Thursday, February 22, 2018

एक युवक आकर बोला..मैं अपनी आस्था खो चुका हूं, मैं एक स्वप्न में था, वह जैसे खंडित हो गया है। परमात्मा का साथ मालूम होते था, अब अकेला रह गया हूं और बहुत घबराहट होती है। इतना असहाय तो मैं कभी भी नहीं था।

यही विडंबना बोहोत से लोगो की है..

मैं कहता हूं : जो नहीं था, केवल वही छीना जा सकता है। जो है, उसका छीनना संभव नहीं है। स्वप्न और कल्पना के साथ से एकाकीपन मिटता नहीं है, केवल मूच्र्छा में दब जाता है। परमात्मा की कल्पना और मानसिक चिंता से मिला आनंद वास्तविक नहीं है। वह सहारा नहीं भ्रांति है। और भ्रांतियों से जितनी जल्दी छुटकारा हो, उतना ही अच्छा है। ईश्वर को वस्तुत: पाने के लिए समस्त मानसिक धारणाओं को त्यागना पड़ता है। और इन धारणाओं में परमात्मा की धारणा भी अपवाद नहीं है। वह भी छोड़नी पड़ती है। यही त्याग है और यही तप है। क्योंकि स्वप्नों को छोड़ने से अधिक कष्ट और किसी बात में नहीं है।
कल्पना, स्वप्न और धारणाओं के विसर्जन पर, 'जो है' वह अभिव्यक्त होता है। निद्रा टूटती है और जागरण आता है। फिर जो पाना है, वही वास्तविक पाना है, क्योंकि उसे कोई छीन नहीं  सकता है। वह किसी और अनुभूति से खंडित नहीं होता है, क्योंकि वह परानुभूति नहीं, स्वानुभूति है। वह किसी दृश्य का दर्शन नहीं, स्वयं आनंद में होना है। आनंद की काल्पनिक धारणा और आस्था खो गयी है, तो घबराओ मत। यह शुभ ही है।

सब धारणाएं खो दो और फिर देखो। तब जो दिखाई पड़ता है, वही आनंद है।

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