एक व्यक्ति मंदिर में जाता था, वहा के गुरु अपने शिष्यों को रोज धर्म ग्रंथो से प्रवचन देते थे, ओर वो मोन सुनता रहता था, पर एक दिन उसने वहां के गुरु को देख कर कहा 'मंदिर तो बहुत सुंदर है, पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है।' गुरु ने सुना, उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। निश्चय ही वे शब्द उससे ही कहे गये थे। उसके ही सुंदर शरीर को उसने मंदिर कहा था। गुरु के क्रोध को देखकर वह युवक हंसने लगा। वह ऐसा ही था कि जैसे कोई जलती अग्नि पर और घृत डाल दे। गुरु ने उसे आश्रम से निकाल दिया ।
फिर एक सुबह जब गुरु अपने धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा था, वह युवक अनायास कहीं से आकर पास बैठ गया । वह बैठा रहा, गुरु पढ़ता रहा। तभी एक जंगली मधुमक्खी कक्ष में आकर बाहर जाने का मार्ग खोजने लगी । द्वार तो खुला ही था-वही द्वार, जिससे वह भीतर आयी थी, पर वह बिलकुल अंधी होकर बंद खिड़की से निकलने की व्यर्थ चेष्टा कर रही थी। उसकी भनभन मंदिर के सन्नाटे में गूंज रही थी। उस युवक ने खड़े होकर जोर से उस मधुमक्खी से कहा, 'ओ, नासमझ, वह द्वार नहीं, दीवार है। रुक और पीछे देख, जहां से तेरा आना हुआ है, द्वार वही है।'
मधुमक्खी ने तो नहीं, पर उस गुरु ने ये शब्द अवश्य सुने और उसे द्वार मिल गया। उसने युवक की आंखों में पहली बार देखा वह कोई साधारण नहीं है।
गुरु ने उससे कहा, 'मैं आज जान रहा हूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली है और मैं आज जान रहा हूं कि मैं आज तक दीवार से ही सिर मारता रहा हूं और मुझे द्वार नहीं मिला है। पर अब मैं द्वार को पाने के लिए क्या करूं? क्या करूं कि मेरा मंदिर भगवान से खाली न रहे?' उस युवक ने कहा, 'भगवान को चाहते हो, तो स्वयं से खाली हो जाओ। जो स्वयं भरा है, वही भगवान से खाली है। जो स्वयं से खाली हो जाता है, वह पाता है कि वह सदा से ही भगवान से भरा हुआ था। और इस सत्य तक द्वार पाना चाहते हो, तो वही करो, जो वह अब मधुमक्खी कर रही है।'
गुरु ने देखा मधुमक्खी अब कुछ नहीं कर रही है। वह दीवार पर बैठी है और बस बैठी है। उसने समझा, वह जागा। जैसे अंधेरे में बिजली कौंध गई हो, ऐसा उसने जाना और उसने देखा कि मधुमक्खी द्वार से बाहर जा रही है।
यह कथा मेरा पूरा संदेश है। यही मैं कह रहा हूं। भगवान को पाने को कुछ करना नहीं है, वरन सब करना छोड़कर देखना है। चित्त जब शांत होता है और देखता है, तो द्वार मिल जाता है। शांत और शून्य चित्त ही द्वार है। मधुमक्खी का द्वार भी वहीं था जहासे वो आयी थी, हमारा दुआर भी वहीं भाव है जब हम दुनिया में आए थे तो हमारा चित शांत था, वही हमारा बाहर निकले का दुआर है, परंतु हम भी वो दुआर छोड़ कर भिनभिना रहे हैं ओर दीवारों में सर मार रहे हैं ।
*धर्म को सीख कर हमने धर्म पर लड़ना सीख लिया है, जो सीखा है वही हमारे लिए श्रेष्ठ है ओर हम पूरी उम्र उसी पे भिनभिनाते रहते है । *किसी ने कृष्ण सीखा है तो किसी ने श्रीजी, किसी ने राम तो किसी ने अल्लाह, किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ, सारे अपने आप को भर रहे हैं, कोई खाली नहीं होना चाहता, ये खाली ही हमारा दुआर है।*
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