Thursday, January 4, 2018

सत्य की खोज स्वयं में ही करनी होगी। वह खोज कम, आत्म-बोध ही ज्यादा है। जो उसके लिए पूर्णरूपेण तैयार हो जाता है, उसका सत्य स्वयं उन्हें खोजता है।
 फकीर इब्राहिम उनके जीवन में घटी एक घटना कहा करते थे। साधु होने के पूर्व वे बल्ख के राजा थे। एक बार जब वे आधी रात को अपने पलंग पर सोये हुए थे, तो उन्होंने सुना कि महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। वे हैरान हुए और उन्होंने जोर से पूछा कि ऊपर कौन है? उत्तर आया कि कोई शत्रु नहीं। दुबारा उन्होंने पूछा कि वहां क्या कर रहे हो? उत्तर आया कि ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं। इब्राहिम को बहुत आश्चर्य हुआ और अज्ञात व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी भी आई। वे बोले, ''अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खो जाने और खोजने की बात तो बड़ी ही विचित्र है। मित्र, तुम्हारा मस्तिष्क तो ठीक है?'' उत्तर में वह अज्ञात व्यक्ति भी बहुत हंसने लगा और बोला, ''हे निर्बोध, तू जिस दिशा में परमात्मा को खोज रहा है, क्या वह अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खोजने से भी ज्यादा विचित्र नहीं है?''
रोज ऐसे लोगों को जानने का मुझे अवसर मिलता है, जो स्वयं से बाहर परमात्मा को पाना चाहते हैं। ऐसा होना बिलकुल ही असंभव है, परमात्मा कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही खोज की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
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