एक संन्यासी ने कहा, 'मैं परमात्मा के लिए सब छोड़ आया हूं और अब मेरे पास कुछ भी नहीं है।'
मैं देखता हूं कि सच ही उनके पास कुछ भी नहीं है, पर उनसे कहता हूं कि वह जो छोड़ना था- और जो कि छोड़ा जा सकता था- वह अब भी उनके पास है!
वह उनके भीतर है। वह उनकी आंखों में है। वह उनके त्याग में है। वह उनके संन्यास में है। वह 'मैं' है। उसे छोड़ना ही खुद को पाना है। या खुद को पाना ही उसे छोड़ना है, क्योंकि शेष सब छीना जा सकता है और अंतत: मृत्यु सब छीन ही लेती है। 'मैं' को कोई नहीं छीन सकता, उसे तो केवल छोड़ा ही जा सकता है, उसका त्याग ही केवल त्याग है।
इसलिए परमात्मा को समर्पित करने योग्य मनुष्य के पास 'मैं' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शेष जो भी वह छोड़े, वह केवल छोड़ने के भ्रम में है, क्योंकि वह उसका था ही नहीं। और इस सब छोड़ने से उलटे उसका 'मैं' और प्रगाढ़ हो जाता है। 'मैं' केंद्र से यदि कोई अपना समस्त जीवन भी परमात्मा की सेवा को दे दे, तो भी वह देना नहीं है। 'मैं' को दिये बिना और कुछ भी देना, देना नहीं है।
'मैं' एकमात्र संसार है। उसे जो छोड़ता है,वही संन्यासी है।
'मैं' संसार है। 'मैं' का अभाव संन्यास है।
'मैं' को दे देना वास्तविक धार्मिक क्रांति और परिवर्तन है। क्योंकि उसके रिक्त स्थान में ही वह आता है, जो कि मेरा 'मैं'
नहीं अपितु सबका 'मैं' है।
सच ही 'मैं' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है, जो कि समस्त सत्ता का केंद्र है। पर उसे 'मैं' कहने का कोई कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके लिए सब 'मैं' ही है। कोयोंकी मै वो कहता है जिसके पास मै से अन्य कोई वस्तु हो, इसलिए परमात्मा को मैं कहने का कारण नहीं है, और जिसे कहने का कारण है, उसे कोई अधिकार नहीं है।
पर मनुष्य अपने अनाधिकार को खोकर, अधिकार को पा सकता है। वह 'मैं' होना छोड़ कर 'मैं' हो सकता है। वह अपने अभाव से सत्य को पा सकता है।
जो 'मैं' की इस मृत्यु से नहीं गुजरता है, वह सत्य के जीवन से वंचित रह जाता है। मैं के गिरते ही वह फासला गिर जाता है, जो कि हमें स्वयं हमसे ही तोड़े हुए था। और वह व्यक्ति धन्यभागी है, जो शरीर की मृत्यु के पूर्व इस मृत्यु को पा लेता है।
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
मैं देखता हूं कि सच ही उनके पास कुछ भी नहीं है, पर उनसे कहता हूं कि वह जो छोड़ना था- और जो कि छोड़ा जा सकता था- वह अब भी उनके पास है!
वह उनके भीतर है। वह उनकी आंखों में है। वह उनके त्याग में है। वह उनके संन्यास में है। वह 'मैं' है। उसे छोड़ना ही खुद को पाना है। या खुद को पाना ही उसे छोड़ना है, क्योंकि शेष सब छीना जा सकता है और अंतत: मृत्यु सब छीन ही लेती है। 'मैं' को कोई नहीं छीन सकता, उसे तो केवल छोड़ा ही जा सकता है, उसका त्याग ही केवल त्याग है।
इसलिए परमात्मा को समर्पित करने योग्य मनुष्य के पास 'मैं' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शेष जो भी वह छोड़े, वह केवल छोड़ने के भ्रम में है, क्योंकि वह उसका था ही नहीं। और इस सब छोड़ने से उलटे उसका 'मैं' और प्रगाढ़ हो जाता है। 'मैं' केंद्र से यदि कोई अपना समस्त जीवन भी परमात्मा की सेवा को दे दे, तो भी वह देना नहीं है। 'मैं' को दिये बिना और कुछ भी देना, देना नहीं है।
'मैं' एकमात्र संसार है। उसे जो छोड़ता है,वही संन्यासी है।
'मैं' संसार है। 'मैं' का अभाव संन्यास है।
'मैं' को दे देना वास्तविक धार्मिक क्रांति और परिवर्तन है। क्योंकि उसके रिक्त स्थान में ही वह आता है, जो कि मेरा 'मैं'
नहीं अपितु सबका 'मैं' है।
सच ही 'मैं' कहने का अधिकार केवल परमात्मा को ही है, जो कि समस्त सत्ता का केंद्र है। पर उसे 'मैं' कहने का कोई कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उसके लिए सब 'मैं' ही है। कोयोंकी मै वो कहता है जिसके पास मै से अन्य कोई वस्तु हो, इसलिए परमात्मा को मैं कहने का कारण नहीं है, और जिसे कहने का कारण है, उसे कोई अधिकार नहीं है।
पर मनुष्य अपने अनाधिकार को खोकर, अधिकार को पा सकता है। वह 'मैं' होना छोड़ कर 'मैं' हो सकता है। वह अपने अभाव से सत्य को पा सकता है।
जो 'मैं' की इस मृत्यु से नहीं गुजरता है, वह सत्य के जीवन से वंचित रह जाता है। मैं के गिरते ही वह फासला गिर जाता है, जो कि हमें स्वयं हमसे ही तोड़े हुए था। और वह व्यक्ति धन्यभागी है, जो शरीर की मृत्यु के पूर्व इस मृत्यु को पा लेता है।
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