एक बार किसी साधु का गांव में कोई मर गया । वह साधु उस के घर गया। उसकी लाश रखी थी और लोग रो रहे थे। उस साधु ने जाकर जोर से पूछा, 'यह मृत है या जीवित?' इस प्रश्न से लोग बहुत चौंके और हैरान हुए। यह कैसा प्रश्न था! लाश सामने थी और इसमें पूछने की बात ही क्या थी?थोड़ी देर सन्नाटा रहा और फिर किसी ने से प्रश्न किया, 'आप ही बतावें?' जानते हैं कि साधु ने क्या कहा? साधु ने कहा, 'जो मृत था, वह मृत है; जो जीवित था, वह अभी भी जीवित है। केवल दोनों का संबंध टूटा है।'जीवन की कोई मृत्यु नहीं होती है और मृत का कोई जीवन नहीं होता है।जीवन को जो नहीं जानते हैं, वे मृत्यु को जीवन का अंत कहते हैं। जन्म जीवन का प्रारंभ नहीं है और मृत्यु उसका अंत नहीं है। जीवन, जन्म और मृत्यु के भीतर भी है और बाहर भी है। वह जन्म के पूर्व भी है और मृत्यु के पश्चात भी है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है; पर न उसका कोई जन्म है, न उसकी कोई मृत्यु है।
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Monday, July 30, 2018
यह मृत है या जीवित?
Friday, July 27, 2018
❤️प्रेम को जानो❤️
प्रेम को जानो। उससे ऊपर और कुछ भी नहीं है। यह जीवन का परम लक्ष्य है ।
प्रेम क्या है?
''प्रेमजो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का उपाय नहीं, क्योंकि वह कोई विचार नहीं है। प्रेम तो अनुभूति भी नहीं है, क्योंकि अनुभूति भी बताई जा सकती है। सबकुछ समाप्त होना ओर जैसा है वैसा होना ही प्रेम है, इसलिए उसे जाना नहीं जा सकता। इसकी छोटी सी झलक पानी हो तो प्रेम पर विचार मत करो। विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो।इसमें जो शांति है, वही उस प्रेम की झलक है।''
किसी फकीर से एक पंडित ने पूछा, ''क्या आपको शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम के विभिन्न रूपों का ज्ञान है?'' वह फकीर बोला, ''मुझ जैसा अज्ञानी शास्त्रों की बात क्या जानें?'' इसे सुनकर उस पंडित ने शास्त्रों में वर्गीकृत प्रेम की विस्तृत चर्चा की और फिर उस फकीर का इस संबंध में मत जानना चाहा। वह फकीर खूब हंसने लगा और बोला, *''आपकी बातें सुनकर मुझे लगता था कि जैसे कोई सुनार फूलों की बगिया में घुस आया है और वह स्वर्ण को परखने वाले पत्थर पर फूलों को घिस-घिसकर उनका सौंदर्य परख रहा है!''*
प्रेम को विचारों मत- जीओ। लेकिन, स्मरण रहे कि उसे जीने में स्वयं को खोना पड़ता है। अहं अप्रेम है और जो जितना अहं को छोड़ देता है, वह उतना ही प्रेम से भर जाता है। ऐसा प्रेम ही सत्य के द्वार की सीढ़ी है।
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Thursday, July 26, 2018
क्या विनम्र होकर अहम को समाप्त कर सकते हैं
*क्या विनम्र होकर, सबसे प्रेम करके या अन्य किसी प्रयास से अपने अहम को समाप्त कर सकते है?*
अहंकार के मार्ग अति सूक्ष्म हैं । ओढ़ी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है । ऐसी विनम्रता उसे ढकती कम- और प्रकट ज्यादा करती है । वस्तुत: न तो प्रेम को ओढ़कर अहम मिटाया जा सकता है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढकी जा सकती है । राख के नीचे जैसे अंगरे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा-सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है ।
ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्त्वों में यथार्थ दबा रहता है । एक धीमी-सी खरोंच ही अभिनय को तोड़कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है । ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं, लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव बन जाता है । हजारों वर्षों से जबरदस्ती अहम को दबाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है । अहम को मिटाने में तो नहीं, उसे ढकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है और इस भांति तथाकथित यह अहम एक महारोग सिद्ध हुआ है ।
*तो करना क्या है*
*इसके विष्य में तुम्हे एक जबरदस्त बात बताता हूं ।*
*जब तुम बाल्टी या किसी भी अन्य पात्र से समुद्र को खाली करने का प्रयास करते हो तो समुंद्र कभी भी खाली नहीं होगा ये तो सत्य है, पर एक सत्य ओर है जिस से आप अनभिज्ञ रहते हो, वोंक्या है ? वो ये है कि आप जिस बाल्टी या पात्र से उसे खाली करने गए थे उसमें भी समुन्द आ गया है अर्थात वो भी खारा हो गया है। इसलिए जब तुम अहम को समाप्त करने का प्रयास करते हो तो अहम समाप्त नहीं होता बल्कि तुम्हारे प्रयासों में भी अहम आ जाता है, वो प्रयास है - विनम्र होना, सबसे प्रेम करना, सन्यासी होना, गुरु होना, चेला होना आदि आदि।*
तो ये समाप्त कैसे हो?
*अंधेरे को समाप्त नहीं कर सकते कभी भी, बस आप उजाला कर सकते हो। फिर अंधेरा रहेगा ही नही, अहम नहीं मिटाना बस आत्मज्ञान का उजाला करना है।*
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Wednesday, July 25, 2018
दौड़ नहीं लगानी है
मनुष्य को अपना सारा जीवन परमात्मा की खोज में दौड़ते हुए नहीं व्यर्थ करना है, मेरी दृष्टि में अगर वो अपने आप को पूरी तरह जान ले तो वो अभी और इसी वक्त परमात्मा है। स्वयं का सम्पूर्ण आविष्कार ही एकमात्र विकास है। कुछ ऐसा नहीं जो बाहर से खोजा जा सके। यह कुछ ऐसा है जो अन्दर से अनुभव किया जाता है। दौड़ नहीं लगानी है, डूबना है, गहरा ओर गहरा, खुदमे । फिर वो सबकुछ पालोगे जिसके लिए दौड़ रहे थे । तब पता चलेगा कि दौड़ना नहीं था ठहरना था ।
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Sunday, July 22, 2018
परमात्मा को भूल जाता हूं
*पूरा दिन परमात्मा में ध्यान नही रख पाता कई बार सांसारिक कार्य करते हुऐ भूल लग जाती है...कृप्या निवारण किजीय..*
परमात्मा कोई याद रखने या भूलने का विषयनहीं है, ऐसा उल्टे स्वभाव के कारण है..तुमने अपना स्वभाव उल्टा बना रखा है..कैसे? जो तुम नही हो वो बनकर जो तुम हो वो करना चाहते हो..अर्थात तुम प्राथमिक को अन्य व अन्य को प्राथमिक समझ रहे हो..कहने का अर्थ यह है कि तुम अपने आत्म स्वभाव को करने की सोच रहे हो और जो तुम नही हो वो मानकर सांसारिक कार्य करते हो..
*तो करना कया है?*
बस अपने आत्म भाव को सवंय मान कर कार्य को अन्य समझ कर करना है.. *अर्थात*
पूरा दिन अपने स्वभाव में रहो और कार्य को अन्य समझ कर करो..
बस जो प्राथमिक है उसे प्राथमिकता देनी है और जो अन्य है उसको अन्य समझना है..(यह केवल मार्ग है मंजिल नही है)
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Friday, July 20, 2018
पाप से कैसे बचें
मैं पाप करने से कैसे बच सकती हूं ???
मैं पाप नही करूंगा, यही सोच तुम्हे पापी बना देती है .."मैं पाप नही करूंगा" भाव के पीछे जो बोलने वाला है वही तो पापी है, कौन है वो ?
वो अहं है, यही पापी है होने में रहता है, यही वैरागी होने में, ग्यानी होने में, धर्मी होने में, गूरू होने में, शिष्य होने में, भक्त होने में , परमात्मा से प्रेम करके प्रेमी होने में, सब में यही रहता है | यही जड़ है पापी होने की या पाप करने की | अगर पाप से बचना चाहते हो तो पापी को समाप्त करो.. अहं को समाप्त करो, जब पाप करने वाला ही नही रहेगा तो पाप कौन करेगा...
*अहं का अर्थ अहंकार से नही है, अहं जड़ है अहंकार पत्ते के समान है*
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
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Thursday, July 19, 2018
सावधान
सत्य के प्रति लगाव होने के साथ यह भी जरुरी है कि हम अपने द्वारा मान लिए गए सत्य के प्रति भी सजग रहे| ऐसा न होने पर सत्य अंधविश्वाश बन जाता है , जो विनाशकारी होता है, किसी का बताया हुए ओर पुस्तकों से पढ़ा हुआ सत्य नहीं होता । सत्य आपमें ही है । केवल शुद्ध सत्य को प्राप्त करो ।
Wednesday, July 18, 2018
ग्रह त्याग से आत्म ज्ञान
कुछ दिन पहले एक साधु मिलने आये थे। तब उन्होंने आत्म-ज्ञान के लिए गृह-त्याग किया था। त्याग तो हुआ, पर प्राप्ति नहीं हुई। वह इससे दुखी हैं। समाज और संबंध आत्म-लाभ में बाधा समझे जाते हैं। ऐसी मान्यता ने व्यर्थ में अनेकों को जीवन से तोड़ दिया है। मैंने एक कहानी उनकोबताई।
एकपागल स्त्री थी। उसे पूर्ण विश्वास था कि उसका शरीर स्थूल,नहीं है। वह अपने शरीर को दिव्य-काया मानती थी। कहती थी कि उसकी काया से और सुंदर काया पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। एक दिन उस स्त्री को बड़े आईने के सामने लाया गया। उसने अपने शरीर को उस दर्पण में देखा और देखते ही उसके क्रोध की सीमा न रही। उसने पास रखी कुर्सी उठाकर दर्पण पर फेंकी। दर्पण टुकड़े-टुकड़े हो गया, तो उसने सुख की सांस ली। दर्पण फोड़ने का कारण पूछा तो बोली थी कि वह मेरे शरीर को भौतिक दिखा रहा है। मेरे सौंदर्य को वह विकृत कर रहा था।
समाजऔर हमारा संबंध दर्पण से ज्यादा नहीं हैं। जो भाव हममें होता है, समाज केवल उसे ही प्रतिबिंबित कर देता हैं। दर्पण तोड़ना जैसे व्यर्थ है, संबंध छोड़ना भी वैसे ही व्यर्थ है। दर्पण को नहीं अपने को बदलना है। जो जहां है, वहीं यह बदलाहट हो सकती है। यह क्रांति स्वयं से शुरू होती है। बाहर बदलाव का काम करना व्यर्थ ही समय खोना है। स्व पर सीधे ही काम शुरू कर देना है। समाज और संबंध कहीं भी बाधा नहीं हैं। बाधाएं कोई हैं, तो स्वयं में है।
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Tuesday, July 17, 2018
मन की साधना
हम सारी उमर साधना के नाम पर मन को साधने मे वर्थ में ही जीवन गवां देते हैं
पर सत्य तो मन के पार है । मन को छोड़ो तब द्वार मिलता है। सत्य मन में या मन से प्राप्त नहीं होता है। वह अ-मन की स्थिति में उपलब्ध होता है।
एक साधु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एक एकांत झोपड़े में रहता और लगातार मन को साधने का अभ्यास करता। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी कोई ध्यान नहीं देता था।
उसका गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गया। मात्सु ने उसकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर उसका गुरु दिन भर वहीं बैठा रहा और एक ईट पत्थर पर घिसता रहा। साधु से अंतत: नहीं रहा गया और उसने पूछा, आप क्या कर रहे हैं? गुरु ने कहा, 'इस ईट का दर्पण बनाना है।' साधु ने कहा- ईट का दर्पण! पागल हुए हैं- जीवन भर घिसने पर भी नहीं बनेगी। यह सुन गुरु हंसने लगा और उसने साधु से पूछा, 'तब तुम क्या कर रहे हो? ईट दर्पण नहीं बनेगी, तो क्या मन दर्पण बन सकता है? ईट भी दर्पण नहीं बनेगी, मन भी दर्पण नहीं बनेगा। मन ही तो धूल है, जिसने दर्पण को ढंका है। उसे छोड़ो और अलग करो, तब सत्य प्राप्त होता है।'
विचार संग्रह मन है और विचार बाहर से आये धूलिकण हैं। उन्हें अलग करना है। उनके हटने पर जो शेष रह जाता है, वह निर्दोष चैतन्य सदा से ही निर्दोष है। निर्विचार में, इस अ-मन की स्थिति में, उस सनातन सत्य के दर्शन होते हैं, साधना का साध्य वही है।
Sunday, July 15, 2018
परमात्मा कहां है
परमात्मा कहां है?
यह प्रश्न कितनों के मन में नहीं है! कल एक युवक पूछ रहे थे। और यह बात ऐसे पूछी जाती है, जैसे कि परमात्मा कोई वस्तु है- खोजने वाले से अलग और भिन्न और जैसे उसे अन्य वस्तुओं की भांति पाया जा सकता है। परमात्मा को पाने की बात ही व्यर्थ है- और उसे समझने की भी। क्योंकि वह मेरे आरपार है। मैं उसमें हूं और ठीक से कहें तो 'मैं' हूं ही नहीं, केवल वही है।
परमात्मा 'जो है' वह नहीं है। वह सत्ता के भीतर 'कुछ' नहीं है; स्वयं सत्ता है। उसका अस्तित्व भी नहीं है, वरन अस्तित्व ही उसमें है। वह 'होने' का अस्तित्व का, अनाम का नाम है।
इससे उसे खोजा नहीं जाता है, क्योंकि मैं भी उसी में हूं। उसमें तो खोया जाता है और खोते ही उसका पाना है।
एक कथा है। एक मछली सागर का नाम सुनते-सुनते थक गयी थी। एक दिन उसने मछलियों की रानी से पूछा : 'मैं सदा से सागर का नाम सुनती आयी हूं, पर सागर है क्या? और कहां है?' रानी ने कहा, 'सागर में ही तुम्हारा जन्म है, जीवन है और जगत है। सागर ही तुम्हारी सत्ता है। सागर ही तुम में है और तुम्हारे बाहर है। सागर से तुम बनी हो और सागर में ही तुम्हारा अंत है। सागर प्रतिक्षण तुम्हें घेरे हुए है।'
परमात्मा प्रत्येक को प्रतिक्षण घेरे हुए है। पर हम मूर्छित हैं, इसलिए उसका दर्शन नहीं होता है। मूच्र्छा जगत है, संसार है। अमूच्र्छा परमात्मा है।
*परमात्मा शब्द भी झूठा है*
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Friday, July 13, 2018
दृष्टा भाव क्या है
*साक्षी और दृष्टा*
विचारों के अलावा जो शेष चेतना है ,वह यदि सोयी हुई है ,तो वह विचारक है यदि यह शेष चेतना जागी हुई है तो यही दृष्टा है . सोई हुई चेतना को विचारक या मन कहते हैं ,अहम का विकार कहते हैं ,कई लोग इस अहम भी कहते है।जाग्रत चेतना को ही दृष्टा कहते हैं । यही मूल अहम भाव है इसमें विकार नहीं है, ये विचार रहित है। इसमें सव्येम का आभास मात्र है। इसलिए इसको निर्विकार अवस्था या दृष्टा कहते हैं। (यहां विकार का अर्थ विचार उत्पन अवस्था से है)
*फिरविचार क्या है ?*
विचार इस चेतना का ही छोटा सा अंश है . विचार विचारक से पृथक नहीं है ,उसी का ही अंश है . विचार विचारक की क्रिया है .जब आप विचार के साक्षी होंगे ,दृष्टा होंगे तब विचार और विचारक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा .सिर्फ आप खालिस जागरूकता होंगे . मूल अहम भाव रहेगा जो दृष्टा है।
*तो साक्षी भाव क्या है???*
इन सबका मूल ही इन सबका साक्षी है। कोई भाव नहीं, वो तो केवल "है" सदा से। इस भाव के विषय में केवल बात हो सकती है, इसे थोड़ा बोहोत महसूस कर सकते हैं, *पर इसमें जबतक हम हैं हम आ नहीं सकते*। जैसे सूर्य के विषय में बात कर सकते हैं , उसकी ऊष्मा को महसूस कर सकते हैं, पर उसपर जायेंगे तो हम समाप्त हो जाएंगे। वैसे ही साक्षी भाव है , यही आत्मा है यही परमात्मा है.. *इसे गीता में उपदृष्टा कहा है* ...
भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।
*इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.*
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।9।
इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है। दृष्टा रहता है.
वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल दृष्टा होने पर ही संभव है.
इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.
मुंडकोपनिषद में दृष्टा भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.
एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (दृष्टा) रहता है. *ध्यान देना इसमें दोनों रहते हैं*
तुम्हारे पास केवल दो ही रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा दृष्टा होकर उस साक्षी की ओर चल पड़ो जिसमें दृष्टा भी समाप्त हो जाता है.
यदि तुम आंतरिक दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल बाह्य दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा होने पर मूल दृष्टा का भाव भी अलग किया जा सकता है फिर विशुद्ध बोध का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.
यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण करकर.
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Thursday, July 12, 2018
स्वर्ग ओर नरक कहां है
* ''स्वर्ग और नरक क्या हैं?''*
*''हम स्वयं!''*
एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, ''मैं जानना चाहता हूं कि स्वर्ग और नरक कैसे हैं?'' उसके गुरु ने कहा, ''आंखें बंद करो और देखो।'' उसने आंखें बंद की और शांत शून्यता में चला गया। फिर, उसके गुरु ने कहा, ''अब स्वर्ग देखो।'' और थोड़ी देर बाद कहा, ''अब नरक!'' जब उस शिष्य ने आंखें खोली थीं, तो वे आश्चर्य से भरी हुई थीं। उसके गुरु ने पूछा, ''क्या देखा?'' वह बोला, ''स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी कि लोग चर्चा करते हैं। न ही अमृत की नदियां थीं और न ही स्वर्ण के भवन थे- वहां तो कुछ भी नहीं था और नरक में भी कुछ नहीं था। न ही अग्नि की ज्वालाएं थी और न ही पीडि़तों के रुदन। इसका कारण क्या है? क्या मैंने स्वर्ग नरक देखें या कि नहीं देखे।''
उसका गुरु हंसने लगा और बोला, ''निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नरक देखें हैं, लेकिन अमृत की नदियां और स्वर्ण के भवन या कि अग्नि की ज्वाला और पीड़ा का रुदन तुम्हें स्वयं ही वहां ले जाने होते हैं। वे वहां नहीं मिलते। जो हम अपने साथ ले जाते हैं, वही वहां हमें उपलब्ध हो जाते हैं। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नरक हैं।''
व्यक्ति जो अपने अंदर मान्यता में होता है, उसे ही अपने बाहर भी पाता है। बाह्य, आंतरिक का प्रक्षेपण है। भीतर स्वर्ग हो, तो बाहर स्वर्ग है। और, भीतर नरक हो, तो बाहर नरक। स्वयं में ही सब कुछ छिपा है।
भीतर परमात्मा तो बाहर भी परमात्मा, *जो कण कण में परमात्मा को देखता है उसे वो कहीं नहीं मिलता ओर जिसे अंदर परमात्मा का भास हो जाता है उसे कण कण में भी परमात्मा दिख जाता है..*
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Wednesday, July 11, 2018
क्या सत्संग से विकार कम होते हैं
प्रश्न-- मैं सारा बहोत सत्संग करता हूँ पर विकार कम नही होते । क्या सत्संग से विकार कम होते हैं ???? कृपया समाधान करें ।
उतर - जिसे तुम सत्संग कह रहे हो वो स्वयं में ही विकार हैं । तो विकार से विकार कैसे कम होंगे । क्या अग्नि से कभी अग्नि बुझी है ।
सतसंग को विकार भाव इसलिय काहा है कयोंकी इसमें दो का भाव है सत्य और संग, अर्थात सत्य का संग करने वाला, अर्थात *अहं* | अपने को सत्य से अलग अहम मान्ते हो, यही अहं भाव सतसंग मे विकार रूप में उपस्थित रहता है.. इसलिय सवंय की शुद्ध पहचान ही सतसंग है..आनंद ही सत्य है ,आप ही आनंद हो..बाहर तो सब झूठ है.. स्वयं सत्ये हो बस संग करने वाले अहम को समाप्त होना हैं यही विकार हैं ।
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Tuesday, July 10, 2018
सुख ओर आनंद
सुख और आनंद में कया भेद है..??
बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
इस प्रतिबिम्ब रूपी सुख के लिय मूल आनंद को कयों भूलाऐ बैठे हो ? और घोर अग्यान दोखिये अपने मूल आनंद को त्याग कर झूठे प्रतिबिम्ब के सुख को पाने के लिय और खोने के भय से अनेक देवी देवताओं की गुलामी करते हो । मूल को पकडो, स्वतंत्र बनो, झूठ में सदा भय रहता है, झूठ गुलाम बनाता है सत्य सदा स्वतंत्र है । केवल सत्य, नित्य भाव में रहो, आनंद रहो ।
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प्रणाम जी
Monday, July 9, 2018
साधना में शरीर को भूखा रखना
*क्या साधना में शरीर को भूखा रखना या अन्य कोई कष्ट देना सहायक हो सकता है ?*
जो किसी भी दिशा में अति करते हैं, वे मार्ग से भटक जाते हैं। एक अति से दूसरी अति पर चला जाना उसे बहुत आसान है। ऐसा उसके मनका स्वभाव ही है। शरीर के प्रति जो बहुत आसक्त है, वही व्यक्ति प्रतिक्रिया में शरीर के प्रति बहुत कठोर और क्रूर हो सकता है। इस कठोरता और क्रूरता में भी वही आसक्ति अप्रत्यक्ष रूप में बोहोत बलवती होती है। और इसलिए जैसे वह पहले शरीर से बंधा था, वैसा अब भी- बिलकुल विपरीत दिशा से शरीर से बंधा होता है। शरीर का ही चिंतन पहले था, शरीर का ही चिंतन अब भी होता है। इस भांति विपरीत अति पर जाकर मन धोखा दे देता है और उसकी जो मूल वृत्ति थी, उसी में रहता है। ये असंयम स्थिति है । फिर संयम किसे कहता हूं? मध्य में थिर होने का नाम संयम है। जहां संयम होता है, वहीं सुगमता है। शरीर के प्रति राग और विराग का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संयम उपलब्ध होता है। संसार के प्रति आसक्ति और विरक्ति का मध्य खोजने और उसमें स्थिर होने से संन्यास का संयम उपलब्ध होता है। इस भांति जो समस्त अतियों में संयम को साधता है, वह अतियों के अतीत हो जाता है । मनुष्य अतियों में जीता है और यदि अतियां न हों, तो अहम विलीन हो जाता है। उसके कोलाहल के विलीन हो जाने पर सहज ही वह आंतरिक संगीत सुनाई पड़ने लगता है, जो कि सदा सदैव से ही स्वयं के भीतर निनादित हो रहा है। स्वयं का वह आनंद रूपी संगीत ही निर्वाण है, मोक्ष है, परम-ब्रह्मं है। ध्यान देना पानी में डूबने से के लिए आग की लपटों में स्वयं को डाल देना-बचाव का कोई मार्ग नहीं है.. दोनों ही स्थितियों में मृत्यु है ।
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Sunday, July 8, 2018
आनंद चाहना
एक सन्यासी आये हैं ।वर्षो से संन्यासी हैं। मैंने पूछा : 'संन्यास क्यों लिया?' बोले, 'आनंद चाहता हूं।'
क्या आनंद भी चाहा जा सकता है? क्या 'चाहने' और 'आनंद' में विरोध नहीं है?
जब उनसे यह कहा ।
तो वो कुछ हैरान से हो गये थे। बोले, 'फिर क्या करें?'
यही तो जड़ है: 'क्या करने में भी चाह छिपी नहीं बैठी है?'
प्रश्न कुछ करने का नहीं है। आनंद के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। वह चाह का अंग नहीं है। उसे चाहना व्यर्थ है। असल में नहीं चाहने की स्थिति को समझना आवश्यक है। नहीं चाहने की स्थिति क्या है, यह जानना है- शास्त्रों से नहीं, स्वयं से। शास्त्रों में तो चाह ही चाह भरी है, शास्त्रों को जानने से ही आनंद की चाह पैदा होती है। और तब 'क्या करने' का प्रश्न उठता है।
उन सन्यासी ने कहा, 'अशांति वासना के कारण है- चाह के कारण है। तृष्णा न हो जाये, तो आनंद है।'
मैंने कहा, 'यह उत्तर शास्त्र से है, स्वयं से नहीं- अगर स्वयं से ये उत्तर देते तो आनंद चाहते नहीं,
चाहने वाले को समाप्त कर देते।
फिर आनंद चाहता हूं, ऐसा कहना संभव नही होता।' गीता में भी लिखा है कि तृष्णा ही नरक है- चाह ही नरक है, तो आनंद को कैसे चाहा जा सकता है? चाह को भी अपने अनुसार दिव्य ओर माया में बांट दिया है,
बस चाहने वाले के विषय में कभी नहीं सोचा ।
कुछ पाने की इच्छा हो जाने से स्वानुभव से उसके प्रति जागें-निर्दोष, निष्पक्ष मन से उसे समझें। यह समझ चाहत की जड़ों अर्थात चाहने वाले अहम को सामने ला देगी। अशांति का मूल वासना है, यह दिखेगा और यह दिखना ही अशांति का विसर्जन बन जाता है।
अशांति का ज्ञान ही उसकी मृत्यु है। ज्ञान का प्रकाश आते ही उसकी समाप्ति है। अहम के विसर्जन पर जो बच रहता है, वह आनंद है। आनंद माया के विपरीत नहीं चाहा जाता है।
वह उसका विरोधी नहीं है। आनंद है, मायाका न हो जाना। इसलिए आनंद को नहीं खोजना है, केवल अहम को जानना है। सीखा हुआ शास्त्र ज्ञान, इस ज्ञान में बाधा बन जाता है। क्योंकि सीखने सिखाने ओर ज्ञानी होजाने में अहम ही कार्य करता है, क्योंकि बंधे-बंधाये उत्तर स्वानुभूति के पूर्व बेकार के निष्कर्षो से चित्त को भर देते हैं। इन बेकार निष्कर्षो से कोई परिवर्तन नहीं होता है। स्वानुभूति ही मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति को आत्मिक जीवन में वयर्थ ज्ञान के बोझ को उतारकर चलना होता है।होनों के भाव को गहराई से समझना होता है ।
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