सुप्रभात जी
हे पापी जीव ! तूं अब तक माया की नींद में क्यों सोता रहा है। इस प्रकार तूंने तो प्रमादवश बहुत सा समय व्यर्थ में ही खो दिया है। देखते-देखते तुम्हारे शरीर की आयु भी क्षीण होने लगी है। किन्तु ! तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ? हमारे प्राणाधार अक्षरातीत ने अपार दया करके माया का यह पंचभौतिक तन और तारतम ग्यान तुझे परदान किया है। फिर भी रे मूर्ख ! आश्चर्य है कि तूं अभी भी उनकी दया के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं कर रहा है। और धर्म ग्रन्थो को बडी चतुराई से पढ कर लोगो की बडाई और मान मे ही आनंद लेकर जीवन गवां रहा है.. केवल मंत्र जाप को ही तारतम समझ कर तोता बना हुआ है ...जरा विचार तो कर ये जप तप आदि तो नवधा भक्ति है हे जीव ऐसे केसे तू उस पूर्णबृह्म को पाने के लिय अन्धा होकर विपरीत दिशा में भाग रहा है...
वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ‘मैं’ ब्रम्हॉआत्मा हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता..
प्रणाम जी
हे पापी जीव ! तूं अब तक माया की नींद में क्यों सोता रहा है। इस प्रकार तूंने तो प्रमादवश बहुत सा समय व्यर्थ में ही खो दिया है। देखते-देखते तुम्हारे शरीर की आयु भी क्षीण होने लगी है। किन्तु ! तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ? हमारे प्राणाधार अक्षरातीत ने अपार दया करके माया का यह पंचभौतिक तन और तारतम ग्यान तुझे परदान किया है। फिर भी रे मूर्ख ! आश्चर्य है कि तूं अभी भी उनकी दया के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं कर रहा है। और धर्म ग्रन्थो को बडी चतुराई से पढ कर लोगो की बडाई और मान मे ही आनंद लेकर जीवन गवां रहा है.. केवल मंत्र जाप को ही तारतम समझ कर तोता बना हुआ है ...जरा विचार तो कर ये जप तप आदि तो नवधा भक्ति है हे जीव ऐसे केसे तू उस पूर्णबृह्म को पाने के लिय अन्धा होकर विपरीत दिशा में भाग रहा है...
वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘
अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।
अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?
न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ‘मैं’ ब्रम्हॉआत्मा हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता..
प्रणाम जी
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