले को नहीं जानता है,उसका पूरा जीवन असुरक्षित है। और, जो इस किले को नहीं जानता है, उसका जीवन प्रतिक्षण अनेक काम क्रोध आदी विकार रूपी शत्रुओं से घिरा है। ऐसे व्यक्ति को अभी शांति और सुरक्षा के लिए कोई शरणस्थल नहीं मिला है। और, जो उस स्थल को बाहर खोजते हैं, वे स्त्रूओं को ही खोजते हैं,


जीवन का वास्तविक परिचय आत्मा में प्रतिष्ठित होकर ही मिलता है, क्योंकि उस बिंदु के बाहर जो परिधि है, वह मृत्यु से निर्मित है।


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Monday, January 29, 2018

बहुत दिन बीते एक नदी के किनारे एक मुरदे की खोपड़ी ने कुछ बातें एक राहगीर से कही थीं। वह बोली थी,'ओ! प्यारे, जरा होश में चल। मैं भी कभी शाही दबदबा रखती थी और मेरे ऊपर ताज था। फतह मेरे पीछे-पीछे चली और मेरे पैर जमीन पर न पड़ते थे। होश ही न था कि एक दिन सब समाप्त हो गया। कीड़े मुझे खा गए हैं और हर पैर मुझे ठोकर मार जाता है। तू भी अपने कानों से गफलत की रुई निकाल डाल, ताकि तुझे मुरदों की आवाज से उठने वाली नसीहत हासिल हो सके।' 
मुरदोंकी आवाज से उठने वाली नसीहत क्या है? और, क्या कभी हम उसे सुनते हैं! जो उसे सुन लेता है, उसका जीवन ही बदल जाता है। जन्म के साथ मृत्यु जुड़ी है। उन के बीच में जो है वह जीवन नहीं, जीवन का आभास ही है। जीवन वह कैसे होगा, क्योंकि जीवन की मृत्यु नहीं हो सकती है! जन्म का अंत है, जीवन का नहीं। और, मृत्यु का प्रारंभ है, जीवन का नहीं। *जीवन तो उन दोनों से पार है*। जो उसे नहीं जानते हैं, वे जीवित होकर भी जीवित नहीं हैं। और, जो उसे जान लेते हैं, वे अमर हैं।


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Friday, January 26, 2018

तुम्हारा मंदिर और उपासना-गृहों में बैठने का कोई मूल्य नहीं है और तुम्हारे हाथों में ली गई मालाएं झूठी हैं, जब तक कि तुम शांति ओर आत्मा की ओर नहीं बढ़ते। जो आत्मा की ओर चलता है ओर जो आंतरिक शांत होकर विचारो की तरंगों से मुक्त हो जाता है, वह जहां भी है, वहीं मंदिर में है और उसके हाथ में जो भी कार्य है, वही माला है।

एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा था, ''मेरी पत्नी मेरी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती है। आप उसे थोड़ा समझा दें तो अच्छा है।'' दूसरे दिन सुबह ही वह साधु उसके घर गया। घर के बाहर बगिया में ही उसकी पत्नी मिल गई। साधु ने पति के संबंध में पूछा। पत्नी ने कहा, ''जहां तक मैं समझती हूं, इस समय वह किसी चमडे की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।'' सुबह का धुंधलका था। पति पास ही बनाए गए अपने उपासना-गृह में माला फेर रहा था। उससे इस झूठ को नहीं सहा गया। वह बाहर आकर बोला, ''यह बिलकुल असत्य है। मैं अपने मंदिर में था।'' साधु भी हैरान हुआ; पर पत्नी बोली, ''क्या सच ही तुम उपासना-गृह में थे? क्या माला हाथ में, शरीर मंदिर में और मन हमारी चमड़ी में नहीं था?'' तभी तो तुम हमारे चमडो से लडने आ गए । पति को होश आया। व्यर्थ के विचार को छोड़ो और निर्विचार हो रहो, तो तुम जहां हो प्रभु का आगमन वहीं हो जाता है। उस खोजने तुम कहां जाओगे? और, जिसे जानते ही नहीं उसे खोजोगे कैसे? उसकी खोज से नहीं, स्वयं के भीतर शांति के निर्माण से ही उसे पाया जाता है। कोई आज तक उसके पास नहीं गया है, वरन् जो अपनी पात्रता से उसे आमंत्रित करता है, उसके पास वह स्वयं ही चला आता है। मंदिर में जाना व्यर्थ है। जो सत्य जानते हैं, वे स्वयं ही मंदिर बन जाते हैं।
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Thursday, January 25, 2018

एक व्यक्ति बूढ़ा हो गया था। उसका शरीर अस्सी वसंत देख चुका था। और जो देह कभी अति सुंदर और स्वस्थ थी, वह अब जर्जर और ढीली हो गई थी । ऐसे बुढ़ापे की एक सुबह की घटना है। वह स्नानगृह में था। स्नान के बाद वह जैसे ही शरीर को पोंछने लगा, उसने अचानक देखा कि वह देह तो कब की जा चुकी है, जिसे कि वह अपनी मान बैठा था! शरीर तो बिलकुल ही बदल गया है। वह काया अब कहां है, जिसे उसने प्रेम किया था? जिस पर उसने गौरव किया था, उसकी जगह यह खंडहर ही तो शेष रह गया है? पर, साथ ही एक अत्यंत नया बोध भी उसके भीतर  होने लगा : ''शरीर तो वही नहीं है, लेकिन वह तो वही है। वह तो नहीं बदला है।'' और तब उसने स्वयं से ही पूछा था : '' तब फिर मैं कौन हूं?''

 यही प्रश्न प्रत्येक को अपने से पूछना होता है। यही असली प्रश्न है। प्रश्नों का प्रश्न यही है। जो इसे नहीं पूछते, वे कुछ भी नहीं पूछते हैं। और, जो पूछते ही नहीं, वे उत्तर कैसे पा सकगें?  उसके पूर्व मनुष्य अंधा है। उसके बाद ही वह आंखों को पाता है।

''मैं कौन हूं?'' जो स्वयं से इस प्रश्न को नहीं पूछता है, ज्ञान के द्वार उसके लिए बंद ही रह जाते हैं। उस द्वार को खोलने की कुंजी यही है। स्वयं से पूछो कि ''मैं कौन हूं?'' और, जो प्रबलता से और समग्रता से पूछता है, वह स्वयं से ही उत्तर भी पा जाता है।
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Wednesday, January 24, 2018

सत्य की एक झलक भी वह कर दिखाती है। अंधेरे में उजाला करने को प्रकाश के ऊपर बड़े-बड़े शास्त्र किसी काम के नहीं, एक मिट्टी का दीया जलाना आना ही पर्याप्त है।


एक आत्म ज्ञानी के व्याख्यानों में एक बूढ़ी धोबिन निरंतर देखी जाती थी। लोगों को हैरानी हुई : एक अपढ़ गरीब औरत संत की गंभीर वार्ताओं को क्या समझती होगी! किसी ने आखिर उससे पूछ ही लिया कि उसकी समझ में क्या आता है? उस बूढ़ी धोबिन ने जो उत्तर दिया, वह अद्भुत था। उसने कहा, ''मैं जो नहीं समझती, उसे तो क्या बताऊं। लेकिन, एक बात मैं खूब समझ गई हूं और पता नहीं कि दूसरे उसे समझे हैं या नहीं। मैं तो अपढ़ हूं और मेरे लिए एक ही बात काफी है। उस बात ने मेरा सारा जीवन बदल दिया है। और वह बात क्या है? वह है कि मैं भी प्रभु से दूर नहीं हूं, एक दरिद्र अज्ञानी स्त्री से भी प्रभु दूर नहीं है। प्रभु निकट है- निकट ही नहीं, स्वयं में है। यह छोटा सा सत्य मेरी दृष्टि में आ गया है और अब मैं नहीं समझती कि इससे भी बड़ा कोई और सत्य हो सकता है!'' जीवन बहुत तथ्य जानने से नहीं, किंतु सत्य की एक छोटी -सी अनुभूति से ही परिवर्तित हो जाता है। और, जो बहुत जानने में लग रहते हैं, वे अक्सर सत्य की उस छोटी-सी चिंगारी से वंचित ही रह जाते हें, जो कि परिवर्तन लाती है और जीवन में बोध के नये आयाम जिससे उद्घटित होते हैं।
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Tuesday, January 23, 2018

मैंने सुना है कि क्राइस्ट ने लोगों को कब्रों से उठाया और उन्हें जीवन दिया। जो स्वयं को शरीर जानता हे, वह कब्र में ही है। शरीर के ऊपर आत्मा को जानकर ही कोई कब्र से उठता और जीवित अवस्था में होता है।


 एक बार किसी प्राचीन आश्रम में किसी साधु की मृत्यु हो गई थी। उसे भूमि-गर्भ में निर्मित विशाल मुर्दाघर में उतार दिया गया। लेकिन सौभाग्य या दुर्भाग्य से वह मरा नहीं और कुछ समय बाद मृतकों की उस बस्ती में होश में आ गया। उसकी मानसिक पीड़ा और संताप की कल्पना करना भी कठिन है। उस दुर्गध और मृत्यु से भरी अंधेरी बस्ती में, जहां सैकड़ों मुरदे सड़ रहे थे, वह जीवित था! बाहर पहुंचने का कोई मार्ग नहीं, आवाज बाहर पहुंच सके, इस तक की कोई संभावना नहीं। वह साधु वहीं जीने लगा। कीड़े-मकोड़े उसका भोजन बन गये। मृत्यु-गृह की दीवारों से रिसता गंदा पानी वह पी लेता और कीड़ों पर निर्वाह करता। मुरदों के कपड़े निकाल कर उसने अपने सोने और पहनने की व्यवस्था कर ली थी। और, वह निरंतर अपने किसी साथी की मृत्यु के लिये प्रार्थना करता रहता। क्योंकि, किसी के मरने पर ही उस अंध-गृह के द्वार खुल सकते थे। वर्ष पर वर्ष बीते उसे तो समय की भी पता नहीं पड़ता था। फिर एक दिन कोई मरा, तो द्वार खुले और लोगों ने उसे जीवित पाया। और, जब लोग उसे बाहर निकाल रहे थे, तब वह मुरदों से उतारे गये कपड़े और उनके कपड़ों में से इकट्ठे किये गये रुपये-पैसे साथ ले लेना नहीं भूला था!

*यहअतीत में घटी कोई घटना है या कि स्वयं हमारे जीवन का प्रतिबिंब?*

क्या यह घटना हम सबके जीवन में अभी और यहीं नहीं घट रही है? मैं देखता हूं, तो पाता हूं कि हममें से प्रत्येक एक दूसरे की मृत्यु के लिए प्रार्थना कर रहा है(सब शरीरों में ही भाव रखने की कहते हैं) सब की मुर्दों की बस्ती में हैं, जहां से बाहर निकलने के लिए कोई द्वार नहीं मालूम होता है। और, हम भी दूसरे मुरदों के कपड़े और पैसे छीन रहे हैं। और हमारा निर्वाह भी कीड़े-मकोड़ों पर ही है। और, यह सब हो रहा है, आत्म ज्ञान के अभाव के कारण। अंध-जीवेषणा से परिचालित व्यक्ति वास्तविक जीवन को अनुभव नहीं कर पाता। उसकी धुंध से जो मुक्त होता है, वही जीवन (आत्मा)को जानता है। अन्यथा ये चेतना कब्र में ही है, ऐसा ही जानना है।

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Monday, January 22, 2018

एक प्राचीन लोक।कथा है- उस समय की, जबकि मनुष्य के पास प्रकाश नहीं था, अग्नि नहीं थी। रात्रि तब बहुत पीड़ा थी। लोगों ने अंधकार को दूर करने के बहुत उपाय सोचे, पर कोई भी कारगर नहीं हुआ। किसी ने कहा मंत्र पढ़ो, तो मंत्र पढ़े गये और किसी ने सुझाया कि प्रार्थना करो, तो कोरे आकाश की ओर हाथ उठाकर प्रार्थनाएं की गई। पर अंधकार न गया, सो न गया। किसी युवा चिंतक और आविष्कारक ने अंतत: कहा, ''हम अंधकार को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डाल दें। ऐसा करने से धीरे-धीरे अंधकार क्षीण होगा। और फिर उसका अंत भी आ सकता है।'' यह बात बहुत युक्तिपूर्ण मालूम हुई और लोग रात-रात भर अंधेरे को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डालते, पर जब देखते तो पाते कि वहां तो कुछ भी नहीं है! ऐसे-ऐसे लोग बहुत ऊब गये। लेकिन, अंधकार को फेंकने ने एक प्रथा का रूप ले लिया और हर व्यक्ति प्रति रात्रि कम से कम एक टोकरी अंधेरा तो जरूर ही फेंक आता था! फिर, एक युवक किसी अप्सरा के प्रेम में पड़ गया और उसका विवाह उस अप्सरा से हुआ। पहली ही रात बहू से घर के बढ़े सयानों ने अंधेरे की एक टोकरी घाटी में फेंक आने को कहा। वह अप्सरा यह सुन बहुत हंसने लगी। उसने किसी सफेद पदार्थ की बत्ती बनाई, एक मिट्टी के कटोरे में घी रखा और फिर किन्हीं दो पत्थरों को टकराया। लोग चकित देखते रहे- आग पैदा हो गई थी, दीया जल रहा था और अंधेरा दूर हो गया था! उस दिन से फिर लोगों ने अंधेरा फेंकना छोड़ दिया, क्योंकि वे दिया जलाना सीख गये थे। लेकिन जीवन के संबंध में हममें से अधिक अभी भी दीया जलाना नहीं जानते हैं। और, अंधकार से लड़ने में ही उस अवसर को गंवा देते हैं, जो कि अलौकिक प्रकाश में परिणित हो सकता है।

शुभ को पाने की आकांक्षा से भरो, तो अशुभ अपने से छूट जाते हैं। और, जो अपने को पापी मान कर विषय वासनाओं से लड़कर खुदको शुद्ध करने में लगे रहते हैं वे सारी उम्र अपने पापों की टोकरी ही ढोते रहते हैं, ओर वे उनमें ही और गहरे धंसते जाते हैं। जीवन को आत्मिक आनंद की ओर लगाओ, परमात्मा का खोज करो, विषयों के विष्य में मत सोचो, फिर विषय अंधेरे के भांति समाप्त हो जाते हैं। आत्मिक ज्ञान का दीपक जलाने से विषय रूपी अंधकार अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, आध्यात्मिक सफलता का स्वर्ण सूत्र यही है।

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Sunday, January 21, 2018

सत्य की ओर जीवन क्रांति अत्यंत द्रुत गति से करनी होती है- कभी भी ये ना सोचो की हम सब परिवर्तन धीरे धीरे कर लेंगे, जो भी करना चाहते हो वो आज ही अभी कर दो फिर- विद्युत की चमक की भांति ही जीवन बदल जाता है।
कुछ लोग एक व्यक्ति को साधू के पास लाए थे। उन्हें कोई दुर्गुण पकड़ गया था। उसके प्रियजन चाहते थे कि वे उसे छोड़ दें। उस दुर्गुण के कारण उनका पूरा जीवन ही नष्ट हुआ जा रहा था। साधू ने उनसे पूछा कि क्या विचार है? वे बोले, ''मैं धीरे-धीरे उसका त्याग कर दूंगा।'' यह सुन साधू हंसने लगा था और उनसे कहा था, ''धीरे-धीरे त्याग का कोई अर्थ नहीं होता है। कोई मनुष्य आग में गिर पड़ा हो, तो क्या वह उससे धीरे-धीरे निकलेगा? और, यदि वह कहे कि मैं धीरे-धीरे निकलने का प्रयास करूंगा, तो इसका क्या अर्थ होगा? क्या इसका स्पष्ट अर्थ नहीं होगा कि उसे स्वयं आग नहीं दिखाई पड़ रही है?''


 परमहंस रामकृष्ण की सत्संगति से एक धनाढ्य युवक बहुत प्रभावित था। वह एक दिन परमहंस देव के पास एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने लाया। रामकृष्ण ने उससे कहा, ''इस कचरे को गंगा को भेंट कर आओ।'' अब वह क्या करे? उसे जाकर वे मुद्राएं गंगा को भेंट करनी पड़ीं। लेकिन वह बहुत देर से वापस लौटा , क्योंकि उसने एक-एक मुद्रा गिनकर गंगा में फेंकी! एक-दो- तीन- हजार - स्वभावत: बहुत देर उसे लगी। उसकी यह दशा सुनकर रामकृष्ण ने उससे कहा था, ''जिस जगह तू एक कदम उठाकर पहुंच सकता था, वहां पहुंचने के लिये तूने व्यर्थ ही हजार कदम उटाये।''

सत्य को जानने की ललक में अगर तुम आगे बढ़ना चाहते हो तो किसी भी बात का त्याग धीरे-धीरे नहीं करना होता है। अगर धीरे है तो तुममें ललक नहीं है । जो भी करना ह एक झ्टके में करदो, धीरे धीरे का कोई अर्थ नहीं है।

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 एक दिन मैंने सूची बनाई थी- उन सब तत्वों को पाने की, जिन्हें पाकर व्यक्ति धन्यता को उपलब्ध होता है। स्वास्थ्य, सौंदर्य, सुयश, शक्ति, संपत्ति- उस सूची में सब कुछ था। उस सूची को लेकर मैं एक बुजुर्ग के पास गया और उनसे कहा कि क्या इन सब बातों में वो सब नहीं आता जो मुुुझेे चाहिए ? मेरी बातों को सुन और मेरी सूची को देख उन वृद्ध की आंखों के पास हंसी इकट्ठा होने लगी थी और वे बोले थे, ''मेरे बेटे, बड़ी सुंदर सूची है। अत्यंत विचार से तुमने इसे बनाया है। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण बात तुम छोड़ ही गये हो, जिसके अभाव में शेष सब व्यर्थ हो जाता है।  मैंने पूछा, ''वह क्या है?'' क्योंकि मेरी दृष्टिं में तो सब-कुछ ही आ गया था। उन वृद्ध ने उत्तर में मेरी पूरी सूची को निर्ममता के साथ काट दिया और कहा कि जो तुम चाह ते हो ये वो सब नहीं है । उन सारे शब्दों की जगह उन्होंने केेेवल एक शब्द लिखा, "आनंंद"

ओर कहा, जो तुमने सूची बनाई है वो तो सब बाहर मिलने वाला सामना है, पर जो तुम चाहते हो वो तुम्हे अंदर मिलेगा, ये दोनों अलग अलग स्थान पर मिलने वाली वस्तुएं हैं, बस तुम इतनी सी बात नहीं समझ रहे हो। तुम समझते हो तुम्हारी बनाई सूची से तुम्हे आनंद मिलेगा, पर तुम ये नहीं समझ पाए कि आनंद किसी वस्तु में नहीं होता बल्कि आनंद तो अपने आप में स्वतंत्र है, वो किसी वस्तु में नहीं होता बल्कि खुद में ही होता है, इसके मार्ग वस्तुओं से अलग है ।

आनंद को चाहो, वतुओ को नहीं। लेकिन, ध्यान रहे कि उसे तुम अपने भीतर नहीं पाते हो, तो कहीं भी नहीं पा सकोगे। आनंद कोई बाह्य वस्तु नहीं है। वह तो स्वयं ही हो, ध्यान रहे कि हर परिस्थिति में भीतर संगीत बना रहे। अंतस के संगीतपूर्ण हो उठने का नाम ही आनंद है। वह कोई रिक्त और खाली मन:स्थिति नहीं है, किंतु अत्यंत सत्य संगीत की भावदशा है।

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Friday, January 19, 2018

जीवन झाग का बुलबुला है। जो उसे ऐसा नहीं देखते, वे उसी में डूबते और नष्ट हो जाते हैं। किंतु, जो इस सत्य के प्रति सजग होते हैं, वे एक ऐसे जीवन को पा लेने का प्रारंभ करते हैं, जिसका कि कोई अंत नहीं होता है।
एक फकीर कैद कर लिया गया था। उसने कुछ ऐसी सत्य बातें कहीं थीं, जो कि बादशाह को अप्रिय लगी थीं। उस फकीर के किसी मित्र ने कैदखाने में जाकर उससे कहा, ''यह मुसीबत व्यर्थ क्यों मोल ले ली? न कही होती वे बातें, तो क्या बिगड़ता था?'' फकीर ने कहा, ''सत्य ही अब मुझ से बोला जाता है। असत्य का ख्याल ही नहीं उठता। जब से जीवन में परमात्मा का आभास मिला, तब से सत्य के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं रहा है। फिर, यह कैद तो घड़ी भर की है!'' किसी ने जाकर यह बात बादशाह से कह दी। बादशाह ने कहा, ''उस पागल फकीर को कह देना कि कैद घड़ी भर की नहीं, जीवन भर की है।'' जब यह फकीर ने सुना तो खूब हंसने लगा और बोला, ''प्यारे बादशाह को कहना कि उस पागल फकीर ने पूछा है कि क्या जिंदगी घड़ी भर से ज्यादा की है?''
सत्य-जीवन जिन्हें पाना हो, उन्हें इस तथाकथित जीवन की सत्यता को जानना होगा। और, जो इसकी सत्यता को जानने का प्रयास करते हैं, वे पाते हैं कि एक स्वप्न से ज्यादा न इसकी सत्ता है और न अर्थ है। इसलिए इसे आती लघु जानकर सत्य की खोज करनी चाहिए ।
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Thursday, January 18, 2018

एक विद्वान था। उसने बहुत अध्ययन किया था। वेदज्ञ था और सब शास्त्रों में पारंगत। अपनी बौद्घिक उपलब्धियों का उसे बहुत अहंकार था। वह सदा ही एक जलती मशाल अपने हाथ में लेकर चलता था। रात्रि हो या दिन यह मशाल उसके साथ ही होती थी। और, जब कोई उसका कारण उससे पूछता, तो वह कहता था, ''संसार अंधकारपूर्ण है। मैं इस मशाल को लेकर चलता हूं, ताकि कुछ प्रकाश तो मनुष्य को मिल सके। उनके अंधकारपूर्ण जीवन-पथ पर इस मशाल के अतिरिक्त और कौन सा प्रकाश है?'' एक दिन एक भिक्षु ने उसके ये शब्द सुनें। सुनकर वह भिक्षु हंसने लगा और बोला, ''मेरे मित्र, अगर तुम्हारी आंखें सर्वव्यापी प्रकाश-सूर्य के प्रति अंधी हैं, तो संसार को अंधकारपूर्ण तो मत कहो। फिर, तुम्हारी यह मशाल सूर्य के गौरव में और क्या जोड़ सकेगी? और, जो सूर्य को नहीं देख पा रहे हैं, क्या तुम सोचते हो कि वे तुम्हारी इस क्षुद्र मशाल को देख सकेंगे?''
 इस समय तो एक नहीं, बहुत-सी मशालें आकाश में जली हुई दिखाई पड़ रही हैं। राह-राह पर मशालें हैं- धर्मो की, संप्रदायों की, विचारों की, वादों की। इन सब का दावा यही है कि उनके अतिरिक्त और कोई प्रकाश ही नहीं है और वे सभी मनुष्यों के अंधकारपूर्ण पथ को आलोकित करने को उत्सुक हैं। लेकिन सत्य यह है कि उनके धुएं में मनुष्य की आंखें सूर्य को भी नहीं देख पा रही हैं। इन सब मशालों को बुझादो या वैसे ही रहने दो परंतु उनके पार भी देखने का प्रयास करो, ताकि सूर्य के दर्शन हो सकें। मनुष्य निर्मित कोई मशाल नहीं, आत्मा या परमात्मा रूपी सूर्य ही वास्तविक और एकमात्र प्रकाश है।

आंखें भीतर ले जाओ और सूर्य को देखो, जो कि स्वयं में है। उस प्रकाश के अतिरिक्त और कोई प्रकाश नहीं है। उसकी ही शरण जाओ। उससे भिन्न और शरण जो पकड़ता है, वह स्वयं में बैठे परमात्मा का अपमान करता है।

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Monday, January 15, 2018

किसी व्यक्ति का एकमात्र पुत्र गुम गया था। उसे गुमे बहुत दिन-बहुत बरस बीत गए। सब खोजबीन करके वह व्यक्ति भी थक गया। फिर धीरे-धीरे वह घटना को ही भूल गया।
तब अनेक वर्षो बाद उसके द्वार एक अजनबी आया और उसने कहा, ''मैं आपका पुत्र हूं। आप पहचाने नहीं?'' पिता प्रसन्न हुआ। उसने घर लौटे पुत्र की खुशी में मित्रों को प्रीतिभोज दिया, उत्सव मनाया और उसका स्वागत किया। लेकिन, वह तो अपने पुत्र को भूल ही गया था और इसलिए इस दावेदार को पहचान नहीं सका। वह व्यक्ति उसका पुत्र नहीं था और समय पाकर वह उसकी सारी संपत्ति लेकर भाग गया था। ऐसे ही दावेदार प्रत्येक के सामने आते हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो कि उन्हें पहचानते हों। अधिक लोग तो उनके धोखे में आ जाते हैं और अपनी जीवन रूपी संपत्ति खो बैठते हैं। आनंद ही आपका वास्तविक पुत्र है, आत्मा से उत्पन्न होने वाले वास्तविक आनंद की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनंद समझ लेते हें, उन्हें ये उनके नकली पुत्र सारी उम्र ठगते रहते है ओर वे जीवन की अमूल्य संपदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं।

स्मरण रखना कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह छीन भी लिया जावेगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक संपदा है। उसे न खोजकर जो कुछ और खोजता है, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंतत: वे पायेंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड़ में वे स्वयं के जीवन को ही गंवा बैठे हैं।

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Sunday, January 14, 2018

मिट्टी के जड़ घरों को ही ही बनाने में जीवन को व्यय मत करो। उस चेतन ओर आनंद घर का भी स्मरण करो, जिसे कि पीछे छोड़ आये हो और जहां कि आगे भी जाना है। उसका स्मरण आते ही ये घर फिर घर नहीं रह जाते हैं।
''नदी की रेत में कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने रेत के मकान बनाये थे और प्रत्येक कह रहा था, 'यह मेरा है और सबसे श्रेष्ठ है। इसे कोई दूसरा नहीं पा सकता है।' ऐसे वे खेलते रहे। और जब किसी ने किसी के महल को तोड़ दिया, तो लड़े-झगड़े भी। फिर, सांझ का अंधेरा घिर आया। उन्हें घर लौटने का स्मरण हुआ। महल जहां थे, वहीं पड़े रह गये और फिर उनमें उनका 'मेरा' और 'तेरा' भी न रहा।''
'' यह छोटा सा प्रसंग कितना सत्य है। और, क्या हम सब भी रेत पर महल बनाते बच्चों की भांति नहीं हैं? और कितने कम ऐसे लोग हैं, जिन्हें सूर्य के डूबते देखकर घर लौटने का स्मरण आता हो! और, क्या अधिक लोग रेत के घरों में 'मेरा' 'तेरा' का भाव लिये ही जगत से विदा नहीं हो जाते हैं!''

याद रखना कि समझदारी का उम्र से कोई संबंध नहीं। मिट्टी के घरों में जिसकी आस्था न रही, उसे ही मैं समझदार कहता हूं। शेष सब तो रेत के घरों में खेलते बच्चे ही हैं।

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एक दिन मै अपने चश्में को लेकर बोहोत व्याकुल हो रहा था, हर जगह ढूंडा पर कहीं नहीं मिल रहा था, जब थक कर बैठ गया तब देखा कि वो तो मैंने लगा रखा था, बोहोत आश्चर्य हुआ । अतृप्ति ओर तृप्ति दोनों ही मेरे पास थी बस मै जो मान रहा था या जो सोच रहा था वहीं मुझे मिल रही थी ।
एक क्षण में अतृप्ति से तृप्ति हो गई ।
तब मैंने पाया कि सही जगह पे ना खोजना ही अतृप्ति है ओर सही जगह स्वयं में तृप्ति है । एक कि तरफ मुड़ने से दूसरी अदृश्य हो जाती है । ये अतृप्ति ही विपत्ति है ओर ये तृप्ति ही सबसे बड़ी संपत्ति है । 

बहुत संपत्तियां खोजीं, किंतु अंत में उन्हें विपत्ति पाया। फिर, संपत्ति के लिए खोज की। जो पाया वही परमात्मा था। तब जाना कि परमात्मा को खो देना ही विपत्ति और उसे पा लेना ही संपत्ति है।
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Friday, January 12, 2018

''एक छोटे से घुटने के बल चलने वाले बालक ने एक दिन सूर्य के प्रकाश में खेलते हुए अपनी परछाई देखी। उसे एक अद्भुत वस्तु जान पड़ी। क्योंकि, वह हिलता तो उसकी वह छाया भी हिलने लगती थी। वह छाया का सिर पकड़ने का प्रयास करने लगा। किंतु, जैसे ही वह छाया का सिर पकड़ने के लिए बढ़ता कि वह दूर हो जाता। वह कितना ही बढ़ता गया, लेकिन पाया कि सिर तो सदा उतना ही दूर है। उसके और छाया के बीच फासला कम नहीं होता था। थक कर और असफलता से वह रोने लगा। द्वार पर भिक्षा को आए हुए एक भिक्षु ने यह देखा। उसने पास आकर बालक का हाथ उसके सिर पर रख दिया। बालक खुश हुआ, हंसने लगा; इस भांति छाया का मस्तक भी उसने पकड़ लिया था।''
''इसी प्रकार आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का मूल है, बाकी सब इसकी छाया है, आत्मा को पकड़ना जरूरी है। जो छाया को पकड़ने में लगते हैं, वे उसे कभी भी नहीं पकड़ पाते। आत्मा के अतिरिक्त सबकुछ छाया है, झूठ है। उनके पीछे जो चलता है, वह एक दिन असफलता से रोता है।''

याद रखना कि इस जगत में स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया जा सकता है। जो मूल खोजते हैं, वे पा लेते हैं और जो उससे अलग कुछ खोजते हैं, वे अंतत: असफलता और विषाद को ही उपलब्ध होते हैं।

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Thursday, January 11, 2018

एक भिखारी था। वह जीवन भर एक ही स्थान पर बैठ कर भीख मांगता रहा। धनवान बनने की उसकी बढ़ी प्रबल इच्छा थी। उसने बहुत भीख मांगी। पर, भीख मांग-मांग कर क्या कोई धनवान हुआ है? वह भिखारी था, सो भिखारी ही रहा। वह जिया भी भिखारी और मरा भी भिखारी। जब वह मरा तो उसके कफन के लायक भी पूरे पैसे उसके पास नहीं थे! उसके मर जाने पर उसका झोंपड़ा तोड़ दिया गया और वह जमीन साफ की गई। उस सफाई में ज्ञात हुआ कि वह जिस जगह बैठकर जीवन भर भीख मांगता रहा, उसके ठीक नीचे भारी खजाना गड़ा हुआ था।
मैं प्रत्येक से पूछना चाहता हूं कि क्या हम भी ऐसे ही भिखारी नहीं हैं? क्या प्रत्येक के भीतर ही वह खजाना नहीं छिपा हुआ है, जिसे कि हम जीवन भर बाहर खोजते रहते हैं!
इसके पूर्व कि आनंद की तलाश में तुम्हारी यात्रा प्रारंभ हो, सबसे पहले उस जगह को खोद लेना, जहां कि तुम खड़े हो। क्योंकि, बड़े से बड़े खोजियों और यात्रियों ने सारी दुनिया में भटक कर अंतत: खजाना वहीं पाया है।
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Tuesday, January 9, 2018

प्रेम को जानो। उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है। यह जीवन का परम लक्ष्य है ।

प्रेम क्या है?

''प्रेमजो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का उपाय नहीं, क्योंकि वह कोई विचार नहीं है। प्रेम तो अनुभूति भी नहीं है, क्योंकि अनुभूति भी बताई जा सकती है। सबकुछ समाप्त होना ओर जैसा है वैसा होना ही प्रेम है, इसलिए उसे जाना नहीं जा सकता। इसकी छोटी सी झलक पानी हो तो प्रेम पर विचार मत करो। विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो।इसमें जो शांति है, वही उस प्रेम की झलक है।''

 किसी फकीर से एक पंडित ने पूछा, ''क्या आपको शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम के विभिन्न रूपों का ज्ञान है?'' वह फकीर बोला, ''मुझ जैसा अज्ञानी शास्त्रों की बात क्या जानें?'' इसे सुनकर उस पंडित ने शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम की विस्तृत चर्चा की और फिर उस फकीर का तत्संबंध में मंतव्य जानना चाहा। वह फकीर खूब हंसने लगा और बोला, ''आपकी बातें सुनकर मुझे लगता था कि जैसे कोई सुनार फूलों की बगिया में घुस आया है और वह स्वर्ण को परखने वाले पत्थर पर फूलों को घिस-घिसकर उनका सौंदर्य परख रहा है!''

प्रेम को विचारों मत- जीओ। लेकिन, स्मरण रहे कि उसे जीने में स्वयं को खोना पड़ता है। अहं अप्रेम है और जो जितना अहं को छोड़ देता है, वह उतना ही प्रेम से भर जाता है। ऐसा प्रेम ही सत्य के द्वार की सीढ़ी है।

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Sunday, January 7, 2018

मैं हमेशा कहता हूं ''सदा स्वयं के भीतर गहरे से गहरे होने का प्रयास करते रहो। भीतर बोहोत गहराई है।क्योंकि अथाह जिसकी गहराई है, उसकी उसके आचरण और व्यवहार में अपने आप ऊंचाई हो जाती है।''
जीवन जितना ही ऊंचा हो जाता है, जितना कि आप अंदर से गहरे हो। गहराई के आधार पर ही ऊंचाई के शिखर संभलते हैं। दूसरा और कोई रास्ता नहीं। गहराई असली चीज है। उसे जो पा लेता है, उन्हें ऊंचाई तो अनायास ही मिल जाती है।
 गमले में लगाए गए पेड़ यापौधे कभी भी बाहरी रूप से विकसित नहीं हो पाते, क्योंकि कायदा है कि जब जड़ें नीचे नहीं जाएंगी, तो वृक्ष ऊपर नहीं बढ़ेगा। ऊपर और नीचे दोनों में इस किस्म का संबंध है कि जो लोग ऊपर बढ़ना चाहते हैं, उन्हें अपनी आत्मा में जड़े बढ़ानी चाहिए। भीतर जड़े नहीं बढ़ेंगी, तो जीवन कभी ऊपर नहीं उठ सकता है।
लेकिन, हम इस सूत्र को भूल गए हैं और परिणाम में जो जीवन देवदार के दरख्तों की भांति ऊंचे हो सकते थे, वे गमले के पौधों की भांति जमीन से बालिश्त भर ऊंचे नहीं उठ पाते हैं! मनुष्य छोटे से छोटा होता जा रहा है, क्योंकि स्वयं की आत्मा में उसकी जड़ें कम से कम गहरी होती जाती हैं।

शरीर सतह है, आत्मा गहराई। शरीर में जो जीता है, वह गहरा कैसे हो सकेगा? शरीर में नहीं, आत्मा में जीओ। सदैव यह स्मरण रखो कि मैं जो भी सोचूं, बोलूं और करूं, उसकी परिसमाप्ति शरीर पर ही न हो जावे। शरीर से भिन्न और ऊपर भी कुछ सोचो, बोलो और करो। उससे ही क्रमश: आत्मा में जड़े मिलती हैं और गहराई उपलब्ध होती है।

*जो वृक्ष बिना गहरे हुए ऊपर ऊपर उठते जाते है, वो एक दिन निश्चित ही गिर जाते हैं,जैसे आजकल के साधू ।*

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Friday, January 5, 2018

*"तुम प्रेम सेवा से पाओगे पार" का अर्थ*

जैसा आप चाहते हो कि दूसरे हों, वैसा अपने को बनावें। उनको बदलने के लिए स्वयं को बदलना आवश्यक है। अपनी बदल से ही आप उनकी बदलाहट का प्रारंभ कर सकते हैं।
जो स्वयं जाग्रत है, वही केवल अन्य का सहायक हो सकता है। जो स्वयं निद्रित है, वह दूसरों को कैसे जगाएगा? और, जिसके भीतर स्वयं ही अंधकार का आवास है, वह दूसरों के लिए प्रकाश का स्रोत कैसे हो सकता है? निश्चय ही दूसरों की सेवा स्वयं के सृजन से ही प्रारंभ हो सकती है। पर-हित स्व-हित के पूर्व असंभव है। कोई मुझसे पूछता था, ''मैं सेवा करना चाहता हूं।'' मैंने उससे कहा, ''पहले स्वयंसाधना तब सेवा। क्योंकि, जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम किसी को कैसे दोगे? स्वयंसाधना से पाओ, तभी सेवा से बांटना हो सकता है।'' सेवा की इच्छा बहुतों में है, पर स्व-साधना और आत्म-सृजन की नहीं। यह तो वैसा ही है कि जैसे कोई बीज तो न बोना चाहे, लेकिन फसल काटना चाहे! ऐसे कुछ भी नहीं हो सकता है। किसी व्यक्ति ने बुद्ध से कहा, ''मैं सबसे प्रेम और सबकी सेवा के लिए क्या करूं?'' बुद्ध ने एक क्षण प्रगाढ़ करुणा से उसे देखा। उनकी आंखें दयार्द्र हो आई। उन्होंने एक खाली पात्र उसे दिया ओर कहा की जाओ ओर इसमें से सबको पानी पिला के तृप्त करो..वह एक क्षण तो सोचने लगा, लेकिन फिर बुध ने उसे सब समझा दिया। वह हमसे ही कहा गया है। सब करना स्वयं पर और स्वयं से ही प्रारंभ होता है। स्वयं के पूर्व जो दूसरों के लिए कुछ करना चाहता है, वह भूल में है। स्वयं को जो निर्मित कर लेता है, स्वयं जो स्वस्थ हो जाता है, उसका वैसा होना ही सेवा है।
सेवा की नहीं जाती। वह तो प्रेम से सहज ही निकलती है। और, प्रेम? प्रेम आनंद का स्फुरण है। अंतस में जो आनंद है, आचरण में वही प्रेम बन जाता है।
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Thursday, January 4, 2018

सत्य की खोज स्वयं में ही करनी होगी। वह खोज कम, आत्म-बोध ही ज्यादा है। जो उसके लिए पूर्णरूपेण तैयार हो जाता है, उसका सत्य स्वयं उन्हें खोजता है।
 फकीर इब्राहिम उनके जीवन में घटी एक घटना कहा करते थे। साधु होने के पूर्व वे बल्ख के राजा थे। एक बार जब वे आधी रात को अपने पलंग पर सोये हुए थे, तो उन्होंने सुना कि महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। वे हैरान हुए और उन्होंने जोर से पूछा कि ऊपर कौन है? उत्तर आया कि कोई शत्रु नहीं। दुबारा उन्होंने पूछा कि वहां क्या कर रहे हो? उत्तर आया कि ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं। इब्राहिम को बहुत आश्चर्य हुआ और अज्ञात व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी भी आई। वे बोले, ''अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खो जाने और खोजने की बात तो बड़ी ही विचित्र है। मित्र, तुम्हारा मस्तिष्क तो ठीक है?'' उत्तर में वह अज्ञात व्यक्ति भी बहुत हंसने लगा और बोला, ''हे निर्बोध, तू जिस दिशा में परमात्मा को खोज रहा है, क्या वह अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खोजने से भी ज्यादा विचित्र नहीं है?''
रोज ऐसे लोगों को जानने का मुझे अवसर मिलता है, जो स्वयं से बाहर परमात्मा को पाना चाहते हैं। ऐसा होना बिलकुल ही असंभव है, परमात्मा कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही खोज की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
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Wednesday, January 3, 2018

*ज्ञान का अर्थ किसी बाहरी के व्यक्ति दूसरा बताय या लिखे गए शब्दों के संग्रह से नहीं है*

जीवन का पथ अंधकार पूर्ण है। लेकिन स्मरण रहे कि इस अंधकार में दूसरों का प्रकाश काम नही आ सकता। प्रकाश अपना ही हो, तो ही साथी है। जो दूसरों के प्रकाश पर विश्वास कर लेते हैं, वे धोखे में पड़ जाते हैं।
एक वृद्ध ब्राह्मंण था। वह अंधा हो गया, तो उसके पुत्रों ने उसकी आंखों की शल्य चिकित्सा करनी चाही। लेकिन उसने अस्वीकार कर दिया। वह बोला, ''मुझे आंखों की क्या आवश्यकता? तुम आठ मेरे पुत्र हो,आठ कुलबधु हैं, तुम्हारी मां है, ऐसे चौंतीस आंखें मुझे प्राप्त हैं, फिर दो नहीं हें, तो क्या?'' पिता ने पुत्रों की सलाह नहीं मानी। फिर एक रात्रि अचानक घर में आग लग गई। सभी अपने-अपने प्राण लेकर भागे। वृद्ध की याद किसी को भी न रही। वह अग्नि में ही भस्म हो गया। इसलिए तुम स्वयं ज्ञान हो, जो बाहर का विषयनहीं है वही ज्ञान है, ज्ञान स्वयं का चक्षु है। उसके अतिरिक्त कोई शरण नहीं है।''
सत्य न तो शास्त्रों से मिल सकता है और न ही शास्ताओं से। उसे पाने का द्वार तो स्वयं में ही है। स्वयं में जो खोजते हैं, केवल वे ही उसे पाते हैं। स्वयं पर श्रद्धा ही असहाय मनुष्य का एकमात्र संबल है।
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*जिसे स्वयं को पाना है, उसे प्रतिक्षण उठते-बैठते भी यह स्मरण रखना चाहिए कि वह जो कर रहा है, वह कहीं स्वयं को पाने के मार्ग में बाधा तो नहीं बन जाएगा?*
 किसी सर्कस में एक बूढ़ा कलाकार है, जो लकड़ी के तख्ते के सामने अपनी पत्नी को खड़ा कर उस पर छुरे फेंकता है। हर बार छुरा उसको बिलकुल छूता हुआ लकड़ी में धंस जाता है। आधा इंच इधर-उधर कि उसके प्राण गये। इस खेल को दिखाते-दिखाते उसे तीस साल हो गये। पर अब वह अपनी पत्नी से ऊब गया है और उसके दुष्ट और झगड़ालू स्वभाव के कारण उसके प्रति उसके मन में बहुत घृणा इकट्ठी हो गई है। एक दिन उसके व्यवहार से उसका मन इतना विषाक्त है कि वह उसकी हत्या के लिए निशाना लगाकर छुरा मारता है। उसने निशाना साध लिया है- ठीक हृदय और एक ही बार में सब समाप्त हो जाएगा- फिर, वह पूरी ताकत से छुरा फेंकता है। क्रोध और आवेश में उसकी आंखें बंद हो जाती हैं। वह बंद आंखों में ही देखता है कि छुरा छाती में छिद गया है और खून के फव्वारे फूट पड़े हैं। उसकी पत्नी एक आह भर कर गिर पड़ी है। वह डरते-डरते आंखें खोलता है। पर, पाता है कि पत्नी तो अछूती खड़ी मुस्करा रही है। छुरा सदा कि भांति बदन को छूता हुआ निकल गया है। वह शेष छुरे भी ऐसे ही फेंकता है- क्रोध में, प्रतिशोध में, हत्या के लिये- लेकिन हर बार छुरे सदा कि भांति ही तख्ते में छिद जाते हैं। वह अपने हाथों की ओर देखता है- असफलता में उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और वह सोचता है कि इन हाथों को क्या हो गया? उसे पता नहीं कि वे इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि अपनी ही कला के सामने पराजित हैं!
हम भी ऐसे ही अभ्यस्त हो जाते हैं- असत के लिये, दूवैत के लिये तब चाहकर भी सवंय या अदैत का जन्म मुश्किल हो जाता है- अपने ही हाथों से हम असत्य और दूवैत को रोज जकड़ते जाते हैं। और, जितनी हमारी जकड़न होती है, उतना ही सत्य दूर हो जाता है।

हमारे प्रत्येक भाव, विचार और कर्म हमारे अहं को निर्मित करते हैं। उन सबका समग्र जोड़ ही हमारा होना है। इसलिए, जिसे सत्य के शिखर को छूना है, उसे ध्यान देना होगा कि वह अपने साथ ऐसे पत्थर तो नहीं बांध रहा है, जो कि जीवन को ऊपर नहीं, नीचे ले जाते हैं।स्वयं से दूर ।

*इसलिय प्रतेक क्षण सावधान रहें। About turn होकर स्वयं की ओर चलें, सत्य की ओर चलें, प्रत्येक क्षण।*

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