*"तुम प्रेम सेवा से पाओगे पार" का अर्थ*
जैसा आप चाहते हो कि दूसरे हों, वैसा अपने को बनावें। उनको बदलने के लिए स्वयं को बदलना आवश्यक है। अपनी बदल से ही आप उनकी बदलाहट का प्रारंभ कर सकते हैं।
जो स्वयं जाग्रत है, वही केवल अन्य का सहायक हो सकता है। जो स्वयं निद्रित है, वह दूसरों को कैसे जगाएगा? और, जिसके भीतर स्वयं ही अंधकार का आवास है, वह दूसरों के लिए प्रकाश का स्रोत कैसे हो सकता है? निश्चय ही दूसरों की सेवा स्वयं के सृजन से ही प्रारंभ हो सकती है। पर-हित स्व-हित के पूर्व असंभव है। कोई मुझसे पूछता था, ''मैं सेवा करना चाहता हूं।'' मैंने उससे कहा, ''पहले स्वयंसाधना तब सेवा। क्योंकि, जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे तुम किसी को कैसे दोगे? स्वयंसाधना से पाओ, तभी सेवा से बांटना हो सकता है।'' सेवा की इच्छा बहुतों में है, पर स्व-साधना और आत्म-सृजन की नहीं। यह तो वैसा ही है कि जैसे कोई बीज तो न बोना चाहे, लेकिन फसल काटना चाहे! ऐसे कुछ भी नहीं हो सकता है। किसी व्यक्ति ने बुद्ध से कहा, ''मैं सबसे प्रेम और सबकी सेवा के लिए क्या करूं?'' बुद्ध ने एक क्षण प्रगाढ़ करुणा से उसे देखा। उनकी आंखें दयार्द्र हो आई। उन्होंने एक खाली पात्र उसे दिया ओर कहा की जाओ ओर इसमें से सबको पानी पिला के तृप्त करो..वह एक क्षण तो सोचने लगा, लेकिन फिर बुध ने उसे सब समझा दिया। वह हमसे ही कहा गया है। सब करना स्वयं पर और स्वयं से ही प्रारंभ होता है। स्वयं के पूर्व जो दूसरों के लिए कुछ करना चाहता है, वह भूल में है। स्वयं को जो निर्मित कर लेता है, स्वयं जो स्वस्थ हो जाता है, उसका वैसा होना ही सेवा है।
सेवा की नहीं जाती। वह तो प्रेम से सहज ही निकलती है। और, प्रेम? प्रेम आनंद का स्फुरण है। अंतस में जो आनंद है, आचरण में वही प्रेम बन जाता है।
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
No comments:
Post a Comment