*क्या विनम्र होकर, सबसे प्रेम करके या अन्य किसी प्रयास से अपने अहम को समाप्त कर सकते है?*
अहंकार के मार्ग अति सूक्ष्म हैं । ओढ़ी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है । ऐसी विनम्रता उसे ढकती कम- और प्रकट ज्यादा करती है । वस्तुत: न तो प्रेम को ओढ़कर अहम मिटाया जा सकता है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढकी जा सकती है । राख के नीचे जैसे अंगरे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा-सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है ।
ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्त्वों में यथार्थ दबा रहता है । एक धीमी-सी खरोंच ही अभिनय को तोड़कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है । ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं, लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव बन जाता है । हजारों वर्षों से जबरदस्ती अहम को दबाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है । अहम को मिटाने में तो नहीं, उसे ढकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है और इस भांति तथाकथित यह अहम एक महारोग सिद्ध हुआ है ।
*तो करना क्या है*
*इसके विष्य में तुम्हे एक जबरदस्त बात बताता हूं ।*
*जब तुम बाल्टी या किसी भी अन्य पात्र से समुद्र को खाली करने का प्रयास करते हो तो समुंद्र कभी भी खाली नहीं होगा ये तो सत्य है, पर एक सत्य ओर है जिस से आप अनभिज्ञ रहते हो, वोंक्या है ? वो ये है कि आप जिस बाल्टी या पात्र से उसे खाली करने गए थे उसमें भी समुन्द आ गया है अर्थात वो भी खारा हो गया है। इसलिए जब तुम अहम को समाप्त करने का प्रयास करते हो तो अहम समाप्त नहीं होता बल्कि तुम्हारे प्रयासों में भी अहम आ जाता है, वो प्रयास है - विनम्र होना, सबसे प्रेम करना, सन्यासी होना, गुरु होना, चेला होना आदि आदि।*
तो ये समाप्त कैसे हो?
*अंधेरे को समाप्त नहीं कर सकते कभी भी, बस आप उजाला कर सकते हो। फिर अंधेरा रहेगा ही नही, अहम नहीं मिटाना बस आत्मज्ञान का उजाला करना है।*
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