Friday, July 13, 2018

दृष्टा भाव क्या है

*साक्षी और दृष्टा*

विचारों के अलावा जो शेष चेतना है ,वह यदि सोयी हुई है ,तो वह विचारक है यदि यह शेष चेतना जागी हुई है तो यही दृष्टा है . सोई हुई चेतना को विचारक या मन कहते हैं ,अहम का विकार कहते हैं ,कई लोग इस अहम भी कहते है।जाग्रत चेतना को ही दृष्टा कहते हैं । यही मूल अहम भाव है इसमें विकार नहीं है, ये विचार रहित है। इसमें सव्येम का आभास मात्र है। इसलिए इसको निर्विकार अवस्था या दृष्टा कहते हैं। (यहां विकार का अर्थ विचार उत्पन अवस्था से है)

*फिरविचार क्या है ?*

विचार इस चेतना का ही छोटा सा अंश है . विचार विचारक से पृथक नहीं है ,उसी का ही अंश है . विचार विचारक की क्रिया है .जब आप विचार के साक्षी होंगे ,दृष्टा होंगे तब विचार और विचारक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा .सिर्फ आप खालिस जागरूकता होंगे . मूल अहम भाव रहेगा जो दृष्टा है।

*तो साक्षी भाव क्या है???*

इन सबका मूल ही इन सबका साक्षी है। कोई भाव नहीं, वो तो केवल "है" सदा से। इस भाव के विषय में केवल बात हो सकती है, इसे थोड़ा बोहोत महसूस कर सकते हैं, *पर इसमें जबतक हम हैं हम आ नहीं सकते*। जैसे सूर्य के विषय में बात कर सकते हैं , उसकी ऊष्मा को महसूस कर सकते हैं, पर उसपर जायेंगे तो हम समाप्त हो जाएंगे। वैसे ही साक्षी भाव है , यही आत्मा है यही परमात्मा है.. *इसे गीता में उपदृष्टा कहा है* ...

भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

*इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.*

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।  दृष्टा रहता है.

वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल दृष्टा होने पर ही संभव है.

इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान  में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.

मुंडकोपनिषद में दृष्टा भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.

तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.

एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (दृष्टा)  रहता है. *ध्यान देना इसमें दोनों रहते हैं*

तुम्हारे पास केवल दो ही रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा  दृष्टा  होकर उस साक्षी की ओर चल पड़ो जिसमें दृष्टा भी समाप्त हो जाता है.
यदि तुम आंतरिक दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल बाह्य दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा होने पर मूल दृष्टा का भाव भी अलग किया जा सकता है फिर विशुद्ध बोध का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.

यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण करकर.
Satsangwithparveen.blogspot.com
&
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
🙏🏻🙏🏻

No comments:

Post a Comment