Thursday, December 31, 2015

अखंड़ आनंद की प्राप्ति हो

सुप्रभात जी

यह सम्पूर्ण जगत् मोहात्मक है , जो त्रिगुणात्मिका अव्यक्त प्रकृति से प्रगट हुआ है । प्रेम का शुद्ध स्वरूप त्रिगुणातीत होता है । जब इस त्रिगुणात्मक जगत में प्रेम नहीं तो आनन्द भी नहीं, क्योंकि आनन्द का स्वरूप तो प्रेम में ही समाहित होता है । आनन्द के बिना शान्ति की कल्पना भी व्यर्थ है ...

ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाला मनुष्य ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझता है । उस परमानन्द के समक्ष उसे तीनो लोकों का राज्य भी फीका प्रतीत होता है । वास्तविक और विशुद्ध आनन्द तो परमात्मा ही है । वह ब्रह्मानन्द  निरन्तर बढ़ता ही जाता है । उसको छोड़कर और सभी सुख तो क्षणिक ही हैं । अतः सभी को उसी सच्चिदानन्द परब्रह्म में मन लगाना चाहिए ।" ( वैराग्य शतक ३७-४० )
नव वर्पष पर आपको सत्य एवंम अखंड़ आनंद की प्राप्ति हो उस आनंद मे आपको किसी मनोकामना की कामना ही नही रहेगी सदा आनंद मंगल मे रहिए..
"आनन्दं ब्रह्म इति व्यजानात।"
मैं इस बात को जान गया कि आनन्द ही ब्रह्म है।
( तैत्तिरीय उपनिषद )
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प्रणाम जी

हम परमात्मा को किया अपना बादा भूल गये हैं..

तिन कबीले में रहना , पूजे  पानी  आग पत्थर।
बेसहूर  इन   भांत   के , जान  बूझ  जले  काफर।।

माया में हम यत्य को भूलकर असत्य या जड की उपासना करने लगे है जिसकारण हम सत्य से विमुख हो रहे हैं...इस माया में आने से पहले ही परमात्मा ने हमें माया से सावधान किया था ..पर हमने कहा था की हम अपने सत्य व चेतन परमात्मा को नही भूलेंगे पर हम परमात्मा को किया अपना बादा भूल गये हैं..

पुराण संहिता के इश्क़ रब्द के प्रसंग में अक्षरातीत परमात्मा कहते हैं-
फूल्ल पद्मम् सरः त्यक्त्वा मृगतृष्णाम् नु धावथः।
मामानन्दम् परित्यज्य पाषणम् पूजयिष्यथः।।
मेरे आनंद को छोड़कर तुम संसार में पत्थर की पूजा करोगे और
पुराण संहिता ग्रन्थ के अध्याय २३ में ..

पूर्ण ब्रह्म परमात्मा अपनी आत्माओं से कहते हैं,„

प्रकृति की लीला मोहित करने वाली तथा अपने अमृतमयी आनन्द रूपी दीवाल को स्याही की तरह काली करने वाली है, जहां केवल प्रवेश करने मात्र से अपनी बुद्धि नहीं रहती है ।।५६।।

पांच तत्वों से बने हुए शरीर को ही अपने आत्मिक रूप में माना जाता है, जिससे आत्मिक गुण तो छिप जाते हैं ।।५७।।

और उनकी जगह मोह जनित दोष पैदा हो जाते हैं । हे सखियों ! तुम वहां जाकर माया के ही कार्यों को करोगी । जिस माया में आत्मा के आनन्द को हरने वाली तृष्णा रूपी पिशाचनी है ।।५८।।

जहां काम, क्रोध, आदि छः शत्रु स्थित हैं, जो जीव को पाप में डूबोकर तथा क्रूर कर्म कराकर उसे बलहीन करके लूट लेते हैं ।।५९।।

वहां जाकर तुम यहां के अपने स्वाभाविक गुणों, सौन्दर्य और चतुरता के विपरीत हो जाओगी । मुझे तुम कहीं भी नहीं देखोगी और हमेशा ही मुझको भूली रहोगी ।।७८।।
इसी प्रकार का वर्णन नारद पञ्चरात्र के अन्तर्गत माहेश्वर तन्त्रम् में भी किया गया है । क़ुरआन में वर्णित 'अलस्तो विरब्ब कुंम' का कथन भी इसी ओर संकेत करता है

जड़ पूजा को वाणी तथा अन्य ग्रंथो में वर्जित  किया  गया है।
इसको अन्य उदाहरणों से समझें-
अंधतमः प्रविशन्ति ये सम्भूति उपासते.- यजुर्वेद
जो १ चेतन परमात्मा को छोड़कर जड़ की उपासना करता है, वह घोर अंधकार  में चला जाता है.

कबीर जी कहते हैं-
पत्थर पूजे हरी मिले तो मै पूजू पहाड़।।
वही हो रहा है।
आज ब्रम्हज्ञान के आने के बाद भी अगर हम जड़ की पूजा करते रहे तो तारतम ज्ञान लेने का कोई लाभ नहीं है.
इसलिए चेतन परमात्मा की उपासना करें।
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प्रेम प्रणाम जी

Wednesday, December 30, 2015

पलायन या उपयोग..

सुप्रभात जी

दो पडोसी राजा थे दोनो को समाचार मिला की एक असुर अपनी सेना लेकर उनके राजये की तरफ बढ रहा है और गुप्तचर ने शूचना दी की उनकी सेना मे सभी राक्षस बोहोत बलवान है उनसे जीतना बहोत मुशकिल है .. दोनो राजाओ ने युध्द करने का निर्णय लिया ..अब युध्द का समय आ गया उस राक्षस ने हमला बोल दिया फला राजा डर के जंगलो मे भाग गया दूसरा राजा डट कर मुकाबला करता रहा पर राक्षस की सेना बोहोत बलवान थी राजा भी बोहोत बहादुर था कयी दिन तक युध्द चला पर राक्षस की सेना मरने के कुछ समय बाद फिर से जिन्दा हो जाती थी ..एक दिन युध्द की सन्धया को राजा भवन मे बैठा उसे कुछ सूझ नही रहा था की रक्षस की सेना को केसे मारा जाये तभी राजगुरु ने बताया की अगर ये मर नही रहे हों तो इन्हे बन्दी बना लो राजा को विचार बहोत पसंद आया अगले दिन युध्द मे राजा ने राक्षस की सेना को एक एक करके बन्दी बनाना शुरु कर दिया धिरे धिरे पुरी सेना को बन्दी बना लिया व राजा ने उन सब राक्षसो को दास बना कर अपने सेवक बना लिये ..अब वो भागने वाला राजा भी वापस अपने राज्ये में  आ गया पर एक अजीब घटना घटी की लोग जीतने वाले राजा की बजाये भागने वाले राजा की जय जयकार कर रहे थे..?????
अब सार लेते हैं ..भागने वाला राजा वो है जो लोग संसार से पलायन कर माया की सेना से बच कर सन्यासी बन जाते है „ और युध्द करने वाला राजा वो है जो संसार मे रह के उस माया की सेना को अपना दास बना कर उनको साधन बना कर अपने लक्ष्य को पालेता है ..पर लोग यह भेद ना समझ पाने के कारण पलायन करने वाले साधुवो की जय जय कार करते है अर्थात उन से मुक्ति की आशा रखते है..
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प्रणाम जी

वाणी

गाल्यूं मूंजे दिलज्यूं, सभ तूंहीं सुजाणे।
हे सभेई तोहिज्यूं, तो करायूं पांणे।।

मेरे प्राणप्रियतम परमात्मा ! मेरे दिल की सभी बातों को आप ही जानते हैं। यहां जो भी उत्पन्न होता है वो आपसे ही है व उसको पूर्ण भी आप ही करते हो ,यह सारी लीला आपने ही की है और आप ही कराते हैं।

प्रणाम जी

Tuesday, December 29, 2015

निष्काम हो जाना

सुप्रभात जी

" निष्काम हो जाना "
निष्काम होने का अभिप्राय निष्कर्म होना अथवा कर्म से पलायन नहीं है। कर्म करते हुए, सांसारिक कर्मो में अपनी लिप्तता बनाएरखकर भी निष्काम हो जाना ,सुनने में असंभव और विचित्र सा लगता है? नादान व्यस्ति अकर्मण्यता को ही निष्काम्यता का पर्याय मान लेता है। कुछ लोग निष्काम होने के लिए संन्यास की शरण में जाते रहे हैं। लेकिन देह पर संन्यासी बाना धारण कर वन।वन घूमने से तो सचमुचका वैराग्य संभव नहीं। जब तक मन मोहमाया से ग्रस्त है तब तक कर्मसंन्यास की वास्तविक स्थिति कैसे संभव हो सकती है। इस उलझन को सुलझाने का रास्ता भी गीता मैं है। कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा का त्याग कर दो। निष्काम कर्म यानी कर्म करते हुए कर्म का बोध न होने देना, यह प्रतीति बनाए रखना कि मैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्ता तो कोई और है, ‘त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेवसमप्यते’ भावना के साथ सारे कर्म, समस्त कर्मफलों को परमात्मा-निर्मित मानकर उसी को समर्पित करते चले जाना ही कर्मयोग है। कर्म करते हुए फल की वांछा का त्याग ही विकर्म है, और यह प्रतीति कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं, जो किया परमात्मा के लिए किया, जो हुआ परमात्मा के इशारे पर उसी के निमित्त हुआ, यह धारणा कर्म को अकर्म की ऊंचाई जक पहुंचा देती है।"वाणी में इस भाव को हुकुम से चलना कहते हैं " संसार से भागकर कर्म से पलायन करने की अपेक्षा संसार में रहते हुए कर्मयोग को साधना कठिन है। इसीलिए तो श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्मसंन्यास कर्मयोग की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है, तो भी कर्मयोगी होना कर्म संन्यासी की अपेक्षा विशिष्ट उससे बढ़कर है..जल में रहकर कोरे रहिए...

प्रणाम जी

Monday, December 28, 2015

""वैराग्य कितने प्रकार का होता है""

सुप्रभात जी

"""वैराग्य कितने प्रकार का होता है""
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योगदर्शन में पर और अपर भेद से दो प्रकार के वैराग्य बतलाये गये हैं । इनमें अपर वैराग्य चार प्रकार के हैं:
1) यतमान : जिसमें विषयों को छोड़ने का प्रयत्न तो रहता है, किन्तु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैराग्य है ।
2) व्यतिरेकी : शब्दादि विषयों में से कुछ का राग तो हट जाये किन्तु कुछ का न हटे तब व्यतिरेकी वैराग्य समझना चाहिए ।
3) एकेन्द्रिय : मन भी एक इन्द्रिय है । जब इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण तो न रहे, किन्तु मन में उनका चिन्तन हो तब एकेन्द्रिय वैराग्य होता है । इस अवस्था में प्रतिज्ञा के बल से ही मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है ।
4) वशीकार : वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ ।

पर वैराग्य-
जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसको भी त्याग देना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है |

प्रणाम जी

Sunday, December 27, 2015

मुक्ति का अर्थ

सुप्रभात जी

मुक्ति का अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। जब ऐसी मुक्ति प्राप्त हो, तब कहा जाता है कि सांसारिक व्याधियों से दूरमन पूरी तरह निस्पृह निर्लिप्त हो चुका है। जैन दर्शन में इस अवस्था को कैवल्य’ कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर ‘केवल वही’ का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा।उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में ‘निर्वाण’ कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘बुझा हुआ’। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।

प्रणाम जी

अब हम धाम चलत है

अब हम धाम चलत है , तुम हूजो सबे हुसियार |
एक खिन की विलम्ब न कीजिये , जाये घरों करें करार ||

अब मैं अपने हृदये धाम में परमात्मा के साथ सदा  आनंद में रहता हुं मैं जिस आनंद को पाना चाहता  था वो मुझे मिल गया है ये वो परमलक्ष्ये है जिसको  पाने के लिए इस जीव ने न जाने कितने ही जन्म  लगा दिए ..अब वो मुझे मिल गया है इस आनंद  की व्याख्या मैं शब्दों में नही कर सकता बस इतना  कह सकता हूँ की रास में हमने जो आनंद लिया था  वो आधी नींद का आनंद था और वो आनंद जागृत  अवस्था से कम ही होता है और अब मैं जाग के  उसी विषय का आनंद ले रहा हूं इसे ही जागनी  लीला का आनंद कहते है  ..हे साथ जी आब आप  सब भी होशियार हो जाइये वो आनंद याने  परमात्मा आप सब का इंतजार कर रहा है उसको  अपनी बांहे भर के मिल लो वो हमारे आत्महृदये में  ही है उसके लिए हमे कहीं जाने की भी जरूरत  नही है ये आनंद रास से भी कहीं ज्यादा है .हे साथ  जी अब एक पल का भी विलम्ब मत करो क्योंकि  इस से पहले जितने भी जन्म गए है वो सारा  विलम्ब ही था बस अब और नही और कितना  दुःख भोगोगे यहाँ अब तो अपने आत्म ह्रदये रूपी  घर में परमात्मा रूपी आनंद में सदा के लिए स्थित  हो जाओ जहां  तुम्हे  हमेशा  के  लिए  आनंद  की  प्राप्ति हो जायगी तुम्हे अपना खोया हुआ करार  मिल जायेगा  ..
प्रणाम  जी

Saturday, December 26, 2015

आनन्द ही ब्रह्म है — यह बोध ब्रह्मज्ञान है।

सुप्रभात जी

आनन्द ही ब्रह्म है — यह बोध ब्रह्मज्ञान है।
यहाँ पर एक बात को ठीक से समझना है — ब्रह्म और आनन्द एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। ब्रह्म आनन्द से अलग नहीं है, आनन्द ब्रह्म से अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में आनन्द है, और ऐसा भी नहीं है कि आनन्द में ब्रह्म है। तथ्य यह है कि आनन्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आनन्द है।
इसे समझने के लिये एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं —
जब हम कहते हैं कि गिलास में पानी है तो इसका अर्थ होता है कि गिलास और पानी दो अलग-अलग चीजें हैं। एक ओर जहाँ पानी के बिना भी गिलास हो सकता है, वहीं दूसरी और गिलास के बिना भी पानी हो सकता है। लेकिन जब पानी की अधिकता इतनी बढ जाये कि हम उसे समुद्र कहने लगें, तब यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि समुद्र में पानी भरा है। समुद्र का अर्थ ही है — अथाह पानी। इसी प्रकार ब्रह्म का अर्थ ही है — अथाह आनन्द। ब्रह्म का अर्थ ही है — आनन्द का समुद्र।
आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता है। कोई उसे ओंकार कहता है तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त सुख का महासमुद्र!
तुलसीदास जी ने भी अपने परमात्मा को आनन्द-सिंधु ही कहा है।
जो आनन्द सिन्धु सुख रासी।
सी करते त्रैलोकी सुपासी।।
सो सुखधाम राम असनामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
यह जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, और जिस (आनन्द सिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आप के सबसे बड़े बेटे) का नाम राम है। राम सुख का भवन हैं और वे तीनों लोकों को शांति देने वाले हैं।
परमात्मा सुख से ओत-प्रोत है। परमात्मा सुख का अथाह सागर है। अनन्त सुख ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई  है।
परमात्मा में केवल सुख होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी सुख से सरोबार हो जाता है। सुख में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।
आनन्द में डूब जाने का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है।
यहां दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
पहली बात तो यह है कि ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है।
ब्रह्मज्ञान तो केवल अपने स्वयं के मनन से ही हो सकता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्रडू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
दूसरी उल्लेखनीय बात..
जो कोई मनुष्य भृगु की भान्ति गहन विचार कर आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह इस लोक में भी बहुत गहन विचार वाला और संसार के सभी अच्छे बुरे विचारों को भली भान्ति पचाने की शक्ति वाला हो जाता है..
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प्रणाम जी

Friday, December 25, 2015

"अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं..."

सुप्रभात जी
""अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं...""
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हम सारी उम्र इसी व्यथा में निकाल देते हैं की हमसे संसार नही छुटता हमें परमात्मा कैये मिलेगा..कयोंकी हमारे अन्दर यह बात बहोत गहराई से बैठ गई या यूं कहें की बैठा दी गई है की परमात्मा त्याग से मिलते है..इसका परिणाम यह हुवा कि हम परमात्मा को अपनें से बहोत दूर समझने लगे हैं..यह गलत धारणा है..कयोंकी..
“उपनिषद का ऋषि संसार को छोड़ने के लिये नहीं कहता, वह भोगने और त्यागने की, अविद्या और विद्या की, असम्भूति और संभूति की बात कहता है। विद्या भी ठीक, अविद्या भी ठीक, सम्भूति भी ठीक, असम्भूति भी ठीक — ये मिलकर चलें तो ठीक, एकुदूसरे से लडें तो ना-ठीक। इस प्रकार के समन्वय को ईशावास्योपनिषद का सार कहा जा सकता है।”
अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं।
अध्यात्मिकता का अर्थ त्याग नहीं है। अध्यात्मिकता का अर्थ संसार से विमुखता भी नहीं है। अध्यात्मिकता तो हमारी वह दृष्टि है जिस से हम यह देख लेते हैं कि हमारी धन-दौलत और हमारे घर-परिवार के पार भी बहुत कुछ है। इस का अर्थ यह नहीं कि यह बोध उसी को हो सकता है जो संसार का त्याग करता है, या संसार को तुच्छ और मिथ्या कहने लगता है।
अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीने की कला सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — सुख की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति अपने हर सुख को परम सुख बना देता है। अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम सुख कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। हमारी यात्रा ही हमारे छोटे से सुख को परम सुख बनाती है, हमारी यात्रा ही हमारे क्षणिक सुख को आनन्द बनाती है।
सारी महिमा यात्रा की है।
अध्यत्मिकता यह नहीं कहती कि हम दरिद्रता का जीवन-यापन करें। अध्यात्मिकता का यह अर्थ नहीं कि हम दीन-हीन बन कर जीवन काटें। अध्यात्मिकता तो हमारी भौतिकता की पूर्णता है। यह पूर्णता तभी पाई जा सकती है, जब हम संसार को छोड़ कर नहीं, संसार के साथ चलते हैं। हम पूर्ण तभी हो सकते हैं जब हम भौतिकता का त्याग नहीं, भौतिकता को माध्यम बनाकर यात्रा करते हैं..
आनंद ही बरह्म है जो त्याग नही प्राप्ती का नाम है..

"आनन्दं ब्रह्म इति व्यजानात।"
मैं इस बात को जान गया कि आनन्द ही ब्रह्म है।
— तैत्तिरीय उपनिषद

प्रणाम जी

नाम पर झगडा कयों .."मंथन"

नाम पर झगडा कयों .."मंथन"
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कृष्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं।
1-कृष् धातु का एक अर्थ है खेत जोतना,अर्थात वे जो खींच लेते हैं,
2-दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।
वे जो प्रत्येक
को अपनी ओरआकर्षित करते हैं,
3-कृष्ण का अर्थ है विश्व का प्राण,
उसकी आत्मा। जो सम्पूर्ण
संसार के प्राण हैं- वही हैं कृष्ण।
4-कृष्ण का अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं-
पन' में रहता है।मैं हूँ, क्योंकि परमात्मा है।
इसलिय धर्मगरन्थों में पूर्णब्रह्म परमात्मा को कृष्ण नाम से सम्बोधित किया गया है..
ईश्वर: परम : कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह: |
अनादिरादि गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ||
श्रीकृष्ण परम ईश्वर है, सच्चिदानन्द- विग्रह है, अनादि है| गोविन्द है एवम सब कारण के कारण है|

जबकी परमातमा शब्दातीत है..
अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।
सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ॥ कि. १०७/७**
इन सरूप की इन जुबां , कही न जाए सिफत ।
सब्दातीत के पार की , सो कहनी जुबां हद इत ।।

परमात्मा कहते हैं, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते'
जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं, जो भी हम इस
विश्व में देखते हैं- वह सब कुछ परमात्मा का ही है।
उनकी ही सत्ता है..
कृष्ण कोई शरीर रही है कयोंकी शरीर त्रिगुणातमक है.. त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं....

इसलिय कृष्ण कोई वजूद का नाम नही है व्यापकता कृष्ण है.. परमधाम मे सत्य आकर्षण है परमधाम निज स्वरूप है आनंद का और आनंद ही बृह्म है.. आतमांये अंश है परमात्मा की ..और अंशी अपने अंश की और सदैव आकृषित रहती है जैसे मिट्टी का ढ़ेला कितना भी ऊपर फेंको पर वापस पृथ्वी की और ही आता है कयोंकी वो उसका अंश है इसी तरह ऐसे ही अग्नि उपर उठती है कयोंकी अंश है सुर्य का इसी इसी प्रकार हम आत्मांये आनंद अंग होने के कारण सदैव आनंद की और आकर्षित रहतीं हैं आनंद ही बृह्म है इसलिय हमारा परम आकर्षण परमात्मा है यानी वो हमारे सबसे बडे कृष्ण हैं. कयोंकी आकर्षण ही कृष्ण है परमात्मा परम आकर्षण हैं इसलिय वो परम कृष्ण हैं..आत्मांये धाम की और आकर्षित रहतीं है इसलिय परमधाम हमारा कृष्ण है..
कृष्ण को अगर किसी शरीर का नाम समझते हो तो तो तुरंत अपना मार्ग बदलें कयोंकी आप विपरित मार्ग पर हैं..संकिर्ता कृष्ण नही है व्यापकता कृष्ण है...यही शुक्षम भेद ना समझपाने के कारण हम परमात्मा को पाने के बजाय उनका नाम पकड कर बैठ जाते हैं व हममें विकार उत्पन्न हो जाते हैं ..ये भी सत्य है की संसीर में सभी प्राणी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष केवल परमात्मा का ही सेवन करते है और उसे ही याने कृष्ण को ही चाहते है..बस सत्यबोध के अभाव में सार त्तव ग्रहण नही हो पाता ..
मेरी बात से अगर कीसी को ठेस पहुचि हो तो मै आपसे चरण वंदन क्षमा प्रार्थी हूं..

प्रणाम जी

Thursday, December 24, 2015

‘मैं’ की भावना

सुप्रभात जी

यद्यपि इस ‘मैं’ की भावना का अस्तित्व नहीं के बराबर है, फिर भी यह निकलती नहीं। यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है। अपनी आत्मा और परमात्मा के बीच यह ही एकमात्र परदा है, जिसके कारण परमात्मा से मिलन नहीं हो पाता।
जिस जड़ माया के संयोग से चेतन के अन्दर ‘मैं’ की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। उस माया का  अस्तित्व  महाप्रलय के पश्चात् नहीं रहता, फिर भी यह ‘मैं’ इतनी शक्तिशालिनी है कि किसी के भी अन्दर से यह निकल नहीं पाती।
अपने अन्दर से मैं (अहम्) की भावना को जड़मूल से नष्ट कर देना तथा उसे निकाल देना अध्यात्म जगत् की बहुत बड़ी उपलब्धि है, किन्तु इस उपलब्धि पा कर भी उसे बाहर जाहिर न होने देना अर्थात् उसे भुला देना सर्वोच्च मंजिल है।
यदि कोई व्यक्ति अपने अहम् का परित्याग कर विनम्रता की प्रतिमूर्ति बन चुका है, किसी भी बाते पर उसके मन में कोई विकार नहीं पैदा होता है, किन्तु इस उपलब्धि को वह सबसे कहता फिरता है तो निश्चित् रूप से अन्तर्मन में कहीं न कहीं ‘मैं’ की ग्रन्थि बैठी हुई है। परन्तु जिसने कथनी की परिधि (सीमारेखा) को भी पार कर लिया अर्थात् अपने मुख से अपनी उपलब्धि को न तो कहता है और न सोचता है, निश्चित् रूप से उसके धाम हृदय में परमात्मा की बैठक होती है।

प्रणाम जी

सत्य मार्गी को समझने का प्रयास

कभी भी किसी सत्य मार्गी को समझने का प्रयास मत करना वरना मतभेत कर बैठोगे ..कयोंकी तुम जिस मार्ग को गलत समझ कर सत्यमार्ग के ठेकेदार बन्ते हो वो इस गलत और सही दोनो को तुच्छ समझकर त्याग चुका है ..इसलिय अगर समझना है तो परमात्मा को समझने का प्रयास करो जिसको न समझने के कारण तुम गलत ओर सही रूपी दूैतवाद में फसे हो..

प्रणाम जी

Tuesday, December 22, 2015

"ध्यान"

सुप्रभात जी
"ध्यान"
मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं 'मन' नहीं हूं। ध्यान चेतना की खालिस अवस्था है। जहां न विचार होता है, न कोई विषय। अमूमन हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, इच्छाओं से भरी रहती है। जैसे कि कोई शीशा धूल से ढका हो। हमारा मन एक लगातार बहते रहने वाली चीज है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी यादें सरक रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है। सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है।

जब कोई विचार नहीं चलता और कोई कामना सिर नहीं उठाती। जब मन नहीं होता, तब ध्यान होता है। मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात को जान लेना है कि मैं 'मन' नहीं हूं।मन की बनाई ध्यान के विषय मे सारी कल्पनायें झूठी हैं.. जब मन में कुछ भी चलता नहीं, उन शांत पलों में ही हमें खुद के बोध की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है। मन असहज अवस्था है, जिसे हमने पा लिया है। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। मगर इसे फिर पाया जा सकता है।

किसी बच्चे की आंखों में झांकें, वहां आपको एक खास तरह की शांति और पवित्रता दिखेगी। हर बच्चा ध्यान में है, लेकिन उसे समाज के रंग-ढंग सीखने पड़ते हैं। विचार करना, तर्क करना, शब्द, भाषा, व्याकरण सब। धीरे-धीरे वह अपनी सरलता से दूर हटता जाएगा, ध्यान से हटता जाएगा। उसकी कोरी स्लेट समाज की लिखावट से गंदी होती जाएगी। उस निर्दोष सहजता को फिर पाने की जरूरत है। हम उसे भूल गए हैं। हीरा कूड़े-कचरे में दब गया है लेकिन हम जरा खोदें, तो हीरा फिर हाथ में आ सकता है क्योंकि वह हमारा स्वभाव है।

इस शरीर में स्थित आत्मा (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक पहुँचती है।
मैं (अहम् ,मन जीव आदी) का जल बहुत गहरा है। यह हमारे और परमात्मा के बीच उस झूठ के परदे की तरह है, जो परमात्मा का दीदार नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक हमारी अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक नहीं पहुँच पाती।
यह स्पष्ट है कि बेशक होकर मैं ( अहम् ,मन जीव आदी ) का परित्याग किये बिना परमात्मा से मिलन सम्भव ही नहीं है।
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प्रणाम जी

Monday, December 21, 2015

सुप्रभात जी
औरनाल

हमे संसार में दो तरह की औरनाल मिलती है एक स्थूल और एक शुक्ष्म  सथूल औरनाल से संसार के सभी जीव ग्रभ मेें अपनी मां के साथ जुड़े होते है व परारम्भिक संसकार वहीं से प्राप्त करते हैं जैसे अभिमन्यु ने मां के गर्भ में ही व्युह रचना का ग्यान प्राप्त कर लिया था ऐसे और भी कयी उदाहरण है..एक और उदाहरण की हर जीव अपनी मां के गर्भ से ही आहार के संसकार सीख के आता है जैसे हम पैदा होते ही बिना किसी के सिखाये मां का दूध पिना सीख लेते है और ऐसा पृथ्वी का हर प्राणी करता है ये सब स्थूल औरनाल के माध्यम से हमें मां के पेट में ही मिल जाता है जब तक स्थूल ओरनाल मां से जुडी रहती है हमे उनसे आहार और विचार दोनो प्राप्त होते है..

और एक होती है शुक्ष्म ओरनाल ये बहोत शक्तिशाली होती है इसे मन भी कह देते है व अंतःकरण भी इसका एक सिरा हमसे जुडा होता है व बाहर इसके सिरे अनेक होते है ..जिस से भी इसका बाहर वाला सिरा जुड जाता है हमें उसी वस्तु से सुख दुख आदी मिलना प्रारम्भ हो जाता है चाहे वो परिवार हो संसार मे किसी से प्रेम हो या कोइ जड़ पदार्थ हो ..अब करना कया है ??
करना ये है की हमे अपनी शुक्ष्म ओरनाल जिस से भी जुडी है उस से हटानी नही है बल्कि उसका एक नया सिरा परमात्मा विषय से जोड़ देना है व उस से धिरे धिरे ज्यादा रस पराप्त करने का प्रयास व अभ्यास करना है इसका लाभ ये होगा की हमारी ओरनाल के अन्य सिरे जो संसार से जुडे हैं वो अपने आप कमजोर होजायेन्गे जैसे हमारे दो हाथ होते है सिधा और उल्टा जो सिधे हाथ से ज्यादा कार्य करते है उनका उल्टा कमजोर हैता है ओर उल्टे हाथ वालो का सीधा ..बस अपना परमात्मा विषय का जुडाव कभी कम न होने दें व उससे ज्यादा रस ग्रहण करने का निरन्तर अभ्यास करें संसार के बन्ध अपनेआप ढिले पड जाऐंगे ..
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प्रणाम जी

Sunday, December 20, 2015

अन्दर की ओर

सुप्रभात जी

कठोपनिषद् का कथन है कि परमात्मा ने पाँच इन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा)का निर्माण किया है, जो बाहर के विषयों की ओर ही देखती हैं । एक-एक विषयों का सेवन करने वाले पतंग रूप के लिय, हाथी स्पर्श के लिय, हिरण ध्वनि के लिय , भौंरा सुगन्ध के लिय, और मछली रस के लिय जब मृत्यु के वशीभूत हो जाते हैं, तो पाँचो इन्द्रियों से पाँचो विषयों का सेवन करने वाले प्रमादी मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है जर सेचिय। अमृतत्व की इच्छा करने वाला कोई धैर्यशाली व्यक्ति ही अन्दर की ओर देखता है ..

प्रणाम जी

वाणी..

पेहेन पाखर गज घंट बजाए चल,
पैठ संकोड सुई नाके समाए।
डार आकार संभार जिन ओसरे,
दौड चढ पहाड सिर झांप खाए।।

शुद्धसत्य रूपी कवच पहनकर वेद कतेबके ज्ञाानरूपी घण्टे बजाते हुए निर्भय होकर हाथीकी चालसे मस्त होकर चलो. सत्यताके बोद्ध द्वारा सभी प्रकार के शरीरों (जीव,शुक्ष्म शरीर ,कारण शरीर ,महाकारण आदी )को समेटकर धागे की नोक के समान शुक्ष्म होकर सुईके छेदके समान सूक्ष्म प्रेमकी संकड़ी गलीमें प्रवेश करो. परमात्माके प्रेममें स्वयंको सर्मिपत करनेमें पीछे मत हटो. पहाड़ के समान ऊँचे वैकुण्ठ, शून्य, निराकारको पार कर परमधाममें छलाङ्ग लगाओ...

प्रणाम जी

Saturday, December 19, 2015

आत्मा स्त्री है या पुरुष ??

सुप्रभात जी
आत्मा स्त्री है या पुरुष ??

कुछ यमय पहले पाकिस्तान से एक ब्रह्म मार्गी मित्र ने एक अत्यन्त महत्वपुर्ण प्रश्न किया था कि आत्मा स्त्री है या पुरुष ?? पर समय अभाव के कारण कुछ दिन का विलंब हो गया है जिसके लिय मैं क्षमा परार्थी हूं पर होता वही है जैसा परमात्मा का हुकुम होता है..इसलिय उनकी कृपा व हुकुम से ही यहां उत्तर देने का प्रयास किया जा रहा है कृप्या निर्विकार रूप में ग्रहण करें...
आत्मा स्त्री है या पुरुष ??

आत्मा ना स्त्री है ना पुरुष है लेकिन फिर भी आत्मा को स्त्री लिंग ही माना गाया है  कयोंकि आत्मा प्रमात्मा का अंश है और हमेशा अंशि को स्त्री लिंग के रुप मे देखा जाता है जैसे सुर्ये का अंश उसकि किरणे है तो सुर्ये को पुलिंग माना जाता है और किरणो को स्त्री लिंग इसी प्रकार सागर ओर उसकी लगहरें इसमे लहरे स्त्रीलिंग मानी गयी है कयोंकि वो अंशी है सागार की एक ओर उधाहरण लेते है जैसे वृक्ष की टहनिया , टहनियां स्त्री लिंग मानी जाती हैं  अतः हम कह सकते है की सवयं का अंग या सक्ति हमेशा स्त्री लिंग के रुप मे देखी जाती है जबकि वो वासतव मे स्त्री लिंग नही होती इसी प्रकार आत्माओं को स्त्रीलिंग के रुप मे देखा जाता है जबकी वो वासतव मे स्त्रीलिंग नही होती सत्ये तो यह है की लिंग शरीर ब्रह्मा जी की श्रिष्टि मे ही होता है कयोकी ब्रह्मा की श्रिष्टि का विस्तार माध्यम मैथुन है इसलिये लिंग शरीर की आवश्यकता होती है इस शरीर मे आशक्ति से ही विकार उतपन्न होते है याहां सबसे अहम बात यह है की हमने आज तक केवल लिंग शरीर के अलावा कोइ निर्विकार शरीर देखा नही है इसलिये हम मायातीत आतमाओ को भी अपनी विकार बुध्दि से लिंग शरीर के रुप मे ही देखते है ओर सबसे बडी गडबड तो ये है की हम जब अपने को आत्मा रुप मे ध्यान लगाते है तो खुद को स्त्रीलिंग के रुप मे ही देखते है कयोंकी ऐसा हमे सिखाया गया है जबकी सत्य तो यह है की लिंग शरीर कि कल्पना मे विकार विद्यमान रहते है ओर ऐसा शरीर लेके हम प्रमात्मा से नही मिल सकते कयोंकी केवल विकार ही हमारे और प्रमात्मा के बीच का परदा है ...इसलिय सत्य की गहनता का मंथन परम आवश्यक है..
इस प्रकार के और गहन मंथन आप मेरे blog पर पा सकते है..
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प्रणाम जी

कया वो किसी सम्प्रदाय मात्र मे ...

सागर नीर खारे लेहेरें मार मारे फिरें,
बेटों बीच बेसुध पछाड खावें।
खेलें मछ मिलें गलें ले उछालें,
संधों संध बंधे अंधों यों जो भावे।।

यह जीव इस संसार रुपि मोहसागरकी काम,क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि खारी लहरोंकी थपेडें. खाता हुआ जन्म-मृत्युरूपी चक्रमें पड़ कर थक जानेलके बाद सत्य की खोज के लिय विभिन्न सम्प्रदायरूपी द्वीपों में आश्रय लेता है और बेसुध होकर भटकता है. और उन सम्प्रदाय के ही घोर अंधेर संकिर्ण विचारो मे ही सब मस्त होकर समझते है की हम अन्नत को पा लेंगे ..पर उन संमप्रदाय में लोग कयी तरह के धार्मिक भय दिखा कर व धर्म ग्रन्थो का गलत भाष्य बता कर उन जीवों से अपनी ही सेवा पूजा करवाते रहते है व उनको सत्य से विमुख कर देते है ..ये अखंड आनंद आदिका प्रलोभन देकर सामान्य जनको अपनी ओर खींचते हैं. इस प्रकार झूठे प्रलोभनमें बँधे हुए सत्य से विमुख लोग अपने अपने सम्प्रदायको श्रेष्ठ मानते हैं..पर सत्य परमात्मा जो अन्नत है कया वो किसी सम्प्रदाय मात्र मे सिमित हो सकता है..??

प्रणाम जी

Friday, December 18, 2015

चंचल जीव !

सुप्रभात जी

अरे चंचल जीव ! तू इधर - उधर क्यों भटक रहा है ? तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये | अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये, एवं अब भी बनाता जा रहा है | किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता | अरे जीव सुन ! वेद - पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र तेरी शरणागति व प्रेम मार्ग से ही प्राप्त हो सकता है | जब तू उनको भलीभांती शुक्ष व अन्नत रूप मे जानकर अन्नय प्रेमभाव से उनको धारण करेगा तब वे अपनी अनुकम्पा द्वारा तुझे अनन्त काल के लिए आनन्दमय कर देंगे; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी |
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प्रणाम जी

प्रेमरूपी मार्ग

घाट अवघाट सिलपाट अति सलबली,
तहां हाथ ना टिके पपील पाए।
वाओ वाए बढे आग फैलाए चढे,
जलें पर अनल ना चले उडाए।।

प्रेमरूपी मार्ग अत्यन्त विषम (महीन से भी महीन) है. उस पर हाथ (ग्यान का भार) भी नहीं टिकता और चींटीके पैर (ग्यान रहित व्यक्ति) भी नहीं ठहर सकते.

चारों तरफ इच्छा ,तृष्णा ,सम्प्रदायवाद, प्रभाववाद ,व्यक्तिवाद , माया का जड़वादी सतोगुण का जाल आदी से भरे हुए वातावरण को देख कर उसका हमारे मन पर प्रभाव रूपी पवनके चलने पर हमारे अंदर भी वो अग्नि रूप में और धधकती है. उससे आत्मारूपी पक्षीके प्रेम (इश्क) तथा विश्वास (ईमान) रूपी पंख जल जाते हैं. जिससे वह उड़कर अपने घर नही जा सकता है.

प्रणाम जी

Thursday, December 17, 2015

हृदयरूपी घरमें आप पधारें

हे परमात्मा! मेरे हृदयरूपी घरमें आप पधारें. इस संसाररूपी परदेसमें मुझे अकेली छोड.कर आप कहाँ चले गए हैं ?
मैं तो अज्ञाानकी निद्रामें सो रही थी. आप अज्ञाानरूपी रात्रिमें मुझे अकेली सोई हुई छोड.कर कहाँ चले गए ? (अज्ञाानरूपी निद्रासे) जागृत होकर देखा तो आपमेरे पास ही नहीं हैं.जाग्रत होकर पाया की ह्रदय में तो आप हो पर में तो आपसे धाम की तरह याहा आपका साथ चाहती हुं.. पीछे तो ज्ञाानका प्रभात हो जाएगा. अर्थात धाम में तो आपने मिलना ही है पर अगर याहां भी वैसे ही मिल लो तो ये आनंद कुछ और ही होगा.

प्रणाम जी

Wednesday, December 16, 2015

""ब्रज भूमि का रहस्य""

""ब्रज भूमि का रहस्य""
( भागवत पुराण महात्म्य - प्रथम अध्याय )
सुप्रभात जी

शांडिल्य जी ने कहा - प्रिय परीक्षित और बज्रनाभ ! मैं तुम लोगों से ब्रज भूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दतचित हो कर सुनो। 'ब्रज' शब्द का अर्थ है - व्याप्ति। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण इस भूमि का नाम 'ब्रज' पड़ा है। ।। १९ ।।

सत्व, रज, तम -- इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रहम है, वही व्यापक है। इसलिए उसे 'ब्रज' कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवंमुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। ।। २० ।।

प्रकृति के साथ होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्तिथि और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि परमात्मा की लीला दो प्रकार की होती है -- एक वास्त्विकी और और दूसरी व्याव्हारिकी। || २५ ||

वास्तवी लीला स्वसंवेद्य है -- उसे परमात्मा और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है वह व्याव्हारिकी लीला है। वास्तवी लीला के बिना व्याव्हारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्याव्हारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। || २६ ||

प्रणाम जी

ऐसा कभी नहीं समझना कि परमतत्त्वको किसीने प्राप्त नहीं किया.

जिन जानो पाया नहीं, है पावनहार परवान।
सोए छिपे इन छलथें, वाकी मिले न कासों तान।।

ऐसा कभी नहीं समझना कि परमतत्त्वको किसीने प्राप्त नहीं किया. उस तत्त्वको यथार्थ रूपसे पानेवाले भी इसी संसारमें हैं. किन्तु वे सब इस छल-छद्मरूप मायासे छिपकर रहते हैं. उनकी सुर-तान किसीसे नहीं मिलती.
परमात्माके ऐसे प्रेमी भक्त छल-प्रपञ्चपूर्ण विश्वसे छिपे हुए रहते हैं. उनके लिए सांसारिक सभी वस्तुएँ सर्वथा तुच्छ हैं. वे अपने परमात्माके प्रेममें मस्त रहकर खेलते है और अपना सर्वस्व भूल जाते हैं.
ऐसे प्रेमी की आत्मा संसारमें न रहकर अपने परमात्माके प्रकाशसे प्रकाशित रहती है. वह तो अपने परमात्माके प्रेममें ही विभोर रहता है. भौतिक वैभव उसके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता.
वस्तुतः जो परमात्माके प्रेमी हैं वे तो कहीं एकान्तमें छिपकर ही रहते हैं. उनके मुखसे किसी भी शब्दका उच्चारण नहीं होता अर्थात् वे कुछ कहते ही नहीं. यदि उनके मुखसे कभी कोई शब्द निकल भी जाएँ तो ज्ञाानी लोग उन शब्दोंका मर्म कैसे जान सकते हैं ?

प्रणाम जी

Tuesday, December 15, 2015

सत्संग का प्रभाव लहू पर

सुप्रभात जी
सत्संग का प्रभाव लहू पर

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की डिलाबार प्रयोगशाला में एक प्रयोग बारंबार किया गया है और वह यह कि आपके अपने विचारों का प्रभाव तो आपके लहू पर पड़ता ही है परन्तु आपके विषय में शुभ अथवा अशुभ विचार करनेवाले अन्य लोगों का प्रभाव आपके लहू पर कैसा पड़ता है और आपके भीतर कैसे परिवर्तन होते हैं ? वैज्ञानिकों ने अपने दस वर्ष के परिश्रम के पश्चात निष्कर्ष निकाला कि:

"आपके लिए जिनके ह्रदय में मंगल भावना भरी हो, जो आपका उत्थान चाहता हो ऎसे व्यक्ति के संग में जब आप रहते हैं तब आपके प्रत्येक घन मि.मी. रक्त में १५०० श्वेतकणों का वर्धन एकाएक हो जाता है । इसके विपरीत आप जब किसी द्वेषपूर्ण अथवा दुष्ट विचरोंवाले व्यक्ति के पास जाते हो तब प्रत्येक घन मि.मी रक्त में १६०० श्वेतकण तत्काल घट जाते हैं ।" वैज्ञानिकों ने तुरन्त लहू-निरीक्षण उपरान्त यह निर्णय प्रकट किया है । जीवविज्ञान कहता है कि रक्त के श्वेतकण ही हमें रोगों से बचाते हैं और अपने आरोग्य की रक्षा करते हैं । वैज्ञानिकों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि शुभ विचारवाले, सबका हित चाहनेवाले, शुद्धह्रदय सज्ज्न पुरुषों में ऎसा क्या होता है कि जिनके सान्निध्य में आने से इतना परिवर्तन आ जाता है ? अपना योगविज्ञान तो पहले से जानता है परन्तु अब आधुनिक विज्ञान भी इसे सिद्ध करने लगा है ।

रक्त में जब इतना परिवर्तन होता है तब अन्य कितने अदृश्य एवं अज्ञात परिवर्तन होते होंगे जो कि विज्ञान के जानने में न आते हों ?

तो परमात्मा से ज्यादा हमारा मंगल कारी कौन हौ सकता है अगर उनको ह्रदय में धारण करें और निरंतर उनका संग करें तो जीव के कल्याण के साथ शरीर पर भी साकारात्मक व अद्दभुत प्रभाव रहेगा...
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प्रणाम जी

Monday, December 14, 2015

संन्यास कया है..

सुप्रभात जी

अर्जुन की अज्ञान की जड़ पर भगवान् बार- बार कुठाराघात करते हैं। उसे समझाते हैं कि सब कुछ त्याग कर चले जाने मात्र से, उसे युद्ध से, रक्तपात से, कौरवों से, निंदा से, अपयश से, द्रौपदी के तानों से, विभिन्न प्रकार से होने वाली लोक भर्त्सना से मुक्ति नहीं मिलेगी।  असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं। जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पों का त्याग नहीं किया, वह योगी नहीं हो सकता। कर्म तो किसी भी स्थिति में करना ही होगा। कर्म ही मुक्ति  के कारण बनेंगे। आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ- साथ कर्म करते रहने से वासनात्मक मन और निम्र प्रकृति पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है।

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ (गीता६/२)

कितना स्पष्ट अर्थ है-
भावार्थ हुआ- ‘‘हे अर्जुन! जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तू योग रूप में जान, क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने संकल्प का त्याग न किया हो, योगी नहीं हो सकता।’’ ६/२

प्रणाम जी

माया की महक नही रहेगी


ऊंचा नीचा गेहेरा गिरदवाए, कठन समया इत पोहोंचा आए ।
हाथ ना सूझे सिर ना पाए, इन अंधेरी से निकस्यो न जाए ।।

यह मोह सागर ऊँचा, नीचा, गहरा तथा चारों ओर विशालरूपमें फैला हुआ है (इन चौदहलोकोंमें सर्वत्र मोह व्याप्त है). बड़ा कठिन समय सामने आ गया है. अज्ञाानका अन्धकार इतना व्याप्त है कि स्वयंको अपने हाथ पैर तथा सिर भी नहीं सूझते हैं (अज्ञाानके कारण आत्माएँ स्वयंको तथा अपने अंगी परमात्माको भी पहचान नहीं सकतीं). ऐसे समयमें इस अज्ञाानरूपी अन्धकारसे बाहर निकना बहोत कठिन है...
मूल भाव-- जिस प्रकार एक खाली बर्तन में अगर कोइ अचार आदी महक वाली कोई वस्तु रखें तो और कुछ समय के बाद उसे खाली करके चाहे कितना भी धो लें पर उसकी महक नही जाती पर अगर उस बर्तन में कोई मंहगा इत्र रख दें तो कुछ समय के बाद उसमें से इत्र की खुशबु आने लगती है..इसी प्रकार ये जीव के ह्रदय मे विषय विकार अन्नत जन्मों से रखे हुये है उन्हे निकालने का कितना भी प्रयास कर लो पर उनकी महक नही जाती ..पर जब उसकी जगह परमात्मा रूपी इत्र रख दिया जायेगा अर्थात परमात्मा को धारण कर लेंगे तो माया की महक नही रहेगी..

प्रणाम जी

Sunday, December 13, 2015

इनमे से आप कोन?

सुप्रभात जी

आप कौन सी मछली है??

एक महात्मा था, उनके एक शिष्य ने सवाल किया कि संसार में किस तरह के इन्सान को मुक्ति मिलती है ?

महात्मा अपने शिष्य को तेज बहाव की नदी पर लेकर गये और जाल डालकर मछलियों को पकडने के लिए कहा।
शिष्य ने नदी में जाल फेंका और कुछ मछलियाँ जाल में फंस गई।फिर महात्मा ने शिष्य से सवाल किया कि जाल मे अटकने के बाद मछलियों का व्यवहार कैसा है ?
शिष्य ने कहा कि कुछ मछलियाँ अपनी मस्ती में मस्त हैं , कुछ मछलियाँ छटपटा रही है और कुछ मछलियाँ आजाद होने के लिए भरपूर प्रयास कर रही हैं , लेकिन आजाद नहीं हो पा रही है। सभी मछलियां एक जैसी ही दिखाई दे रही है लेकिन तीन प्रकार का मछलियां का रवैया देखा।
महात्मा ने मुस्कराते हुए कहा तुम्हें तीन प्रकार की मछलियां दिखाई दिया लेकिन चार प्रकार की मछलियां है।
शिष्य ने कहा वो चौथे प्रकार मछली किस तरह और उसका रवैया क्या है ?
महात्मा ने कहा कि जो मछलियां अपनी मस्ती में मस्त हैं वो वह जीव जो इस संसार में खा-पीकर माया में मस्त है।
दुसरा वो मछलियां जो छटपटा रही यह वो जीव हैं जो कभी-कभी सतसंग जाते हैं और ज्ञान की बातें करते हैं लेकिन अमल नहीं करते।
तीसरे प्रकार की मछलियां उस प्रकार के जीव हैं जो नित नेम सतंसग जाते है और भजन सिमरन भी करते हैं लेकिन मन में बदले में कुछ सांसारिक कामना रखते हैं और जिसके अंदर सांसारिक कामना हो वो ना मुक्त हो सकते और ना ही परमात्मा के प्रति प्रेम।
शिष्य ने कहा चौथे प्रकार की मछलियां और लोग किस तरह है ?
महात्मा ने कहा कुछ मछलियां इस जाल में फंसती नहीं है वो अन्नय प्रेम लक्षणा भक्त हैं सदेव परम सत्य की चाह रखने वाले वो जान्ते है यह जाल कैसा है, संसार महासागर है उसके अंदर रज,तम ओर सत रूप में मायाजाल है जो निरन्तर परमात्मा के सत्य के भी सत रूप को धारण किय रहते हैं वो इसके सतगुण के मायाजाल में भी नहीं फंसते है।

प्रणाम जी

धर्म के व्यापार से सावधान

आज के युग मे सतगुरू पाना बहोत मुशकिल है सब भेस बना कर अपने को गुरू कहलाने पे तुले हैं परमात्मा की जगह अपनी पूजा करवाते है..वेश से ही बैरागी बने है इन्होने वैराग का अर्थ ही बदल दिया है..इन्होने अपनी अग्यान्ता में दुनिया को डुबो दिया है..बाहर से अपने को शितल दिखाने का प्रयास करते है पर अन्दर विषय विकारो की अग्नि प्रबल दहक रही होती है..
से लोग परमात्मा के गुण गाके उसके नाम पे दान मांगते है उनको जरा अन्तर मन मे विचार करना चाहिय की कया वो भगवान को बेचने की दुकान नही चला रहे..अपने पेट के लिय कया उन्हे यही रोजगार मिला ? ऐसे लोगो के मृतयु के बाद यमराज उनके मुह पर मारता हुआ लेके जायगा..ऐसे लोग सतगुरू होकरबैठ जाते है अनेको शिष्य बना लेते है खुद तो अंधेरे कुय मे गिरते है औरो को भी डालते हैं..

जो अंदर से निर्मल होगा वो बाहर से दिखावा नही करेगा वो परमात्मा को अपने अंदर ही छुपा के रखता है केवल उसी को पारब्रह्म की पहचान है जिसने अपने हरदय में परमात्मा को लिया उसे बाहर दिखावे से परहेज होता है केवल ऐसे लोगो की ही संगत करनी चाहिय ..केवल उनही के ग्यान को ध्यान पूर्वक सुन्ना चाहिय..

सतगुरु क्योम पाइये कुली में, भेखे विगाड्यो वैराग।
डिंभकाइये दुनियां ले डुबोई, बाहर शीतल माहें आग ॥

गोविद के गुण गाय के, ता पर मांगत दान ।
धिक धिक पडो सो मानवी, जो बेचत है भगवान ॥

उदर कारण बेचें हरि को, मूंढो ये ही पायो रोजगार ।
मारते मुख ऊपर, बाको ले जासी यम द्वार ॥

बैठत सतगुरू होय के, आस करे शिष्य केरी ।
सो डूबे आप शिष्यण सहित, जाय पडें कूप अंधेरी ॥

जो माहें निरमल बाहर दे न दिखाई, वाको पारब्रह्म सों पहिचान ।
“महामत” कहें संगत कर वाकी, कर वाही सों गोष्ट ज्ञान ॥

प्रणाम जी

Saturday, December 12, 2015

परमतत्त्वबोध

सुप्रभात जी

नाम रूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः ।
अज्ञान मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वं न विद्यते ॥
(शिव स्वरोदय २६)
जब तक परमतत्त्वबोध नहीं हो जाता तब तक नाम-रूप आदि सभी भ्रम मिथ्या हैं और अज्ञान जनित मूढ़ता भी तभी तक है |

जब तक तुम्हे परम तत्व याने परमात्मा और आत्मा की सत्यता और उनके सुप्रभात जी

नाम रूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः ।
अज्ञान मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वं न विद्यते ॥
(शिव स्वरोदय २६)
जब तक परमतत्त्वबोध नहीं हो जाता तब तक नाम-रूप आदि सभी भ्रम मिथ्या हैं और अज्ञान जनित मूढ़ता भी तभी तक है |

जब तक तुम्हे परम तत्व याने परमात्मा और आत्मा की सत्यता और उनके एकत्व भाव का बोध नही हो जाता तब तक मन में दूैतभाव प्रबल रूप से अपना खेल करता रहेगा तुम भ्रमित होकर नाम जाप मे उलझे रहोगे और मन से रूप बनाकर या ग्रन्थो में दिय शब्द रूप को ही सत्य मान कर उस असत्य का ही ध्यान करोगे और कालआंतर तक मन के दुैतभाव के खेल में ही उल्झे रहोगे..इसलिय परमात्मा और आत्मा के सत्य एकत्व का बोध होना आवश्यक जो किसी के भी बताने से नही आयगा खुद की खोज करनी होगी..

ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२५)

ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुषअद्वितीय आनन्दरूपब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है ..satsang links 👇
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प्रणाम जीका बोध नही हो जाता तब तक मन में दूैतभाव प्रबल रूप से अपना खेल करता रहेगा तुम भ्रमित होकर नाम जाप मे उलझे रहोगे और मन से रूप बनाकर या ग्रन्थो में दिय शब्द रूप को ही सत्य मान कर उस असत्य का ही ध्यान करोगे और कालआंतर तक मन के दुैतभाव के खेल में ही उल्झे रहोगे..इसलिय परमात्मा और आत्मा के सत्य एकत्व का बोध होना आवश्यक जो किसी के भी बताने से नही आयगा खुद की खोज करनी होगी..

ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।
(विवेक चूड़ामणि—२२५)

ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुषअद्वितीय आनन्दरूपब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है ..satsang links 👇
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प्रणाम जी

बुल्ले शाह

बुल्ले शाह
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इश्क दी नवियों नवीं बहार,
फूक मुसल्ल भन सिट लोटा,
न फड़ तस्बी कासा सोटा,
आलिम कहन्दा दे दो होका,
तर्क हलालों खह मुर्दार।
परमात्मा याने इश्क तो हमेशा नया नया आनंद देने वाला होता है, और उस इश्क को पाना है तो..आसन फूको, लोटा फेंक के तोड़ दो, जपमाला, प्याला, और दंड न पकड़ो, मैं ऊंची आवाज में कहता हूं की सब तरह के असत को छौड़ दो कयोंकी चाहे किसी रूप में भी हो असत तो असत है..
उमर गवाई विच मसीती,
अन्दर भरिया नाल पलीती,
कदे नमाज़ वाहदत ना कीती,
हूण कियों करना ऐं धाड़ो धाड़।
तूने मस्जिद में उम्र गंवा दी, पर तेरा अंतःकरण अभी भी वैसा ही मैला ही है.. , परमात्मा से जुडऩे के लिए कभी उसको नही ध्याया, फिर तू अब क्यों रोता है।
जां मैं सबक इश्क दा पढिय़ा,
मस्जिद कोलों जिवड़ा डरिया,
भज भज ठाकर द्वारे वडिय़ा,
घर विच पाया माहरम यार।
जब मैने परमात्मा प्रेम का पाठ पढ़ा, जड से बने मंदिरो व मस्जिदो से मेरे जीव को डर लगने लगा,तब मैं वहा से भागा तो परमात्मा को अपने ही ह्रदयघर में पाया|
जा मैं रमज़ इश्क दा पाई,
मैं नां तूती मार गवाई,
अन्दर बाहर हुई फाई,
जित वल वेखां यारो यार।
जब परमात्मा के प्रेम का रहस्य जाना तब उसनें मैं-मैं, तू-तू को मार दिया, भीतर-बाहर की सफाई हो गई, सब तरफ उसे ही पाया।
वेद कुराना पढ़-पढ़ थक्के,
सिज्दे कर दियां घस गए मथ्थे,
न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के,
जिन पाया तिन नूर अँवार।
वेद-पुराण व कुरान आदी अनेक ग्रन्थ पढ़-पढ़ कर थक गए, भिखारी बनके उनके दर पर मत्था रगड रगड करके सिर भी घिस गए, परमात्मा न तीर्थ में मिला और न ही मक्के में, जिसनें पाया उसे पता है की वो आनंद का अपार नूर है |
इश्क भुलाया सिज्दे तेरा,
हूण कियों आईवें ऐवैं पावें झेड़ा,
बुल्ला हो रहो चुप चुपेरा,
चुक्की सगली कूक पुकार।
तेरे प्रेम ने प्रार्थना भुला दी, अब झगड़ा करने को कया है? बुल्ला शातं होकर कह रहा है, सारी हाहाकार शान्त हो गई है ||
प्रणाम जी

Friday, December 11, 2015

नाव

सुप्रभात जी

हे जीव ! तुम्हारे द्वारा धारण किये गये शरीर (नाव)की उम्र ज्यादा हो गयी है। लौकिक कार्यों का उत्तरदायित्व भी बहुत अधिक है। विषय-विकारों की ऐसी तेज हवा बह रही है जो अपने झोंकों से मन को अशान्त बना रही है। ऐसी अवस्था में तूं  परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जा। समर्पण ( पतवार ) के सहारे ही तूं परब्रह्म की कृपा का पात्र बनेगा और भवसागर से पार होगा। तूं शीघ्र-अति शीघ्र अपनी अज्ञानता की नींद को छोड़कर परमात्मा के प्रेम में दौड़ लगा।
संतगुरू नानक जी के पास सतसंग में एक लड़का प्रतिदिन आकर बैठ जाता था।
एक दिन नानक जी ने उससे पूछाः "बेटा ! कार्तिक के महीने में सुबह इतनी जल्दी आ जाता है, क्यों ?
"वह बोलाः "महाराज ! क्या पता कब मौत आकर ले जाये ?
"नानक जीः "इतनी छोटी-सी उम्र का लड़का ! अभी तुझे मौत थोड़े मारेगी ? अभी तो तू जवान होगा, बूढ़ा होगा, फिर मौत आयेगी।
"लड़काः "महाराज ! मेरी माँ चूल्हा जला रही थी। बड़ी-बड़ी लकड़ियों को आगने नहीं पकड़ा तो फिर उन्होंने मुझसे छोटी-छोटी लकड़ियाँ मँगवायी। माँ ने छोटी-छोटी लकड़ियाँ डालीं तो उन्हें आग ने जल्दी पकड़ लिया। इसी तरह हो सकता है मुझे भी छोटी उम्र में ही मृत्यु पकड़ ले। इसीलिएमैं अभी से सतसंग में आ जाता हूँ।

जल्दी से परमात्मा का ध्यान करके जीवन सफल बना लो इन स्वांसो से बडा दगाबाज कोइ नही है ..कहीं बाद मे पछताना ना पडे..
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प्रणाम जी

परब्रह्म और प्रेम

ब्रह्म इस्क एक संग, सो तो बसत वतन अभंग।
ब्रह्मसृष्टी ब्रह्म एक अंग, ए सदा आनंद अतिरंग।।

परब्रह्म और प्रेम (इश्क) दोनों एक ही हैं। और सत्य प्रेम का मूल निवास अखण्ड परमधाम में है ,इस संसार मे प्रेम नही है याहां स्वार्थ को ही प्रेम का नाम दिया गया है.. परमात्मा की आत्मायें  भी उनसे अभिन्न हैं और उन्हीं की अंगरूपा हैं। इनकी परमात्मा के साथ सर्वदा ही अनन्त प्रेम और आनन्द की लीला होती रहती है। कयोंकी परमात्मा सवंय प्रेम है और आत्माऐं उनका अंग है इसलिय आत्माओं को उनका प्रेम अनेक प्रकार से प्रवाहिक रूप मे मिलता रहता है ये थोडा गहन और मंथन का विषय है ..सवंय करें..
जिस प्रकार शक्कर में मिठास और सूर्य में तेज का गुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार परमात्मा परब्रह्म में प्रेम ओत-प्रोत है। प्रेम से अलग करके परमात्मा को देखा ही नहीं जा सकता। प्रेम का यह अखण्ड स्वरूप वस्तुतः परमधाम में ही है। जिस प्रकार लहरों के रूप में सागर का ही जल क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार आत्माओं के रूप में परमात्मा के हृदय में प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य आदि गुणों की ही लीला होती है। इसी प्रकार परमात्मा, प्रेम और आत्माओं को कभी भी अलग स्वरूप वाला नहीं कहा जा सकता..

प्रणाम जी

Wednesday, December 9, 2015

मन की पांच अवस्थाऐं

मन की इन पांच अवस्थाऐं

सुप्रभात जी

मन एक है, उसकी पाँच अवस्थायें हैं। जो समय-समय पर ऑटोमेटिक रूप से मौसम के कारण, खान-पान आदि परिस्थितियों के कारण, घटनाओं के कारणऋ और कुछ हमारे अपने विचारों से बदलती रहती हैं। इसलिए हमको सावधानी से प्रयोग करना है और अच्छी से अच्छी अवस्था बना के रखनी है।
1. क्षिप्त अवस्था :- मन की पहली अवस्था है- क्षिप्त अवस्था। क्षिप्त का अर्थ है-मन की चंचल स्थिति, चंचल अवस्था।
 मन की जब चंचल अवस्था होती है, उसका नाम है- क्षिप्त-अवस्था। हम मन में जल्दी-जल्दी विचारों को बदलते रहते हैं। आप पांच मिनिट बैठिये। मन में देखिए, आप फटाफट पचास विचार उठा लेंगे। वहाँ जाना है, यह करना है, उसको यह बोलना, उससे यह लेना है, उसको वो देना है, ये खरीदना है, वो काम करना है, अभी यह कर लूँ, यह खा लूँ, फिर वहाँ सो जाऊँ, फिर यूँ बात कर लूँ। फटाफट विचार बदलते रहना मन की ‘क्षिप्त-अवस्था’ है।
क्षिप्त अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है। चंचल-अवस्था में व्यक्ति जल्दी-जल्दी मन में विचार बदलता है, वो जल्दी-जल्दी स्मृतियाँ उठाता है। कभी इसको याद किया, कभी उसको याद किया, कभी और चीज याद की, कभी और चीज याद की।
2. मूढ़ अवस्था – दूसरी अवस्था है-मूढ़ अवस्था। जब तमोगुण का प्रभाव अधिक होता है, तब मूढ़ अवस्था उत्पन्न होती है। मूर्च्छा जैसी, थोड़ी नशीली, नशे जैसी अवस्था या तमोगुणी अवस्था मूढ़़ता प्रधान अवस्था है।
जैसे-थोड़ी नींद सी आ रही है, झटके आ रहे हैं, आलस्य आ रहा है। या कोई शराब पी लेता है तो नशे की स्थिति हो जाती है। ये सारी मूढ़-अवस्था कहलाती है। उस समय व्यक्ति का मन पूरा स्वस्थ नहीं होता। बु(ि काम नहीं करती, समझ नहीं आता है, उसको पता नहीं चलता, कि क्या करना, क्या नहीं करना। इस तरह की जो स्थिति है, उसको ‘मूढ़-अवस्था’ कहते हैं।
3. विक्षिप्त अवस्था- फिर तीसरी है- विक्षिप्त अवस्था। विक्षिप्त अवस्था में सत्त्वगुण प्रभावशील होता है, सत्त्व गुण प्रधान होता है। लेकिन बीच-बीच में रजोगुण और तमोगुण स्थिति को बिगाड़ते रहते हैं। जैसे कोई व्यक्ति ध्यान में दो-चार मिनट बैठा, उसका मन ठीक लगा। उसका मन थोड़ा-थोड़ा टिकने लगता है, फिर किसी कारण से वो ध्यान टूट जाता है, इसलिए उसकी एकाग्रता बिगड़ जाती है। इसको बोलते हैं-‘विक्षिप्त अवस्था’।
दो-चार मिनट बाद उसने फिर कोई वृत्ति उठा ली और वो स्थिति बिगड़ गई। इस बिगड़ी हुई अवस्था का नाम है- विक्षिप्त। विक्षिप्त का अर्थ ‘बिगड़ा हुआ’ होता है। इस तरह रजोगुण के कारण ध्यान की अवस्था जब बिगड़ती है, मन की शांत-स्थिर अवस्था जब बिगड़ती है, तब उसका नाम है- ‘विक्षिप्त अवस्था’।
4. एकाग्र अवस्था- फिर चौथी है- एकाग्र अवस्था। जिसमें पूरा सत्त्वगुण का प्रभाव होता है। अब रज और तम पूरे चुपचाप बैठ गए, ठंडे हो गए। अब वो बीच में गड़बड़ नहीं कर सकते। मन के ऊपर आत्मा का पूरा प्रभाव है, पूरा कंट्रोल है, पूरा नियंत्रण है।
‘एकाग्र-अवस्था’ का मतलब है, कि मन अब पूरा नियंत्रण में आ गया, पूरा अधिकार में आ गया। मन अब हमारी इच्छा के विरु( कहीं इधर-उधर नहीं जाता। जैसे पहले लगता था, कि हम विचार उठाना नहीं चाहते, फिर भी आ जाते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। अब तो हम जो चाहते हैं, वही विचार लाते हैं। इस अवस्था का नाम है-‘एकाग्र -अवस्था’।
 अब ”दिल है, कि मानता नहीं” वाली शिकायत खत्म हो गई। पहले शिकायत थी न, दिल है कि मानता नहीं, वो क्षिप्त अवस्था थी। और अब दिल पूरा मान लेता है, सौ प्रतिशत कंट्रोल में आ जाता है। इस अवस्था का नाम है- एकाग्र अवस्था। यानि अब सत्त्वगुण प्रबल है। व्यक्ति का मन के ऊपर वैसा ही कंट्रोल है, जैसा कार वाले का कार के ऊपर है। ऐसा ही आत्मा का मन के ऊपर जब पूरा कंट्रोल होता है, तो वो ‘एकाग्र-अवस्था’ है।
 इस अवस्था में जीव को समाधि में अपने स्वरूप की अनुभूति होती है और सूक्ष्म प्राकृतिक तत्त्वों की भी अनुभूति होती है। इस चौथी अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और आत्मा, इन दो चीजों का अनुभव होता है। इसका नाम एकाग्र अवस्था। इस अवस्था में एक समाधि होती है, उसको बोलते हैं-‘संप्रज्ञात- समाधि’ ।
5. निरूअवस्था :-मन की पाँचवी अवस्था है- निरू अवस्था। यह एकाग्र अवस्था से भी और ऊंची अवस्था है। इसमें भी मन पर पूरा नियंत्रण होता है। इसमें भी एकाग्र की तरह से ही मन पर पूरा कंट्रोल है तो एकाग्र में और निरू में अंतर क्या है? अंतर इतना है, एकाग्र अवस्था में प्राकृतिक तत्त्वों और जीव, इन दो चीजों की अनुभूति होती है। लेकिन इस अवस्था में समाधि का विषय बदल जाता है। असंप्रज्ञात समाधि यानी निरूअवस्था में जीव के परमतत्व का अनुभव होता है। जब इस प्रकार की अनुभूति होती है, उस अवस्था का नाम है- निरू अवस्था। और उस समय जो समाधि होती है, उसका नाम है- ‘असंप्रज्ञात-समाधि’।
स इस तरह से मन की ये पांच अवस्थाऐं हैं। इनमें से चौथी और पांचवी एकाग्र और निरू इन दो अवस्थाओं में समाधि होती है, बाकी तीन में समाधि नहीं है।
 क्षिप्त और मूढ़ अवस्था तो खराब ही है। उनसे अच्छी तो है विक्षिप्त अवस्था। और इससे अच्छी है चौथी- एकाग्र अवस्था। और सबसे अच्छी है- निरू अवस्था।
अभ्यास में यही करना है। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ अर्थात् मन के विचारों को रोको। जैसे-जैसे रोकते जाएंगे, वैसे-वैसे हमारी स्थिति ऊँची-ऊँची होती जाएगी। जैसे-जैसे थोड़े-थोड़े विचार रुकेंगे, तो विक्षिप्त अवस्था आ जाएगी और जब पूरे विचार रोक देंगे तो समाधि शुरू हो जाएगी अर्थात एकाग्र अवस्था आ जाएगी। फिर आत्मा की अनुभूति हो जाएगी, तो निरू अवस्था आएगी। इस तरह से मन की बात समझनी चाहिए। मन एक ही है, दो तीन नहीं।
आत्म अनुभूती के बाद फिर सत्य विषय परारम्भ होगा...
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प्रणाम जी

Monday, December 7, 2015

आपकी इच्छा

सुप्रभात जी

आपने अपने आदेश (इच्छा) से ही यह खेल बनाया। हम भी इस खेल में आपकी इच्छा से ही आये। आपकी इच्छा से ही आपका दीदार होता है। यह बात तो पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि आपकी इच्छा के बिना कुछ है ही नहीं। परमात्मा के हृदय में होने वाली इच्छा (भाव) को ही इस संसार के शब्दों में हुक्म कहा गया है, जिसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। ।। परमात्मा के आदेश (हुक्म) से ही आत्मा के हृदय में प्रेम आता है। उनकी इच्छा ही उनके चरणों में अटूट ईमान (विश्वास) दिलाकर जागृत करती है। आचरण की कसौटी पर हुक्म ही खरा सिद्ध करता है। आपकी इच्छा के बिना तो कुछ है ही नहीं।
"हुकमें इस्क आवहीं, कदमों जगावे हुकम। करनी हुकम करावहीं, कछू ना बिना हुकम खसम"

प्रणाम जी

जागनी कया है ?

एही अपनी जागनी, जो याद आवे निज सुख ।
इसक याहीसों आवहीं, याहीसों होइए सनमुख ।।

जागनी कया है ? अर्थात आत्म जाग्रती किसे काहा जाये ? वाणी कहती है की जब हमे अपने ही आनंद प्राप्त होने लग जाये तो समझो कि आतमा जाग्रत हो गयी है तब हमे खुद के मुलयान्कन कि आवयश्कता भी नही होगी कयोंकी उस वक्त हमे वो सुख मिलने आरम्भ हो जायेंगे तो तो हम मुलयान्कन की बजाये आनंद मे डूबे रहेंगे ..याहा ये भी ध्यान देने योग्य बात है की जागनी तब है जब निज सुख याने खुद के सुख याद अये ना की किसी बस्तु से हम सुख ले ..कयोंकि वो निज सुख नही है ,जैसे अगर हम परमधाम का वर्णन पढ़ रहे है तो हमे पढ़ने को मिलता है कि हीरे सा मन्दिर सुन्दर नक्कासियां कमर भर उन्चा चबुतरा ..साथ जी ये सब तो याहां की बाते है वाहां जो है वो आपका खुद का आनद है ये किसी के बताने से केसे मिलेगा ये तो तभी मिलेगा जब आप खुद उसको अनुभव करोगे वरना सुन्दर नक्कासियां कमर भर चबुतरा, गिलम ,नो भोम आदी तो आपको इस संसार मे भी बोहोत सुंदर मिल जायेंगे..इसलिये खुद कि आतम जब जाग्रत होगी तभी निजसुख मिलेनगे तभी प्रमात्मा से सच्चा प्रेम का अर्थ पता चलेगा..तभी पता चलेगा की प्रमात्मा के सन्मुख होना कया होता है.
जब खुद पता करोगे तभी होगा वरना तो सब किताबी बाते है पढते रहो सारी उम्र ..ढुंडते रहो आनंद ..जब तक आत्म जाग्रति का अर्थ ही नही जानोगे तो अभाव या प्रभाव में ही समय निकलता रहेगा..

प्रणाम जी

Sunday, December 6, 2015

हे साधूजन..

सुप्रभात जी

हे साधूजन तुमने लोक-लज्जा तथा कर्मकाण्ड की मर्यादाओं को छोड़कर ज्ञानी कहलाने की शोभा पाई है । गृहस्थी की छोटी आग को तो तुमने बुझा दिया, किन्तु महन्ती (गद्दी) तथा मान सम्मान पाने की लालसा की दूसरी बड़ी आग को गले से लिपटा लिया । भाव यह है की गृहस्थ जीवन में सामाजिक मर्यादाओं तथा धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकाण्डों का पालन करना पड़ता है । सच्चा विरक्त एवं ज्ञानी वही है जो इन सबका मन से परित्याग कर दे । महन्त बनने के बाद सांसारिक प्रतिष्ठा एवं शिष्यों की संख्या बढ़ाने का मोह और अधिक बढ़ जाता है, जो गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भी अधिक बन्धन वाला होता है । इसे ही बड़ी आग कहा गया है । इनसबसे प्रयत्न पुर्वक मन से विरक्त होकर अन्नय परेम लक्षणा भक्ति दूारा केवल पारब्रह्म को पाना ही हमारा लक्षय होना चाहिय..

प्रणाम जी

निजनाम सोई जाहेर हुआ,

निजनाम सोई जाहेर हुआ, जाकी सब दुनी राह देखत।
मुक्त देसी ब्रह्मांड को, आए ब्रह्म आतम सत।।

निजनाम का अर्थ याहां कोइ नाम के लिये नही बल्कि पहचान के लिये किया गया है अगर निजनाम का अर्थ यहां मन्त्र लिया गया तो सारा अर्थ नवधा भक्ति कि ओर चला जायेगा इसलिये याहा नाम का अर्थ मंत्र नहि बलकि पहचान है..इसका मूल भाव यह है की अब वो पारब्रह्म जिसको याहां के वेद पुराण आदि ग्रंथ खोज खोज के थक गये थे अब वो इस कलयुग मे जाहीर हो गये अर्थात अब उनकी पहचान इस कलयुग मे प्रकट हो गयी है जिसकी सब दुनिया राह देख रही थी..अब उनकी पहचान करके पूरा ब्रह्मांड मुक्त हो सकेगा कयोंकि इस असत मे सत्ये ब्रह्म की सत्ये आत्मांये प्रकट हो चुकी है जिनके सतये ग्यान से ये पूरा ब्रहमानड सत्ये को प्राप्त कर सकेगा..
(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय ४ में कहा गया है कि कभी न होने वाले वे ब्रह्ममुनि कलियुग में अवतरित होंगे, जो एकमात्र सत्य के आश्रय मे रहेंगे व केवल सत्य को धारण करने वाले होंगे)इसलिय ये ब्रह्मांड भी उनके सत्य ग्यान से सत्य को पा सकेगा..

प्रणाम जी

Saturday, December 5, 2015

मन की बात

हमने इस संसार में बडा तमाशा देखा की लोग विष की नदि मे से विष उठा कर कहते हैं की सब विष है पर ये अमृत है..
अनन्यभाव बहोत गहरा है हम नही जान पायेंगे कयोंकी हम पहले से "अनन्य" हैं..

प्रणाम जी

Friday, December 4, 2015

सार नही है यहां

सुप्रभात जी

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि।उनकी पत्नी अत्यंतरूपवती थीं।भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतकके नाम से प्रसिद्ध हैं।

उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबेसमयतक जी कर क्या करनाहै। हमारा राजाबहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वहफल उन्हें दे आया।
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिरमन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देताहूं।वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तकउसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।
लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल पे आस्कत थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी नेकहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे । फल लेकर कोतवालजब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठही प्रेम का नाटक करनापड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहींटालती। मैं उससे प्रेमभी करता हूं। और यदि वहसदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी अपनी कला से सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचापवह अमर फल अपने पासरख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है, उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुनाकर उसे राजाको दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रहगया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तब उन्हे पता चल गया की सब रिश्ते स्वार्थ के है संसार में कोइ सार नही है सब अपना सुख चाहते हैं...तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
वे कहते हैं—
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव
तप्ताः ।
कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा
वयमेव जीर्णाः ॥
भर्तृहरि का कथन है कि हमने भोगों को नहीं भोगा , बल्कि भोगों ने ही हमें भोग डाला । हमने तप नहीं किया बल्कि त्रिविध तापों ने ही हमे तपा डाला । काल की अवधि नहीं बीती , बल्कि हमारी ही उम्र बीत गई । तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई , बल्कि हम ही बूढ़े हो गए । ( वैराग्य शतक ८ )
 जिसके पास सम्पूर्ण भारत का साम्राज्य था, समस्त भोग, वैभव थे ऎसे सम्राट भरथरी को भी बाहर सुख न मिला और तू बाहर के पदार्थो के लिए दीवाना हो रहा है ? तू भी भरथरी और राजकुमार उद्दालक की भांति विवेक करके आनंदस्वरुप की ओर क्यों नहीं लौटता ?”

राजकुमार उद्दालक युवावस्था में ही विवेकवान होकर पर्वतों की गुफाओं में जा-जाकर अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू किसलिए मुझे अधिक भटकाता है ? तू कभी सुगंध के पीछे बावरा हो जाता है, कभी स्वाद के लिए तडपता है, कभी संगीत के पीछे आकर्षित हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर दिया । क्षणिक विषय-सुख देकर तूने मेरा आत्मानंद छीन लिया है, मुझे विषय-लोलुप बनाकर तूने मेरा बल, बुद्धि, तेज, स्वास्थ्य, आयु और उत्साह क्षीण कर दिया है ।
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प्रणाम जी

Thursday, December 3, 2015

मुण्डकोपनिषद् १/२/८

सुप्रभात जी

अविद्यायामंतरे वर्तमाना: स्वयंधीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जंघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८)
व्याख्या:- जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मूर्खो को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में अपराविद्या को सबकुछ समझ कर और "परा विद्या" की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते है।

प्रणाम जी

Wednesday, December 2, 2015

परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?

परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?

सुप्रभात जी
ब्रम्हाजी ने नारद से कहा-------

यस्यावतार कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः।

न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः।।

‘हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गुणगान ही किया करते हैं, किन्तु उनके ‘तत्त्व’ को नहीं जानते---उन श्रीभगवान् के श्रीचरणों में हम नमस्कार करते हैं।‘
(श्री मद् भागवत् महापुराण २/७/३७)

परमात्मा या अल्लाहतआला या गॉड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से सम्बंधित ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान सत्यरूप से लेकर वर्तमान समय (कलियुग) तक परम रहस्य बना हुआ चला आ रहा है। परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?

परमात्मा कौन है? ----
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)

पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व) से परे बेहद, उससे परे अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत कहते हैं ।

उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)

उसका रूप क्या है?---

वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ ) । इस मंत्र में अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को नित्य तरुण ( युवा स्वरूप वाला ) कहा गया है, किन्तु उसका शरीर मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर के लक्षणों से सर्वथा विपरीत है । ब्रह्म के युवा स्वरूप वाले शरीर में हड्डी, माँस, रस, रक्त तथा नस-नाड़ियाँ नहीं हैं । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें नहीं होती है और क्षुधा भी उसको नहीं सताती है । न उसमें रंच मात्र भी ह्रास होता है और न विकास । अनादि काल से उसका स्वरूप वैसा ही है और अनन्त काल तक रहेगा ।

वेदों में अन्य मन्त्रों में ब्रह्म के लिए शुक्र (नूर) , भर्गः , आदित्यवर्णः , कान्तिमान , मनोहर , प्रकाशमान , आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है ।

वह कहाँ रहता है?-----

सामवेद में कहा है कि जो अपने गृह रूपी चेतन धाम में सम्यक् प्रदीप्त होकर चमकता है उस अत्यन्त तरुण, अद्भुत प्रभा वाले, अपने चेतन धाम में सर्वत्र व्यापक, महान, पृथ्वी और द्युलोक के बीच उत्तम प्रकार से स्तुति किए गए ब्रह्म को हम महानम्रता द्वारा प्राप्त हुए हैं (साम. ५/८/९/१) । जो ब्रह्म का स्वरूप है, वही उसके धाम का भी स्वरूप है । अक्षरातीत पूर्णब्रह्म का स्वरूप जिस प्रकार नूरमयी और प्रेममयी है, उसी प्रकार सम्पूर्ण परमधाम भी नूरमयी और प्रेममयी ही है ..

न तत्र सूर्यों भाति न चन्द्रकारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोsयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं विभाति ॥
(वेद)
व्याख्या—परमब्रम्ह परमेश्वर के परमधाम में सूर्य नहीं प्रकाशित होता। चन्द्रमा, तारा बिजली भी वहाँ नहीं चमकते फिर इस लौकिक अग्नि की तो बात ही क्या, क्योंकि प्राकृत जगत में जो कुछ भी प्रकाशशील है, सब उस परमब्रम्ह परमेश्वर की प्रकाश शक्ति के अंश को पाकर ही प्रकाशित है।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/६)
उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही मेरा परमधाम है...
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प्रणाम जी

असत मंडलमें सब कोई भूल्या..

असत मंडलमें सब कोई भूल्या, पर अखंड किने न बताया ।
नींदका खेल खेलत सब नींदमें, जागके किने न देखाया ।।

यहां सब जीव व आत्मायें अपने को सत्य ना जान कर खुद को असत्य ही मानने लगे है कयोंकी खुद को नही जानते और और असत्य से पार का प्रयास भी नही करते कयोंकी असत्य में सुख खोजने में इतने व्यस्त हो रहे हैं की आनंद को खोजना ही नही चाहते इसलिय इस असत मंडल में सब भूले हुय खेल रहे हैं यही कारण है की अखंड याने सत्य को बताने वाला यहां कोइ भी नही है..ये सब संसार नीदं का ही खेल है सब नींद मे ही खेल रहे हैं कीसी ने भी जाग के नही बताया की परम सत्य का भी सत्य कया है कयोंकी जो जाग गया है उसे नींद का आभास  नही रहता और जो नींद में हैं उन्हे जागने वाले कैसे दिखेंगे वो तो नींद वालो को ही पहचान पायेगा..
तुम इसी को विचारो कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? ऐसे विचार से असत्य का त्याग करो और सत्य का आश्रय करो । जो पदार्थ आदि में न हो और अन्त में भी न रहे उसे मध्य में भी असत्य जानिये । जो अनाआदि है, और अनन्त एकरस है उसको सत्य जानिये और जो आदि अन्त में नाशरूप है उसमें जिसको प्रीति है और उसके राग से जो रञ्जित है वह मूढ़ पशु है, उसको विवेक का रंग नहीं लगता ।

प्रणाम जी

Tuesday, December 1, 2015

शुक्ष्म भेद

जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है वह सुख दुःख नही भोगता बल्कि शुक्ष्म शरीर भोगता है वही खेल में फसता है व् खेल खेलता है ..जीव नारायण से ही बने व उसी का चिदाभास है..
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव से ही शरीर में प्राण है इसलिए कई जगह इसे आत्मा भी मान लिया जाता है और कई लोग इसे जीव आत्मा भी कहते है जीव भी मात्र द्रष्टा रूप में रहता है पर अपनी अन्मुक्त अवस्था में शुक्ष्म शरीर के साथ रहता है  उसी केसाथ शरीर छोड़ता  व् धारण करता है इसलिए इसे पराधीन भी कह देते है पर शुक्ष्म रूप से ऐसा नही है ..इसलिय आम तोर पर शुक्ष्म शरीर को भी जीव कहा जाता है वाणी में कहा है ..
""यामें जीव दोय भाँतके, एक खेल दूजे देखन हार ""

श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है । यथा,

द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता है ।

इसलिए आम बोलचाल के भाव में हम कह देते है की जीव करता है जबकि शुक्ष्म रूप में वो करता व् भोक्ता नही है ..करता व् भोक्ता शुक्ष्म शरीर है ..
मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है, सूक्ष्‍म शरीर नहीं।
अनाहत चक्र (-हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है, जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु  निकल कर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है। उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और जीवित अवस्था में वह शरीर स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।
कभी ऐसा भी अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल गया अर्थात जीवात्मा शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही योगी उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। स्थूल शरीर मैं ही हूँ ऐसी भावना करने से  वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है।
हठ योगी शरीर को छोड़कर पुनः प्रवेश कर सकता है। शरीर को छोड़ने पर भी वह सूक्ष्म  शरीर धारण किये रहता है। अक्सर योगी-संतजन  एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं...
जीव अपने शुद्ध रूप में नारायण का प्रतिभास है जिसपर परमधाम की आत्मायें आयी हैं ..शुक्ष्म शरीर के साथ दो शरीर और हैं कारण और माहाकारण जीनका अपना अलग विषय है आज इनकी चरचा नही करेंगे..आत्मा कैसेे इन जीवो पर बैठी है ये भी शुक्षम भेद है ..पर इसका चिंतन आप खुद ही करें तो ज्यादा बेहतर है..
मोटे तौर पर समझने की बात केवल ये है की हम ब्रह्मआत्मायें इनजीवों पर बैठ कर खेल देख रहे हैं और हमें जाग्रत होकर अपने धर जाना है..
शुक्ष्म रूप बहोत गहन व अन्नत है कीसी के बताने या समझाने से नही होगा केवल खुदका अनुभव ही काम आयेगा इसलिय केवल पारब्रह्म का सहारा लें.

प्रणाम जी