एक दिन मै अपने चश्में को लेकर बोहोत व्याकुल हो रहा था, हर जगह ढूंडा पर कहीं नहीं मिल रहा था, जब थक कर बैठ गया तब देखा कि वो तो मैंने लगा रखा था, बोहोत आश्चर्य हुआ । अतृप्ति ओर तृप्ति दोनों ही मेरे पास थी बस मै जो मान रहा था या जो सोच रहा था वहीं मुझे मिल रही थी ।
एक क्षण में अतृप्ति से तृप्ति हो गई ।
तब मैंने पाया कि सही जगह पे ना खोजना ही अतृप्ति है ओर सही जगह स्वयं में तृप्ति है । एक कि तरफ मुड़ने से दूसरी अदृश्य हो जाती है । ये अतृप्ति ही विपत्ति है ओर ये तृप्ति ही सबसे बड़ी संपत्ति है ।
बहुत संपत्तियां खोजीं, किंतु अंत में उन्हें विपत्ति पाया। फिर, संपत्ति के लिए खोज की। जो पाया वही परमात्मा था। तब जाना कि परमात्मा को खो देना ही विपत्ति और उसे पा लेना ही संपत्ति है।
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