Sunday, February 4, 2018

*क्या साधना में शरीर को भूखा रखना या अन्य कोई कष्ट देना सहायक हो सकता है ?*


जो किसी भी दिशा में अति करते हैं, वे मार्ग से भटक जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर चला जाना उसे बहुत आसान है। ऐसा उसके मनका स्वभाव ही है। शरीर के प्रति जो बहुत आसक्त है, वही व्यक्ति प्रतिक्रिया में शरीर के प्रति बहुत कठोर और क्रूर हो सकता है। इस कठोरता और क्रूरता में भी वही आसक्ति अप्रत्यक्ष रूप में बोहोत बलवती होती है। और इसलिए जैसे वह पहले शरीर से बंधा था, वैसा अब भी- बिलकुल विपरीत दिशा से शरीर से बंधा होता है। शरीर का ही चिंतन पहले था, शरीर का ही चिंतन अब भी होता है। इस भांति विपरीत अति पर जाकर मन धोखा दे देता है और उसकी जो मूल वृत्ति थी, उसी में रहता है। ये असंयम स्थिति है । फिर संयम किसे कहता हूं? मध्य में थिर होने का नाम संयम है। जहां संयम होता है, वहीं सुगमता है। शरीर के प्रति राग और विराग का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संयम उपलब्ध होता है। संसार के प्रति आसक्ति और विरक्ति का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संन्यास का संयम उपलब्ध होता है। इस भांति जो समस्त अतियों में संयम को साधता है, वह अतियों के अतीत हो जाता है । मनुष्य अतियों में जीता है और यदि अतियां न हों, तो अहम  विलीन हो जाता है। उसके कोलाहल के विलीन हो जाने पर सहज ही वह आंतरिक संगीत सुनाई पड़ने लगता है, जो कि सदा सदैव से ही स्वयं के भीतर निनादित हो रहा है। स्वयं का वह आनंद रूपी संगीत ही निर्वाण है, मोक्ष है, परम-ब्रह्मं है। ध्यान देना पानी में डूबने से के लिए आग की लपटों में स्वयं को डाल देना-बचाव का कोई मार्ग नहीं है.. दोनों ही स्थितियों में मृत्यु है ।
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