Saturday, March 31, 2018

आनंद या परमात्मा को चाहना क्या है??

एक सन्यासी आये हैं ।वर्षो से संन्यासी हैं। मैंने पूछा : 'संन्यास क्यों लिया?' बोले, 'आनंद चाहता हूं।'

 क्या आनंद भी चाहा जा सकता है? क्या 'चाहने' और 'आनंद' में विरोध नहीं है? 

जब उनसे यह कहा ।

तो वो कुछ हैरान से हो गये थे। बोले, 'फिर क्या करें?'
 यही तो जड़ है: 'क्या करने में भी चाह छिपी नहीं बैठी है?'

प्रश्न कुछ करने का नहीं है। आनंद के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह चाह का अंग नहीं है। उसे चाहना व्यर्थ है। असल में नहीं चाहने की स्थिति को समझना आवश्यक है। नहीं चाहने की स्थिति क्या है, यह जानना है- शास्त्रों से नहीं, स्वयं से। शास्त्रों में तो चाह ही चाह भरी है, शास्त्रों को जानने से ही आनंद की चाह पैदा होती है। और तब 'क्या करने' का प्रश्न उठता है।

उन सन्यासी ने कहा, 'अशांति वासना के कारण है- चाह के कारण है। तृष्णा न हो जाये, तो आनंद है।'

मैंने कहा, 'यह उत्तर शास्त्र से है, स्वयं से नहीं- अगर स्वयं से ये उत्तर देते तो आनंद चाहते नहीं, 

चाहने वाले को समाप्त कर देते।

फिर आनंद चाहता हूं, ऐसा कहना संभव नही होता।' गीता में भी लिखा है कि तृष्णा ही नरक है- चाह ही नरक है, तो आनंद को कैसे चाहा जा सकता है? चाह को भी अपने अनुसार दिव्य ओर माया में बांट दिया है, 

बस चाहने वाले के विषय में कभी नहीं सोचा ।

 कुछ पाने की इच्छा हो जाने से स्वानुभव से उसके प्रति जागें-निर्दोष, निष्पक्ष मन से उसे समझें। यह समझ चाहत की जड़ों अर्थात चाहने वाले अहम को सामने ला देगी। अशांति का मूल वासना है, यह दिखेगा और यह दिखना ही अशांति का विसर्जन बन जाता है।

अशांति का ज्ञान ही उसकी मृत्यु है।  ज्ञान का प्रकाश आते ही उसकी समाप्ति है। अहम के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह आनंद है। आनंद माया के विपरीत नहीं चाहा जाता है।

वह उसका विरोधी नहीं है। आनंद है, मायाका न हो जाना। इसलिए आनंद को नहीं खोजना है, केवल अहम को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि सीखने सिखाने ओर ज्ञानी होजाने में अहम ही कार्य करता है, क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व बेकार के निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन बेकार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में वयर्थ ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।होनों के भाव को गहराई से समझना होता है ।

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Friday, March 30, 2018

बोहोत प्रयास के बाद भी मेरा मन परमात्मा में नहीं लगता, क्या करूं ?

*बोहोत प्रयास के बाद भी मेरा मन परमात्मा में नहीं लगता, क्या करूं ? कृपया समाधान करें ।*

*प्रयास मत करें मन नहीं लगेगा । आजतक किसी का नहीं लगा । जो कहते हैं की मन लगता है वो झूठ कह रहें हैं और जो कहते है मन लगाओ वो तुम्हे भ्रमित कर रहे है*

*मन के दूारा परमात्मा को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. पहले आप (अहम)हो फिर आपका मन है, इसको इस प्रकार समझो की आपका शरीर और उसके हाथ पांव, जैसे शरीर के उप अंग उसके हाथ पांव होते हैं वैसे ही अहम के उप अंग में मन चित बुद्धि आदि हैं .. अब अगर आप सोचो की आप तो मजदूरी करो ओर आपका हाथ या पांव घर पर विश्राम कर के आनंदित रहे तो क्या ये सम्भव है ? कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया??

ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद अहम रूप में प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..क्योंकि मै (अहम) हूं तो मन है, इसमें मन का क्या दोष ? जबतक आप हो तो बाल(मन) उगेंगे ही इनको रोकना या समाप्त करना है तो खुद को समाप्त करदो | खुद(अहम) नहीं रहोगे तो बाल उगेंगे ही नहीं.. ये मन वहीं रहेगा जहां अहम हो । अहम सत्ता का घोतक है ओर परमात्मा आनंद है । सत्ता के लय के पश्चात आनंद है । *आनंद है, आनंद आएगा ऐसा नहीं है* आप अहम नहीं हो तो आप आनंद हो, ओर आप अहम हो तो आप सत्ता हो । अहम के नहीं होने में आनंद है, ओर अहम के होने में माया है सत्ता है, मन आदि सब है,  अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो कि अहम के होने बाद की स्थिति याने मन को अहम के नहीं होने की स्थिति(आनंद) में लगाना चाहते हो, ये वैसा ही है जैसे आप चाहते हो कि आपकी मृत्यु के बाद की स्थिति को आपका हाथ पहले ही देख ले । खुद रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेको ने अपने जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...
इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी,  इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है अहम समाप्त करना है । *बस यही बात गांठ बांधलो ओर सही दिशा में लग जाओ*

अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..

उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)

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Thursday, March 29, 2018

माया ओर परमात्मा क्या है

*माया ओर परमात्मा क्या है??*
होना सत्ता है, *है* परमात्मा है..

उस है का विस्तार और लय को होना कहा गया है कयोंकी ये होता है. यही माया है..

जो है सदा से सदा तक, जीसमें होना नही है , वह तो *है* ही ,अनंत से वही शब्द में परमात्मा है..

जो *है* को जान्ता है वह होने में है को देखलेता है..
जो *है* को नही जान्ता वह होने में भ्रमित रहता है..
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Wednesday, March 28, 2018

*ग्यान और प्रेम में कोनसा मार्ग श्रेष्ठ है*


अक्सर लोग इस विषय पर बहस करते हैं |
जिन लोगो को या ग्यानीयों को ग्यान में आनंद आता है वो प्रेम को ज्यादा अहमियत नही देते, वो अपने आप को अपने स्थान पर सही मानते है व प्रेम के लिय ग्यान से मिलने वाले आनंद को छोड़ना नही चाहते..
वहीं जो प्रेमी होते हैं वो प्रेम में ही आनंद लेते है रोते हैं रिझाते हैं | ये भी अपने को ग्यानीयों से सही मान्ते हैं व प्रेम से मिलने वाले आनंद को छोड़ नही सकते..
इसलिय ये दो मार्ग बन गये..
*अब प्रश्न उठता है की सही मार्ग कौन सा है और कया वो इन दोनो से अलग है और यह भी कहा गया है की सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???*
इन सभी शंकाओं का निवारण आज हम इस पोस्ट में करेंगें तो ध्यान से पढिये...
तो ध्यान दो ग्यान और प्रेम ये दो वस्तुऐ नही हैं, ये एक ही वस्तु के दो नाम याहां ध्यान देने वाली बात यह है की ग्यानी और प्रेमी ये दो अलग भाव के नाम हैं ये दूैत के नाम हैं पर ग्यान व प्रेम दो नही हैं यह एक ही है.. ये अदूैत के भाव हैं |
ग्यान व प्रेम एक कैसे है ?
जब ग्यानी और प्रेमी समाप्त हो जाता है तब ग्यान और प्रेम शेष रहता है यह वही है जो सत्य है नित्य है और जो आनंद है यही आत्मा है यही परमात्मा है यही ग्यान है यही प्रेम है | इसलिय ये एक ही है दो नही है.. ग्यानी और प्रेमी दो हैं कयोंकी इनमें अहं विद्यमान रहता है अहं से ही ग्यानी और प्रेमी हो जाते हैं|
सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???
ग्यानी को ग्यान में *आनंद* आता है प्रेमी को प्रेम में *आनंद* आता है दोनो अपने को सही मानते हैं कयोंकी दोनो को *आनंद* आता है | याहां ध्यान देने वाली वाल यह है की दोनो में आनंद की समानता है , दोनो का जो कोमन भाव है वह आनंद है और आनंद ही आत्मा है आनंद ही परमात्मा या बृह्म है, तो अब बात को ध्यान से पकडना की आनंद कही बाहर से नही आता ये दोनो का सवंय का ही आनंद है जो उन्हे ग्यानी और प्रेमी होने मे भास हो रहा है इसलिय मार्ग दोनो का एक ही है *आनंद* इसलिय सभी मार्ग आनंद की और ही जाते है पर इनमें जो गलत है वो है *अहं* जिस की उपस्थिती से ग्यानी और प्रेमी हो जाते हो.. भोग व योग में भी आनंद है कयोंकी सब आनंद से ही बना है पर अहं के कारण भोगी व योगी हो जाते हो.. तो सभी मार्ग जैसे कर्म, ग्यान, योग, भक्ती, प्रेम, या भोग सभी आनंद के ही मार्ग हैं पर ये सभी अहं के कारण सत्य से विमुख हैं, अहं समाप्ती के बाद सब एक ही हैं दो तीन या चार नही हैं....

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*

प्रणाम जी
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Tuesday, March 27, 2018

आत्मा को कैसे पाया जाए?

प्रश्न-  'आत्मा को कैसे पाया जाए? ब्रह्मं-प्राप्ति कैसे हो सकती है?'

आत्मा को पाने की बात ही गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं, जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं, जिसको साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुंचना है। वह है। 'है' का ही वह नाम है। वह वर्तमान है-नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें 'होना' नहीं है। वह शुद्ध नित्य अस्तित्व है।

फिर खोना कैसे हो गया है ?

या खोने के आभास और पाने की प्यास कहां आ गयी है?

मैं को समझ लें तो जो आत्मा खोई नहीं जा सकती है, उसका खोना समझना आ सकता है। 'मैं' आत्मा नहीं है। न 'स्व' आत्मा है, न 'पर' आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत में होता है, या भविष्य में। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। 

इसअसत्ता से 'मैं' का जन्म होता है। 'मैं' विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, 'मैं' के कारण, आत्मा आवरण में है। वह है, पर खोयी मालूम होती है। फिर यही 'मैं' यही विचार-प्रवाह इस तथाकथित खोयी आत्मा को खोजने चलता है। यह खोज असंभव है, क्योंकि इस खोज से 'मैं' और पुष्ट होता है- सशक्त होता है।

'मैं' के द्वारा आत्मा को खोजना, स्वप्न के द्वारा जागृति को खोजने जैसा है। *'मैं' के द्वारा नहीं, 'मैं' के विसर्जन से उसको पाना है।*  स्वप्न के जाते ही जागृति है, 'मैं' के जाते ही आत्मा है। आत्मा आनंद है, क्योंकि पूर्णता है। उसमें 'स्व',  या 'पर' नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।

इसलिए उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजने वाले को छोड़ना है। खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। 'मैं' को खोकर उसे पा लिया जाता है।

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Monday, March 26, 2018

दर्पण ओर परदा

आज एक बोहोत दिन पूरा कोने में पड़ा हुआ दर्पण मिला है। धूल ने उसे पूरा का पूरा छिपा रखा है। दिखता नहीं है कि वह अब दर्पण है और प्रतिबिंब को पकड़ने में समर्थ होगा। धूल सब-कुछ हो गयी है। और दर्पण भी धूल को देखते रहने के अभ्यास से धूल हो गया है। ऐसा लगता है अब धूल ही है और दर्पण नहीं है।

 पर क्या सच ही धूल में छिपकर दर्पण नष्ट हुआ है? 

दर्पणअब भी दर्पण है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। धूल ऊपर है और दर्पण में नहीं है। धूल एक परदा बन गयी है। पर परदा केवल छुपा है, नष्ट नहीं। और इस पर्दे के हटते ही- जो है, वह पुन: प्रकट हो जाता है।

 हमारी मूल चेतना भी इसी दर्पण की भांति ही है। अहम की धूल है, उस पर। "नहीं" का परदा है, उस पर। संस्कारों की परतें हैं, उस पर। पर मूल चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।

आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।

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Sunday, March 25, 2018

धर्म क्या है

कल मै एक मंदिर के द्वार पर खड़ा था। धूप जल रही थी और वातावरण सुगंधित था। फिर पूजा की घंटी बजने लगी और आरती का दीप मूर्ति के सामने घूमने लगा। कुछ भक्तजन इकट्ठे थे। वह सब आयोजन सुंदर था और एक सुखद तंद्रा पैदा करता था।

 लेकिन उन आयोजनों से धर्म का कोई संबंध नहीं है।

किसी मंदिर, किसी मस्जिद, किसी गिरजे का धर्म से कोई नाता नहीं है। सब मूर्तियां पत्थर हैं और सब प्रार्थनाएं दीवारों से की गयी बातचीत के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
लेकिन इन सब से सुख मिलता मालूम होता है! और वही खतरा है, क्योंकि उसी के कारण भ्रम प्रारंभ होता है और प्रगाढ़ होता है। उस सुख के भ्रम में ही सत्य का असत्य आभास पैदा होता है। सुख मिलता है, मूर्च्छा से- अपने को भूल जाने और स्व की वास्तविकता से भागने से। मादक द्रव्यों का सुख भी ऐसे ही पलायन से मिलता है। धर्म के नाम पर ये सब प्रयोग भी मादक द्रव्यों जैसे ही मिथ्या सुख लाते हैं। सुख धर्म नहीं, क्योंकि वह दुख का अंत नहीं, केवल विस्मृति है।
फिर धर्म क्या है?
धर्म स्व से पलायन नहीं, स्व के प्रति जागरण है। इस जागरण का किसी बाह्य आयोजन से कोई वास्ता नहीं है। यह तो भीतर चलने और चैतन्य को उपलब्ध करने से संबंधित है।
मैं जागूं और जो है, उसके प्रति चेतन बनूं- बस, धर्म इतने से ही संबंधित है।
धर्म जागना है।

और ये जागना ही आनंद है।

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Saturday, March 24, 2018

आंखे बंद करके क्या देखना है

एक फकीर स्त्री थी- राबिया। एक सुंदर प्रातःकाल में किसी ने उससे कहा था, 'राबिया, भीतर झोपड़े में क्या कर रही हो? यहां आओ, बाहर देखो, परमात्मा ने कैसा मनोरम प्रभात को जन्म दिया है।' राबिया ने भीतर से कहा , 'तुम बाहर जिस प्रभात को देख रहे हो, मैं भीतर उसके ही बनाने वाले को देख रही हूं।

तुम भी भीतर आ जाओ और जो अंदर है, उस सौंदर्य के आगे बाहर के किसी सौंदर्य का कोई अर्थ नहीं है।'

पर कितने हैं, जो आंख बंद करके भी बाहर ही नहीं बने रहेंगे? अकेले आंख बंद करने से ही आंख बंद नहीं होती है। आंख बंद है, पर तुम देख वहीं रहे हो जो आंखे खोले हुए देखते हो। पलक बंद हैं, पर दृश्य बाहर के ही उतरे जा रहे हैं। यह आंख का बंद होना नहीं है। आंख के बंद होने का अर्थ है : जो अबतक देखा है समझा है जाना है या मना है उस से मुक्ति, स्वप्नों से, विचारों से मुक्ति। विचार और दृश्य के विलीन होने से आंख बंद होती हैं। और फिर जो प्रकट होता है, वह शाश्वत चैतन्य है। वही है सत्, वही है चित्त, वही है आनंद। इन आंखों का सब खेल है। आंख बदली और सब बदल जाता है।

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Friday, March 23, 2018

क्या खोजना है

एक व्यक्ति ने पूछा, 'यह परमात्मा या सत्य की तलाश कहीं भ्रम तो नहीं है? पहले में आशा से भरा था, पर फिर धीरे-धीरे निराश होता जा रहा हूं।' 

मैंने कहा, 'आनंद की तलाश भ्रम ही है, क्योंकि परमात्मा को खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह सदा ही उपस्थित है। हम ओर वो इतने समीप है जितनी कि शहद के करीब मिठास, 

पर फ़र्क इतना है कि उसेदेख सके, ऐसी आंखें बंद हैं, ओर जिन आंखो से वो दिखता नहीं यूं आंखो को ओर शक्तिशाली बना रहे हैं, प्रति क्षण । इसलिए असली खोज उस दृष्टिं को खोलने की है।

'एकअंधा आदमी था। वह सूरज को खोजना चाहता था। पर वह खोज गलत थी। सूरज तो है ही, *आंखें खोजनी है* । आंखें पाते ही सूरज मिल जाता है। साधरणत: परमात्मा का खोजने वाला, सीधे परमात्मा को खोजने में लग जाता है। वह अपनी आंखों का विचार ही नहीं करता है। यह आधारभूत भूल परिणाम में निराशा लाती है। मेरा देखना विपरीत है।मैं देखता हूं कि असली प्रश्न मेरा है और मेरे परिवर्तन का है। मैं जैसा हूं, मेरी आंखें जैसी हैं, वही मेरे ज्ञान की और दर्शन की सीमा है। मैं बदलूं, मेरी आंखें बदलें, मेरी चेतना बदले, तो जो भी अदृश्य है, वह दृश्य हो जाता है। और फिर जो अभी हम देख रहे हैं, उसकी ही गहराई में परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। संसार में ही वह उपलब्ध हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूं : धर्म ईश्वर को पाने का नहीं, वरन् नई दृष्टिं, नई चेतना पाने का विज्ञान है। वह तो है ही, हम उसमें ही खड़े हैं, उसमें ही जी रहे हैं। पर आंखें नहीं हैं, इसलिए सूरज दिखाई नहीं देता है। *ध्यान देना सूरज को नहीं, आंखों को खोजना है*। 

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Thursday, March 22, 2018

अहम कैसे समाप्त हो

अहम या "मैं’ से भागने की कोशिश मत करना। उससे भागना हो ही नहीं सकता, क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है। उससे भागना नहीं है बल्कि समग्र शक्ति से उसमे प्रवेश करना है। खुद की अंह  की सत्ता में जो जितना गहन होता जाता है उतना ही पाता है कि अंहता की कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं। अहम को शुक्षमता से देखने पर अहम की सत्ता समाप्त होने लगती है..इसको त्यागना नहीं है क्योंकि त्यागने में अहम रहता है।
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Wednesday, March 21, 2018

मूल सत्य

सत्य की एक झलक भी वह कर दिखाती है। अंधेरे में उजाला करने को प्रकाश के ऊपर बड़े-बड़े शास्त्र किसी काम के नहीं, एक मिट्टी का दीया जलाना आना ही पर्याप्त है।

एक आत्म ज्ञानी के व्याख्यानों में एक बूढ़ी धोबिन निरंतर देखी जाती थी। लोगों को हैरानी हुई : एक अपढ़ गरीब औरत संत की गंभीर वार्ताओं को क्या समझती होगी! किसी ने आखिर उससे पूछ ही लिया कि उसकी समझ में क्या आता है? उस बूढ़ी धोबिन ने जो उत्तर दिया, वह अद्भुत था। उसने कहा, ''मैं जो नहीं समझती, उसे तो क्या बताऊं। लेकिन, एक बात मैं खूब समझ गई हूं और पता नहीं कि दूसरे उसे समझे हैं या नहीं। मैं तो अपढ़ हूं और मेरे लिए एक ही बात काफी है। उस बात ने मेरा सारा जीवन बदल दिया है। और वह बात क्या है? वह है कि मैं भी प्रभु से दूर नहीं हूं, एक दरिद्र अज्ञानी स्त्री से भी प्रभु दूर नहीं है। प्रभु निकट है- निकट ही नहीं, स्वयं में है। यह छोटा सा सत्य मेरी दृष्टि में आ गया है और अब मैं नहीं समझती कि इससे भी बड़ा कोई और सत्य हो सकता है!'' जीवन बहुत तथ्य जानने से नहीं, किंतु सत्य की एक छोटी -सी अनुभूति से ही परिवर्तित हो जाता है। और, जो बहुत जानने में लग रहते हैं, वे अक्सर सत्य की उस छोटी-सी चिंगारी से वंचित ही रह जाते हें, जो कि परिवर्तन लाती है और जीवन में बोध के नये आयाम जिससे उद्घटित होते हैं।
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Tuesday, March 20, 2018

आध्यात्मिक सफलता का स्वर्ण सूत्र

एक प्राचीन लोक।कथा है- उस समय की, जबकि मनुष्य के पास प्रकाश नहीं था, अग्नि नहीं थी। रात्रि तब बहुत पीड़ा थी। लोगों ने अंधकार को दूर करने के बहुत उपाय सोचे, पर कोई भी कारगर नहीं हुआ। किसी ने कहा मंत्र पढ़ो, तो मंत्र पढ़े गये और किसी ने सुझाया कि प्रार्थना करो, तो कोरे आकाश की ओर हाथ उठाकर प्रार्थनाएं की गई। पर अंधकार न गया, सो न गया। किसी युवा चिंतक और आविष्कारक ने अंतत: कहा, ''हम अंधकार को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डाल दें। ऐसा करने से धीरे-धीरे अंधकार क्षीण होगा। और फिर उसका अंत भी आ सकता है।'' यह बात बहुत युक्तिपूर्ण मालूम हुई और लोग रात-रात भर अंधेरे को टोकरियों में भर-भरकर गड्ढों में डालते, पर जब देखते तो पाते कि वहां तो कुछ भी नहीं है! ऐसे-ऐसे लोग बहुत ऊब गये। लेकिन, अंधकार को फेंकने ने एक प्रथा का रूप ले लिया और हर व्यक्ति प्रति रात्रि कम से कम एक टोकरी अंधेरा तो जरूर ही फेंक आता था! फिर, एक युवक किसी अप्सरा के प्रेम में पड़ गया और उसका विवाह उस अप्सरा से हुआ। पहली ही रात बहू से घर के बढ़े सयानों ने अंधेरे की एक टोकरी घाटी में फेंक आने को कहा। वह अप्सरा यह सुन बहुत हंसने लगी। उसने किसी सफेद पदार्थ की बत्ती बनाई, एक मिट्टी के कटोरे में घी रखा और फिर किन्हीं दो पत्थरों को टकराया। लोग चकित देखते रहे- आग पैदा हो गई थी, दीया जल रहा था और अंधेरा दूर हो गया था! उस दिन से फिर लोगों ने अंधेरा फेंकना छोड़ दिया, क्योंकि वे दिया जलाना सीख गये थे। लेकिन जीवन के संबंध में हममें से अधिक अभी भी दीया जलाना नहीं जानते हैं। और, अंधकार से लड़ने में ही उस अवसर को गंवा देते हैं, जो कि अलौकिक प्रकाश में परिणित हो सकता है।

शुभ को पाने की आकांक्षा से भरो, तो अशुभ अपने से छूट जाते हैं। और, जो अपने को पापी मान कर विषय वासनाओं से लड़कर खुदको शुद्ध करने में लगे रहते हैं वे सारी उम्र अपने पापों की टोकरी ही ढोते रहते हैं, ओर वे उनमें ही और गहरे धंसते जाते हैं। जीवन को आत्मिक आनंद की ओर लगाओ, परमात्मा का खोज करो, विषयों के विष्य में मत सोचो, फिर विषय अंधेरे के भांति समाप्त हो जाते हैं। आत्मिक ज्ञान का दीपक जलाने से विषय रूपी अंधकार अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं, आध्यात्मिक सफलता का स्वर्ण सूत्र यही है।

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Monday, March 19, 2018

तीन मूल प्रश्न

*लोग मन, अहम और आत्मा की बात तो करते है पर बताता कोई नहीं की ये असल में है क्या ?कृपया बताएं की..*

*मन कया है ?*

*अहं कया है ?*

*आत्मा कया है ?*

*सबसे पहले अहं---* आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है । 

*मन*
  इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।

*आत्मा---*
आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।

जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता  नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।

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