मनुष्य की श्रेष्ठता ओर आत्मज्ञान स्वयं उसके हाथों में है। प्रकृति ने तो उसे मात्र संभावनाएं दी हैं। वह स्वयं का स्वयं ही सृजन करता है। यह स्वतंत्रता महिमापूर्ण है। किंतु, हम चाहें तो इसे ही दुर्भाग्य भी बना सकते हैं। और,अधिक लोगों को यह स्वतंत्रता दुर्भाग्य ही सिद्ध होती है। क्योंकि, सृजन की क्षमता में विनाश की क्षमता और स्वतंत्रता भी तो छिपी है! अधिकतर लोग दूसरे विकल्प का ही प्रयोग करते हें। क्योंकि, निर्माण से विनाश आसान होता है। और,स्वयं को मिटाने से आसान और क्या है? *स्व-विनाश के लिए आत्मसृजन में न लगना ही काफी है*। उसके लिए अलग से और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं होती। जो जीवन में ऊपर की ओर नहीं उठ रहा है, वह अनजाने और अनचाहे ही पीछे और नीचे गिरता जाता है।
किसी सभा में चर्चा चली थी कि मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सब प्राणियों को वश में कर लेता है। किंतु, कुछ का विचार था कि मनुष्य तो कुत्ते से भी नीचा है,क्योंकि कुत्तों का संयम मनुष्य से कई गुना श्रेष्ठ होता है। इस विवाद में एक संत उपस्थित थे। दोनों पक्ष वालों ने उनसे निर्णायक मत देने को कहा। संत ने कहा था, ''मैं अपनी बात कहता हूं। उसी से निर्णय कर लेना। जब तक मैं अपना चित्त और जीवन आत्मज्ञान में लगाये रहता हूं, तब तक परमात्मा के करीब होता हूं। किंतु, जब मेरा चित्त और जीवन देह या संसार में होता है, तो कुत्ते भी मुझ जैसे हजार संतो से श्रेष्ठ होते हैं।''
मनुष्य मृत्यु और चेतना का जोड़ है। जो देह का और, उसकी वासनाओं का अनुसरण करता है, वह नीचे से नीचे उतरता जाता है। और, जो आत्मा के अनुसंधान में रत होता है, वह अंतत:सच्चिदानंद को पाता है और स्वयं भी वही हो जाता है।
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