मनुष्य को सत्य होने से पूर्व माने हुए स्वयं को खोना पड़ता है। इस मूल्य को चुकाये बिना सत्य में कोई गति नहीं है। ये होना ही बाधा है। वही स्वयं सत्य पर पर्दा है। यह दृष्टिं ही अवरोध है- वह दृष्टिं जो कि 'मैं' के बिंदु से विश्व को देखती है। 'अहं-दृष्टिं' के अतिरिक्त उसे सत्य से और कोई भी पृथक नहीं किये है। मनुष्य का 'मैं' हो जाना ही, परमात्मा से उसका पतन है। 'मैं' की उपस्थिति में ही वह नीचे आता है और 'मैं' के खोते ही वह भागवत-सत्ता में ऊपर उठ आता है। 'मैं' होना नीचे होना है। 'न मैं' हो जाना ऊपर उठ जाना है।
किंतु, जो खोने जैसा दीखता है, वह वस्तुत: खोना नहीं-पाना है। स्वयं की, जो सत्ता खोनी है, वह सत्ता नहीं स्वप्न ही है और उसे खेकर जो सत्ता मिलती है, वही सत्य है।
बीज जब भूमि के भीतर स्वयं को बिलकुल खो देता है, तभी वह अंकुरित होता है और वृक्ष बनता है।
हमारे मोहल्ले में एक शराबी था, जब वह नशे में होता है तो वह जो है उसको भूल कर नली या कूड़े में गिरा रहता है ।होश आने पर पता चलता हैकी मैं कौन हूं, ओर गंदगी में हूं ।
हम भी ऐसे ही हैं, अहम के नशे में हम स्वयं कों भूलकर इस असत्य संसार के नली ओर कूड़े में मस्ती के साथ गिरे पड़े है ।अहम का नशा हटे तो सत्य ओर गंदगी का बोध हो ।
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