Tuesday, February 27, 2018

एक माता जी ने आते ही पूछा था कि 'क्या दुख मिटाया जा सकता है?' मैं उन्हें देखता हूं, वे दुख की प्रतिमा मालूम होती हैं।

और सारे लोग ही धीरे-धीरे ऐसी ही प्रतिमाएं होते जा रहे हें। वे सभी दुख मिटाना चाहते हैं, पर नहीं मिटा पाते हैं, क्योंकि दुख निदान जो वो कर रहे हैं वो सत्य नहीं है।
चेतना की एक स्थिति में दुख होता है। वह उस स्थिति का स्वरूप है। उस स्थिति के भीतर दुख से छुटकारा नहीं है। कारण, वह स्थिति ही दुख है। उसमें एक दुख हटायें, तो दूसरा आ जाता है। यह श्रंखला चलती जाती है। इस दुख से छूटें, उस दुख से छूटें, पर दुख से छूटना नहीं होता है। दुख बना रहता है, केवल निमित्त बदल जाते हैं। दुख से मुक्ति पाने से नहीं, चेतना की स्थिति बदलने से ही दुख समाप्त होता है- दुख-मुक्ति होती है।
एक अंधेरी रात गौतम बुद्ध के पास एक युवक पहुंचा , दुखी, चिंतित, संताप ग्रस्त। उसने जाकर कहा , 'संसार कैसा दुख है, कैसी पीड़ा है!' गौतम बुद्ध बोले थ,'मैं जहां हूं, वहां आ जाओ, वहां दुख नहीं है, वहां संताप नहीं है।'

एक चेतना है, जहां दुख नहीं है। इस चेतना के लिए ही बुद्ध बोले थे, 'जहां मैं हूं।' मनुष्य की चेतना की दो स्थितियां हैं, अज्ञान की और ज्ञान की, पर की और स्व-बोध की। मैं जब तक 'पर' से संबंध कर रहा हूं, तब तक दुख है। यह पर-बंधन ही दुख है। 'पर' से मुक्त होकर 'स्व' को जानना और स्व में होना दुख-समाप्ति है। मैं अभी स्वयं नहीं हूं, इसमें दुख है। मैं  जब समाप्त होकर केवल "है" होता है, तब दुख मिटता है।

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Sunday, February 25, 2018

एक पूर्णिमा की रात्रि कुछ लोग शराब पीकर नदी-तट पर नौका विहार को गये थे। उन्होंने एक नौका को लिया, अर्ध-रात्रि से प्रभात तक वे अथक पतवार चलाते रहे थे। सुबह सूरज निकला, ठंडी हवाएं बहीं तो उनकी नशे की मूर्च्छा टूटने लगी। उन्होंने सोचा कि अब वापस लौटना उचित है। यह देखने के लिए कि कहां तक चले आये हैं, वे नौका से तट पर उतरे। पर तट पर उतरते ही उनकी हैरानी की सीमा न रही, क्योंकि उन्होंने पाया कि नौका वहीं खड़ी है, जहां रात्रि उन्होंने उसे पाया था!
रात्रि वे भूल ही गये थे कि पतवार चलाना भर पर्याप्त नहीं है, नौका को तट से खोलना भी पड़ता है।
बुढ़ापे में भी लोग यही कहते है कि मैं जीवन भर चलता रहा हूं, लेकिन अब अंत में ऐसा लगता है कि कहीं पहुंचना नहीं हुआ। मनुष्य मूिर्च्छत है। जो स्वयं को नहीं जानता यह उसकी मूच्र्छा है।
इस विवेक-शून्य स्थिति में वह चलता है, जैसे कोई निद्रा में चलता है, पर कहीं पहुंच नहीं पाता है। नाव की जंजीर जैसे तट से बंधी रह गयी थी, ऐसे ही इस स्थिति में वह भी कहीं बंधा रह जाता है।
इस "नहीं" के बंधन को धर्म ने वासना कहा है। "नहीं" से बंधा मनुष्य, आनंद के निकट पहुंचने के भ्रम में बना रहता है। पर उसकी दौड़ एक दिन मृग-मरीचिका सिद्ध होती है। वह कितनी ही पतवार चलाये, उसकी नाव अतृप्ति के तट को छोड़ती ही नहीं है। वह रिक्त और अपूर्ण ही जीवन को खो देता है। वह जीवन जिसमें यात्रा पूरी हो सकती थी, व्यर्थ हो जाता है और पाया जाता है कि नाव वहीं की वहीं खड़ी है।

प्रत्येक नाविक जानता है कि नाव को सागर में छोड़ने के पहले तट से खोलना पड़ता है। प्रत्येक मनुष्य को भी जानना चाहिए कि आनंद के, पूर्णता के, प्रकाश के सागर में नाव छोड़ने के पूर्व तट "नहीं" रूपी मान्यता की जंजीरें अलग कर लेनी होती हैं। इसके बाद तो फिर शायद पतवार भी नहीं चलानी पड़ती है! रामकृष्ण ने कहा है, 'तू नाव तो छोड़, पाल तो खोल, वास्तविक आनंद की हवाएं प्रतिक्षण तुझे ले जाने को उत्सुक हैं।'

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Thursday, February 22, 2018

एक युवक आकर बोला..मैं अपनी आस्था खो चुका हूं, मैं एक स्वप्न में था, वह जैसे खंडित हो गया है। परमात्मा का साथ मालूम होते था, अब अकेला रह गया हूं और बहुत घबराहट होती है। इतना असहाय तो मैं कभी भी नहीं था।

यही विडंबना बोहोत से लोगो की है..

मैं कहता हूं : जो नहीं था, केवल वही छीना जा सकता है। जो है, उसका छीनना संभव नहीं है। स्वप्न और कल्पना के साथ से एकाकीपन मिटता नहीं है, केवल मूच्र्छा में दब जाता है। परमात्मा की कल्पना और मानसिक चिंता से मिला आनंद वास्तविक नहीं है। वह सहारा नहीं भ्रांति है। और भ्रांतियों से जितनी जल्दी छुटकारा हो, उतना ही अच्छा है। ईश्वर को वस्तुत: पाने के लिए समस्त मानसिक धारणाओं को त्यागना पड़ता है। और इन धारणाओं में परमात्मा की धारणा भी अपवाद नहीं है। वह भी छोड़नी पड़ती है। यही त्याग है और यही तप है। क्योंकि स्वप्नों को छोड़ने से अधिक कष्ट और किसी बात में नहीं है।
कल्पना, स्वप्न और धारणाओं के विसर्जन पर, 'जो है' वह अभिव्यक्त होता है। निद्रा टूटती है और जागरण आता है। फिर जो पाना है, वही वास्तविक पाना है, क्योंकि उसे कोई छीन नहीं  सकता है। वह किसी और अनुभूति से खंडित नहीं होता है, क्योंकि वह परानुभूति नहीं, स्वानुभूति है। वह किसी दृश्य का दर्शन नहीं, स्वयं आनंद में होना है। आनंद की काल्पनिक धारणा और आस्था खो गयी है, तो घबराओ मत। यह शुभ ही है।

सब धारणाएं खो दो और फिर देखो। तब जो दिखाई पड़ता है, वही आनंद है।

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Tuesday, February 20, 2018

एक लड़की रो रही थी। उसकी गुडि़या टूट गई थी। और अब मैं सोचता हूं कि सबका रोना क्या गुडि़यों के टूट जाने के लिए ही रोना नहीं है।

कल शाम एक वृद्ध आये थे। उन्होंने जीवन में जो चाहा था, वह नहीं हो सका। वे उदास थे एक महिला आज मिली थीं और बातें करते-करते आंसू पोंछ रही थी। उन्होंने स्वप्न देखे थे और वे सत्य नहीं हुए हैं। और अब यह लड़की गुड़िया के लिए रो रही है। क्या लड़की की आंखों में आंसु वैसे ही नहीं है जो सबके आंखो में हैं । उसे कोई समझा रहा है कि आखिर गुडि़या ही तो है, उसके लिए रोना क्या है! यह सुन मुझे हंसी आ गयी है। काश, मनुष्य इतना ही जान ले तो क्या समस्त दुख समाप्त नहीं हो जाते?
गुडि़या-बस गुडि़या है, यह जानना कितना कठिन है!

मनुष्य मुश्किल से इतना प्रौढ़ हो पाता है कि यह जान सके। शरीर का प्रौढ़ होना एक बात है, मनुष्य का प्रौढ़ होना बिलकुल दूसरी बात है। प्रौढ़ता क्या है? मनुष्य की प्रौढ़ता मन से मुक्त होना है। मन जब तक है, तब तक गुडि़यों को बनाता रहता है। मन से मुक्त होते ही गुडि़यों से मुक्ति होती है।

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Monday, February 19, 2018

'मैं साधक हूं। आध्यात्मिक साधना में लगा हूं। क्रमश: गति होती जा रही है, एक दिन प्राप्ति भी हो जाने को है।'
एक साधु ने एक दिन मुझ से यह कहा था। उनके शब्दों में मुझे साधना नहीं, वासना ही लगी थी। ऐसी साधना भी बधा है। जो है, उसे पाने का अभ्यास क्या करना है! उसे पाना भी तो नहीं, यह जानना है कि वह खोया ही नहीं गया है। और उसे पाने का अभ्यास इस सत्य को छिपा देता है। उसके मूल में भी वासना है और कुछ पाने और कुछ बदलने की आकांक्षा है। मैं जो हूं, उसे बदलना है। समस्त इच्छाओं के मूल में यही द्वंद्व होता है, यही द्वैत होता है। यह द्वैत ही जगत है और दुख है।
मैं कहता हूं, 'आप जो हो, उससे जरा भी कुछ और होने की आकांक्षा यदि है, तो आप 'जो हो' उसके विपरीत जा रहे हो।' और 'जो है'- वही मार्ग है। 'जो है'- उसके प्रति जागते ही जीवन एक सहजता और सौंदर्य से भर जाता है। वास्तविक सत्य एक अभ्यासी को कभी उपलब्ध नहीं होता है। उसमें एक हिंसा, एक दमन और कुछ 'होने' की वासना के लक्षण उसके मूल बोध को नष्ट कर देते हैं।

फिर क्या करें? कुछ भी नहीं। न करना, कुछ भी न करना ध्यान है। कर्म में आत्मा नहीं है, विचार में आत्मा नहीं है। कर्म और विचार के बाहर होते ही वह आविष्कृत हो जाता है। सब छोड़ दो, सब मिट जाने दो, सब विलीन हो जाने दो। और फिर इस 'न-कुछ' में, इस शून्य में जो दिखता है, वही सब-कुछ है।

सब छोड़ने का अर्थ पलायन नहीं है, छोड़ना भी कुछ नहीं है क्योंकि तुमने कुछ पकड़ा ही नहीं है..

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Sunday, February 18, 2018

एक युवक ने किसी साधु से पूछा था, 'मोक्ष की विधि क्या है?' उस साधु ने कहा, 'तुम्हें बांधा किसने है?' वह युवक एक क्षण रुका, फिर बोला, 'बांधा किसी ने भी नहीं है।'

तब उस साधु ने पूछा, 'फिर मुक्ति क्यों खोजते हो?'

'मुक्ति क्यों खोजते हो?' यही प्रत्येक को अपने से पूछना है। बंधन है कहां? जो है, उसके प्रति जागो। जो है, उसको बदलने की फिक्र छोड़ो। जो भविष्य में है, वह नहीं, जो वर्तमान है, वही तुम हो। और वर्तमान में कोई बंधन नहीं है। वर्तमान के प्रति जागते ही बंधन नहीं पाये जाते हैं।

कुछहोने और कुछ पाने की आकांक्षा ही बंधन है, वही तनाव है, वही दौड़ है, वही संसार है।

मोक्ष की शुरुआत अभी से करनी होती है। वह अंत नहीं, वही प्रारंभ है।

मोक्ष पाना नहीं है, वरन् दर्शन करना है कि मैं मोक्ष में ही खड़ा हूं। मैं मुक्त हूं, यह बोध शांत जाग्रत चेतना में सहज ही उपलब्ध हो जाता है। प्रत्येक मुक्त है- केवल इस सत्य के प्रति जागना मात्र है।

मैं जैसे ही दौड़ छोड़ता हूं- कुछ होने की दौड़ जैसे ही जाती है कि मैं हो आता हूं और 'हो आना' - पूरे अर्थो में हो आना ही मुक्ति है।

तथाकथित धार्मिक इस 'हो आने' को नहीं पाता है, क्योंकि वह दौड़ में है- मोक्ष पाने की, आत्मा को पाने की, ईश्वर को पाने की। और जो दौड़ में है, चाहे उस दौड़ का रूप कुछ भी क्यों न हो, वह अपने में नहीं है।

धार्मिकहोना आस्था की बात नहीं, किसी प्रयास की बात नहीं, किसी क्रिया की बात नहीं। धार्मिक होना तो अपने में होने की बात है। और यह मुक्ति एक क्षणमात्र में आ सकती है। यह सत्य के प्रति सजग होते ही, जागते ही कि बंधन दौड़ में है, आकांक्षा में है, आदर्श में है, अंधेरा गिर जाता है। और जो दिखता है, उसमें बंधन पाये ही नहीं जाते हैं।

सत्य एक क्षण में क्रांति कर देता है।

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Wednesday, February 14, 2018

कुछ दिन पहले वर्षा हो रही थी । एक साधु पानी में भीगते मिलने आये थे।  तब उन्होंने आत्म-उपलब्धि के लिए गृह-त्याग किया था। त्याग तो हुआ, पर उपलब्धि नहीं हुई। इससे दुखी हैं। समाज और संबंध आत्म-लाभ में बाधा समझे जाते हैं। ऐसी मान्यता ने व्यर्थ में अनेकों को जीवन से तोड़ दिया है। मैंने एक कहानी उनकोबताई। 
एकपागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल,नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। कहती थी कि उसकी काया से और सुंदर काया पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। एक दिन उस स्त्री को बड़े आईने के सामने लाया गया। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने पास रखी कुर्सी उठाकर दर्पण पर फेंकी। दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो उसने सुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछा तो बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक दिखा रहा है। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था। 
समाजऔर हमारा संबंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो भाव हममें होता है, समाज केवल उसे ही प्रतिबिंबित कर देता हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, संबंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदलाहट हो सकती है। यह क्रांति स्वयं से शुरू होती है। बाहर बदलाव का काम करना व्यर्थ ही समय खोना है। स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और संबंध कहीं भी बाधा नहीं हैं। बाधाएं कोई हैं, तो स्वयं में है।
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Tuesday, February 13, 2018

परमात्मा है?'- हमें ज्ञात नहीं।
'आत्मा है?'- हमें ज्ञात नहीं।
'मृत्यु के बाद जीवन है?'- हमें ज्ञात नहीं।
'जीवन में कोई अर्थ है?'- हमें ज्ञात नहीं।
'हमें ज्ञात नहीं' यह आज का पूरा जीवन है। इन तीनों शब्दों में हमारा पूरा ज्ञान समा जाता है। 'पर' के संबंध में, पदार्थ के संबंध में जानने की हमारी दौड़ का अंत नहीं है। पर 'स्व' के, चैतन्य के संबंध में हम प्रतिदिन अंधेरे में डूबते जाते हैं।
बाहर प्रकाश मालूम होता है, भीतर घुप्प अंधेरा । नहीं का ज्ञान है, है पर अज्ञान है।
और आश्चर्य यह है कि *है* प्रकाशित है फिर भी प्रकाश की खोज अंधेरे में है। "है" पर आंख भर पहुंच जाये और सब प्रकाशित हो जाता है।
'पर' आंख न हो, तो वह 'स्व' पर खुल जाती है।
बाहर उसे आधार न हो, तो वह स्व पर आधार खोज लेती है।
अंतर्मुखी चैतन्य की दृष्टि ही समाधि है।
समाधि सत्य का द्वार है। उसमें यह नहीं कि सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं, वरन् सब प्रश्न लय हो जाते हैं। प्रश्नों का लय हो जाना ही असली उत्तर है। जहां प्रश्न नहीं और केवल चैतन्य है- शुद्ध चैतन्य है, वही उत्तर है, वही ज्ञान है।

इस ज्ञान को पाये बिना जीवन नहीं है केवल मृत्यु है।

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Monday, February 12, 2018

संसार कारागार है, अगर तुम खुद स्वतंत्र नहीं हो। बहुत कैदी हैं।

ओर अगर स्वतंत्र हो तो कोई कैदी नहीं है ।

मेरी दृष्टिं में यहां कोई पापी नहीं है, प्रकाश की दृष्टिं में जैसे अंधेरा नहीं है। इसलिए मैं कुछ छोड़ने को नहीं कहता हूं। हीरे पा लो, मिट्टी तो अपने आप छूट जाती है। जो तुमसे छोड़ने को कहते हैं, वे ना समझ हैं। अध्यात्म में केवल पाया जाता है, त्यागना नहीं होता। एक नयी सीढ़ी पाते हैं, तो पिछली सीढ़ी अपने आप छूट जाती है। जो नयी सीढ़ी को पाए बिना पुरानी को छोड़ देते हैं, वो गिर जाते है ।छोड़ना नकार त्मक है। उसमें पीड़ा है, दुख है, दमन है। पाना सत्तात्मक है। उसमें आनंद है। पहले पहली सीढ़ी ही छूटती है, पर उसके पूर्व दूसरी सीढ़ी पा ली गयी होती है। उसे पाकर ही- उसे पाया जानकर ही-पहली सीढ़ी छूटती है। आनंद को पाओ, तो जो पाप जैसा दिखता है, वह अनायास चला जाता है।
सच ही, उस एक के पाने में सब पा लिया जाता है। उस सत्य के आते ही सब अपने से विलीन हो जाते हैं। जो प्रकाश जानते हैं उनके लिए अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है।
प्रकाश को अपने भीतर जगाओ । *आनंद को अपने भीतर अनुभव करो*। अपने सत्य के प्रति जागो और फिर पाओगे कि अंधेरा तो कहीं है ही नहीं। अंधेरा हमारी निद्रा है और जागरण प्रकाश बन जाता है।

 ऐसा नहीं करने वालो में ऐसा कौन है, जो 'कैदी' नहीं है!

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Saturday, February 10, 2018

हम स्वप्न देखते हैं। जागते ही स्वप्न ओर सत्य दोनों का आभास होता है। स्वप्न में मैं हम भागीदार भी थे और द्रष्टा भी । स्वप्न में जब तक थे, द्रष्टा भूल गया था, भागीदार ही रह गया था। अब जागकर देखता हूं कि द्रष्टा ही था, भागीदार नहीं था।
स्वप्न जैसा है, संसार भी वैसा ही है। द्रष्टा, चैतन्य ही सत्य का आभास है, शेष सब कल्पित है। जिसे हमने 'मैं' जाना है, वह वास्तविक नहीं है। उसे भी जो जान रहा है, वास्तविकता की शुरुआत है।
यह सबका द्रष्टा तत्व सबसे मुक्त और सबसे अतीत है। पर इसमें भी होना है, तभी तो दृष्टा है,, इसके पार जो है इसने न कुछ किया है, न कभी कुछ हुआ है। वह बस 'है'।

असत्य 'मैं', स्वप्न 'मैं' ओर दृष्टा में शांत हो जाये, तो 'जो है', वह प्रकट हो जाता है। इस 'है' को हो जाने देना मोक्ष है, कैवल्य है।

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Friday, February 9, 2018

एक संन्यासी ने कहा, 'मैं परमात्मा के लिए सब छोड़ आया हूं और अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।'
मैं देखता हूं कि सच ही उनके पास कुछ भी नहीं है, पर उनसे कहता हूं कि वह जो छोड़ना था- और जो कि छोड़ा जा सकता था- वह अब भी उनके पास है!
वह उनके भीतर है। वह उनकी आंखों में है। वह उनके त्याग में है। वह उनके संन्यास में है। वह 'मैं' है। उसे छोड़ना ही खुद को पाना है। या खुद को पाना ही उसे छोड़ना है, क्योंकि शेष सब छीना जा सकता है और अंतत: मृत्यु सब छीन ही लेती है। 'मैं' को कोई नहीं छीन सकता, उसे तो केवल छोड़ा ही जा सकता है, उसका त्याग ही केवल त्याग है।
इसलिए परमात्मा को समर्पित करने योग्य मनुष्य के पास 'मैं' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शेष जो भी वह छोड़े, वह केवल छोड़ने के भ्रम में है, क्योंकि वह उसका था ही नहीं। और इस सब छोड़ने से उलटे उसका 'मैं' और प्रगाढ़ हो जाता है। 'मैं' केंद्र से यदि कोई अपना समस्त जीवन भी परमात्मा की सेवा को दे दे, तो भी वह देना नहीं है। 'मैं' को दिये बिना और कुछ भी देना, देना नहीं है।
 'मैं' एकमात्र संसार है। उसे जो छोड़ता है,वही संन्यासी है।
'मैं' संसार है। 'मैं' का अभाव संन्यास है।
'मैं' को दे देना वास्तविक धार्मिक क्रांति और परिवर्तन है। क्योंकि उसके रिक्त स्थान में ही वह आता है, जो कि मेरा 'मैं'
नहीं अपितु सबका 'मैं' है।

सच ही 'मैं' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है, जो कि समस्त सत्ता का केंद्र है। पर उसे 'मैं' कहने का कोई कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके लिए सब 'मैं' ही है। कोयोंकी मै वो कहता है जिसके पास  मै से अन्य कोई वस्तु हो, इसलिए परमात्मा को मैं कहने का कारण नहीं है, और जिसे कहने का कारण है, उसे कोई अधिकार नहीं है।
पर मनुष्य अपने अनाधिकार को खोकर, अधिकार को पा सकता है। वह 'मैं' होना छोड़ कर 'मैं' हो सकता है। वह अपने अभाव से सत्य को पा सकता है।

जो 'मैं' की इस मृत्यु से नहीं गुजरता है, वह सत्य के जीवन से वंचित रह जाता है। मैं के गिरते ही वह फासला गिर जाता है, जो कि हमें स्वयं हमसे ही तोड़े हुए था। और वह व्यक्ति धन्यभागी है, जो शरीर की मृत्यु के पूर्व इस मृत्यु को पा लेता है।

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Thursday, February 8, 2018

 जो सत्य को पाना चाहता है, वह जानले कि उसे सत्य की कोई कल्पना, कोई धारण स्वीकार नहीं करनी है। उस स्वीकार पर ही साधना का आत्मघात हो जाता है।
सत्य को पाने के लिए चित्त के द्वारा दिये गये सारे प्रलोभनों को छोड़ने का साहस चाहिए। चित्त द्वारा प्रदत्त कोई भी विकल्प स्वीकार नहीं करना है। तभी वह निर्विकल्प अवस्था आती है, जो स्वयं के सामने स्वयं को प्रत्यक्ष कर देती है। उसके पूर्व बहुत-कुछ आता है जो कि सत्य नहीं है। और उसमें जो उलझता है, वह और कुछ भी जान ले, स्वयं को नहीं जानता है। स्वयं को कभी भी जिज्ञासु की भांति नहीं जाना जाता है। इसलिए, जब तक कुछ भी जानने वाला शेष है, तब तक जानना कि साक्षात 'पर' का है, 'स्व' का नहीं। जानने वाला जब अशेष है, तब जो शेष रह जाता है, वही ज्ञान है, वही स्व है, वही सत्य है।
*'साधना के मार्ग में यदि स्वयं भगवान भी मिलें, तो उन्हें राह से दूर कर देना*।'
मैं यही कहता हूं। ज्ञान की धारा में जब कोई जानने वाला नहीं है, और दर्शन को, देखने को जब कुछ शेष नहीं है, तभी वह मिलता और जाना जाता है, जो कि सत्य है।
एक सद्गुरु ने भी एक दिन यही कहा था। उसके एक शिष्य ने सुना। उसने अपनी कुटिया पर लौट सारी मूर्तियां तोड़ डालीं और सारे ग्रंथ जला डाले। और जाकर अपने गुरु से कहा कि मैं वह सब नष्ट कर आया हूं, जो कि सत्य के आगमन में बाधक हैं। उसका गुरु उसकी बात सुन बहुत हंसने लगा था और उसने कहा था, 'पागल, उन ग्रंथों को जला, जो तेरे भीतर हैं और उन मूर्तियों को तोड़, जो तेरे चित्त की अतिथि बन गयी हैं।'

 पूजागृहों को उजाड़ने से क्या होगा, जब तक कि यह सर्जक मान्यता जीवित है, जो कि प्रतिक्षण नये पूजागृह बना लेता है..

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Wednesday, February 7, 2018

आत्मज्ञान एकमात्र ज्ञान है। क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं जानते उनके और सब कुछ जानने का मूल्य ही क्या है?
मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के ही प्रति अंधकार में होता है, जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को नहीं जानते हैं और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाता हो, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है। आत्मज्ञान के अभाव में जीवन उस नौका की भांति, जिसका चलाने वाला होश में नहीं है, लेकिन नौका को चलाये जा रहा है। जीवन को सम्यक गति और गंतव्य देने के लिये स्वयं का ज्ञान आधारभूत है। इसके पूर्व कि जानूं कि मुझे क्या होना है, यह जानना बहुत अनिवार्य है कि मैं क्या हूं। मैं जो हूं, उससे परिचित होकर ही, मैं भविष्य के आधार रख सकता हूं, जो कि अभी मुझमें सोया हुआ है। मैं जो हूं, उसे जानकर ही मुझमें अभी जो अजन्मा है, उसका जन्म हो सकता है। यदि जीवन को सार्थकता देनी है, तो और कुछ जानने से पहले स्वयं को जानने में लग जाओ। उसके बाद ही शेष ज्ञान का भी उपयोग होता है। अन्यथा, अज्ञान के हाथों में आया ज्ञान आत्मघाती ही सिद्ध होता है।

ज्ञान की पहली आकांक्षा स्वयं को जानने की है। उस बिंदु पर अंधकार है, तो सब जगह अंधकार है और, वहां प्रकाश है, तो सब जगह प्रकाश है..

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Tuesday, February 6, 2018

अंधकार की चिंता छोड़ो और प्रकाश को प्रदीप्त करो। जो अंधकार का ही विचार करते रहते हैं, वे प्रकाश तक कभी नहीं पहुंच पाते हैं।

जीवन में बहुत विकार है। और अंधकार की ही भांति अशुभ और अनीति है। कुछ लोग इन विकारों को स्वीकार कर लेते हैं और तब उनके भीतर जो प्रकाश तक पहुंचने और उसे पाने की आकांक्षा थी, वह कम होती जाती है।  विकारों की यह स्वीकृति मनुष्य का सबसे बड़ा पाप है। यह मनुष्य का स्वयं अपने ही प्रति किया गया अपराध है। उसके दूसरों के प्रति किये गये अपराधों का जन्म इस मूल-पाप से ही होता है। यह स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपने ही प्रति इस पाप को नहीं करता है, वह किसी के भी प्रति कोई पाप नहीं कर सकता है। किंतु, कुछ लोग विकारों के स्वीकार से बचने के लिये उसके अस्वीकार करने में लग जाते हैं। उनका जीवन विकार मिटाने का ही उपक्रम बन जाता है। यह भी भूल है। अंधकार को मान लेने वाला भी भूल में है। न अंधकार को मानना है, न उससे लड़ना है। जो जानता है, वह प्रकाश को जलाने की आयोजना करता है। अंधकार की अपनी सत्ता नहीं है। वह प्रकाश का अभाव मात्र है। प्रकाश के आते ही वह नहीं पाया जाता है। और ऐसा ही अशुभ है, ऐसा ही अधर्म है। अशुभ को,  अधर्म को मिटाना नहीं, शुभ का,धर्म का दिया जलाना ही पर्याप्त है। आत्मिक ज्योति ही अधर्म की मृत्यु है।


अंधकार से लड़ना अभाव से लड़ना है। वह विक्षिप्तता है। लड़ना है, तो प्रकाश पाने के लिये अहम से लड़ो- जिसे प्रकाश का बोध होता है, उसका अंधकार  मिट जाता है।

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Monday, February 5, 2018

सत्य एक ही है, सबके लिए केवल वो एक ही सत्य है, इसमें कोई तेरा मेरा सत्य नहीं है। बस उस तक पहुंचने के द्वार अनेक हो सकते हैं। पर, जो द्वार के मोह में पड़ जाता है, वह द्वार पर ही ठहर जाता है। और सत्य के द्वार उसके लिए कभी नहीं खुलते हैं।
सत्य सब जगह है। जो भी है, सभी सत्य है। उसकी अभिव्यक्तियां अनंत हैं। वह सौंदर्य की भांति है। सौंदर्य कितने रूपों में प्रकट होता है,लेकिन इससे क्या वह भिन्न-भिन्न हो जाता है! जो रात्रि तारों में झलकता है और जो फूलों में सुगंध बनकर झरता है और जो आंखों से प्रेम में प्रकट होता है- वह क्या अलग-अलग है? रूप अलग हों, पर जो उनमें स्थापित होता है, वह तो एक ही है।

*किंतु जो रूप पर रुक जाता है, वह आत्मा को नहीं जान पाता और वो सुंदर पर ठहर जाता है*,सौंदर्य तक नहीं पहुंच पाता ।

ऐसे ही, जो शब्द में बंध जाते हैं, वे सत्य से वंचित रह जाते हैं।


जो जानते हैं, वे राह के अवरोधों को सीढि़यां बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए सीढि़यां भी अवरोध बन जाती हैं।

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Sunday, February 4, 2018

*क्या साधना में शरीर को भूखा रखना या अन्य कोई कष्ट देना सहायक हो सकता है ?*


जो किसी भी दिशा में अति करते हैं, वे मार्ग से भटक जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर चला जाना उसे बहुत आसान है। ऐसा उसके मनका स्वभाव ही है। शरीर के प्रति जो बहुत आसक्त है, वही व्यक्ति प्रतिक्रिया में शरीर के प्रति बहुत कठोर और क्रूर हो सकता है। इस कठोरता और क्रूरता में भी वही आसक्ति अप्रत्यक्ष रूप में बोहोत बलवती होती है। और इसलिए जैसे वह पहले शरीर से बंधा था, वैसा अब भी- बिलकुल विपरीत दिशा से शरीर से बंधा होता है। शरीर का ही चिंतन पहले था, शरीर का ही चिंतन अब भी होता है। इस भांति विपरीत अति पर जाकर मन धोखा दे देता है और उसकी जो मूल वृत्ति थी, उसी में रहता है। ये असंयम स्थिति है । फिर संयम किसे कहता हूं? मध्य में थिर होने का नाम संयम है। जहां संयम होता है, वहीं सुगमता है। शरीर के प्रति राग और विराग का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संयम उपलब्ध होता है। संसार के प्रति आसक्ति और विरक्ति का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संन्यास का संयम उपलब्ध होता है। इस भांति जो समस्त अतियों में संयम को साधता है, वह अतियों के अतीत हो जाता है । मनुष्य अतियों में जीता है और यदि अतियां न हों, तो अहम  विलीन हो जाता है। उसके कोलाहल के विलीन हो जाने पर सहज ही वह आंतरिक संगीत सुनाई पड़ने लगता है, जो कि सदा सदैव से ही स्वयं के भीतर निनादित हो रहा है। स्वयं का वह आनंद रूपी संगीत ही निर्वाण है, मोक्ष है, परम-ब्रह्मं है। ध्यान देना पानी में डूबने से के लिए आग की लपटों में स्वयं को डाल देना-बचाव का कोई मार्ग नहीं है.. दोनों ही स्थितियों में मृत्यु है ।
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Saturday, February 3, 2018

एक राजा ने किसी कारण नाराज हो अपने वजीर को एक बहुत बड़ी मीनार के ऊपर कैद कर दिया था। यह अत्यंत कष्टप्रद मृत्यु दण्ड ही था। न तो उसे कोई भोजन पहुंचाया जाता था और न उस गगनचुंबी मीनार से कूदकर ही उसके भागने की कोई संभावना थी।
 लोगों ने देखा कि वह जरा भी चिंतित और दुखी नहीं है। विपरीत, वह सदा की भांति ही आनंदित और प्रसन्न है। उसकी पत्नी ने रोते हुए उसे विदा दी और उससे पूछा कि वह प्रसन्न क्यों है! उसने कहा कि यदि रेशम का एक अत्यंत पतला सूत भी मेरे पास पहुंचाया जा सका, तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा और क्या इतना-सा काम तुम नहीं कर सकोगी?

उसकी पत्नी ने बहुत सोचा, लेकिन उस ऊंची मीनार पर रेशम का पतला सूत भी पहुंचाने का कोई उपाय उसकी समझ में नहीं आया। उसने एक फकीर को पूछा। फकीर ने कहा, 'भृंग नाम के कीड़े को पकड़ो। उसके पैर में रेशम के धागे को बांध दो और उसकी मूछों पर शहद की एक बूंद रखकर उसे मीनार पर, उसका मुंह चोटी की ओर करके छोड़ दो।' उसी रात्रि यह किया गया। वह कीड़ा सामने मधु की गंध पाकर उसे पाने के लोभ में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा। उसने अंतत: एक लंबी यात्रा पूरी कर ली और उसके साथ रेशम का एक छोर मीनार पर बंद कैदी के हाथ में पहुंच गया। वह रेशम का पतला धागा उसकी मुक्ति और जीवन बन गया। क्योंकि, उससे फिर सूत का धागा बांधकर ऊपर पहुंचाया गया, फिर सूत के धागे से डोरी पहुंच गई और फिर डोरी से मोटा रस्सा पहुंच गया और रस्से के सहारे वह कैद के बाहर हो गया।

वजीर बुद्धिमानी से मुक्त हो गया, हमें भी बुद्धि लगानी है ओर आनंद का एक छोटा सा धागा पकड़ कर ही यह से मुक्त हो सकते है,

इसलिए, मैं कहता हूं कि सूर्य तक पहुंचने के लिये प्रकाश की एक किरण भी बहुत है। और वह किरण किसी को पहुंचानी भी नहीं है। वह प्रत्येक के पास है। जो उस किरण को खोज लेते हैं, वे सूर्य को भी पा लेते हैं।

मनुष्य के भीतर जो आत्मिक आनंद है, वह अमृत्व की किरण है- जो बोध है, वह बुद्धत्व की बूंद है और जो आनंद है, वह सच्चिदानंद की झलक है। बुद्धि लगा कर इसी के सहारे मुक्त हो सकते हो ।

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Friday, February 2, 2018

एक साधु किसी गांव से गुजरता था। उसका एक मित्र-साधु भी उस गांव में था। उसने सोचा कि उससे मिलता चलूं। रात आधी हे रही थी, फिर भी वह मिलने गया। एक बंद खिड़की से प्रकाश को आते देख उसने उसे खटखटाया। भीतर से आवाज आई, 'कौन है?' उसने यह सोचा कि वह तो अपनी आवाज से ही पहचान लिया जावेगा, कहा, 'मैं।' फिर भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार खिड़की पर दस्तक दी उत्तर नहीं आया। ऐसा ही लगने लगा कि जैसे कि वह घर बिलकुल निर्जन है। उसने जोर से कहा, 'मित्र तुम मेरे लिये द्वार क्यों नहीं खोल रहे हो और चुप क्यों हो?' भीतर से कह गया, 'यह कौन ना समझ है, जो स्वयं को 'मैं' कहता है, क्योंकि 'मैं' कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं है।' प्रभु के द्वार पर हमारे दुआरा लगाया हुआ 'मैं' का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हें, वे पाते हैं कि द्वार तो सदा से ही खुले थे!

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Thursday, February 1, 2018

मनुष्य को सत्य होने से पूर्व माने हुए स्वयं को खोना पड़ता है। इस मूल्य को चुकाये बिना सत्य में कोई गति नहीं है। ये होना ही बाधा है। वही स्वयं सत्य पर पर्दा है। यह दृष्टिं ही अवरोध है- वह दृष्टिं जो कि 'मैं' के बिंदु से विश्व को देखती है। 'अहं-दृष्टिं' के अतिरिक्त उसे सत्य से और कोई भी पृथक नहीं किये है। मनुष्य का 'मैं' हो जाना ही, परमात्मा से उसका पतन है। 'मैं' की उपस्थिति में ही वह नीचे आता है और 'मैं' के खोते ही वह भागवत-सत्ता में ऊपर उठ आता है। 'मैं' होना नीचे होना है। 'न मैं' हो जाना ऊपर उठ जाना है।
किंतु, जो खोने जैसा दीखता है, वह वस्तुत: खोना नहीं-पाना है। स्वयं की, जो सत्ता खोनी है, वह सत्ता नहीं स्वप्न ही है और उसे खेकर जो सत्ता मिलती है, वही सत्य है।

बीज जब भूमि के भीतर स्वयं को बिलकुल खो देता है, तभी वह अंकुरित होता है और वृक्ष बनता है।

हमारे मोहल्ले में एक शराबी था, जब वह नशे में होता है तो वह जो है उसको भूल कर नली या कूड़े में गिरा रहता है ।होश आने पर पता चलता हैकी मैं कौन हूं, ओर गंदगी में हूं ।

हम भी ऐसे ही हैं, अहम के नशे में हम स्वयं कों भूलकर इस असत्य संसार के नली ओर कूड़े में मस्ती के साथ गिरे पड़े है ।अहम का नशा हटे तो सत्य ओर गंदगी का बोध हो ।

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