Monday, March 26, 2018

दर्पण ओर परदा

आज एक बोहोत दिन पूरा कोने में पड़ा हुआ दर्पण मिला है। धूल ने उसे पूरा का पूरा छिपा रखा है। दिखता नहीं है कि वह अब दर्पण है और प्रतिबिंब को पकड़ने में समर्थ होगा। धूल सब-कुछ हो गयी है। और दर्पण भी धूल को देखते रहने के अभ्यास से धूल हो गया है। ऐसा लगता है अब धूल ही है और दर्पण नहीं है।

 पर क्या सच ही धूल में छिपकर दर्पण नष्ट हुआ है? 

दर्पणअब भी दर्पण है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। धूल ऊपर है और दर्पण में नहीं है। धूल एक परदा बन गयी है। पर परदा केवल छुपा है, नष्ट नहीं। और इस पर्दे के हटते ही- जो है, वह पुन: प्रकट हो जाता है।

 हमारी मूल चेतना भी इसी दर्पण की भांति ही है। अहम की धूल है, उस पर। "नहीं" का परदा है, उस पर। संस्कारों की परतें हैं, उस पर। पर मूल चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।

आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।

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