एक सन्यासी आये हैं ।वर्षो से संन्यासी हैं। मैंने पूछा : 'संन्यास क्यों लिया?' बोले, 'आनंद चाहता हूं।'
क्या आनंद भी चाहा जा सकता है? क्या 'चाहने' और 'आनंद' में विरोध नहीं है?
जब उनसे यह कहा ।
तो वो कुछ हैरान से हो गये थे। बोले, 'फिर क्या करें?'
यही तो जड़ है: 'क्या करने में भी चाह छिपी नहीं बैठी है?'
प्रश्न कुछ करने का नहीं है। आनंद के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह चाह का अंग नहीं है। उसे चाहना व्यर्थ है। असल में नहीं चाहने की स्थिति को समझना आवश्यक है। नहीं चाहने की स्थिति क्या है, यह जानना है- शास्त्रों से नहीं, स्वयं से। शास्त्रों में तो चाह ही चाह भरी है, शास्त्रों को जानने से ही आनंद की चाह पैदा होती है। और तब 'क्या करने' का प्रश्न उठता है।
उन सन्यासी ने कहा, 'अशांति वासना के कारण है- चाह के कारण है। तृष्णा न हो जाये, तो आनंद है।'
मैंने कहा, 'यह उत्तर शास्त्र से है, स्वयं से नहीं- अगर स्वयं से ये उत्तर देते तो आनंद चाहते नहीं,
चाहने वाले को समाप्त कर देते।
फिर आनंद चाहता हूं, ऐसा कहना संभव नही होता।' गीता में भी लिखा है कि तृष्णा ही नरक है- चाह ही नरक है, तो आनंद को कैसे चाहा जा सकता है? चाह को भी अपने अनुसार दिव्य ओर माया में बांट दिया है,
बस चाहने वाले के विषय में कभी नहीं सोचा ।
कुछ पाने की इच्छा हो जाने से स्वानुभव से उसके प्रति जागें-निर्दोष, निष्पक्ष मन से उसे समझें। यह समझ चाहत की जड़ों अर्थात चाहने वाले अहम को सामने ला देगी। अशांति का मूल वासना है, यह दिखेगा और यह दिखना ही अशांति का विसर्जन बन जाता है।
अशांति का ज्ञान ही उसकी मृत्यु है। ज्ञान का प्रकाश आते ही उसकी समाप्ति है। अहम के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह आनंद है। आनंद माया के विपरीत नहीं चाहा जाता है।
वह उसका विरोधी नहीं है। आनंद है, मायाका न हो जाना। इसलिए आनंद को नहीं खोजना है, केवल अहम को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि सीखने सिखाने ओर ज्ञानी होजाने में अहम ही कार्य करता है, क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व बेकार के निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन बेकार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में वयर्थ ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।होनों के भाव को गहराई से समझना होता है ।
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