*लोग मन, अहम और आत्मा की बात तो करते है पर बताता कोई नहीं की ये असल में है क्या ?कृपया बताएं की..*
*मन कया है ?*
*अहं कया है ?*
*आत्मा कया है ?*
*सबसे पहले अहं---* आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है ।
*मन*
इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।
*आत्मा---*
आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।
जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।
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