Saturday, February 10, 2018

हम स्वप्न देखते हैं। जागते ही स्वप्न ओर सत्य दोनों का आभास होता है। स्वप्न में मैं हम भागीदार भी थे और द्रष्टा भी । स्वप्न में जब तक थे, द्रष्टा भूल गया था, भागीदार ही रह गया था। अब जागकर देखता हूं कि द्रष्टा ही था, भागीदार नहीं था।
स्वप्न जैसा है, संसार भी वैसा ही है। द्रष्टा, चैतन्य ही सत्य का आभास है, शेष सब कल्पित है। जिसे हमने 'मैं' जाना है, वह वास्तविक नहीं है। उसे भी जो जान रहा है, वास्तविकता की शुरुआत है।
यह सबका द्रष्टा तत्व सबसे मुक्त और सबसे अतीत है। पर इसमें भी होना है, तभी तो दृष्टा है,, इसके पार जो है इसने न कुछ किया है, न कभी कुछ हुआ है। वह बस 'है'।

असत्य 'मैं', स्वप्न 'मैं' ओर दृष्टा में शांत हो जाये, तो 'जो है', वह प्रकट हो जाता है। इस 'है' को हो जाने देना मोक्ष है, कैवल्य है।

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