Monday, February 29, 2016

जो कोई पीउ के अंग प्यारा ,ताको प्रेम निमख न करे न्यारा |
प्रेम पिया को भावे सो  करे , पिया के दिल की दिल धरे  ||
{परिक्रमा }

जो परमात्मा की अंगा उनकी प्यारी आत्माएं है वो प्रेम का ही अंग हैं क्योंकि परमात्मा स्वयम शुद्ध प्रेम है इसलिए आत्मा उनकी ही अंगी है
जैसे लहरें सागर से अलग नही होती क्योंकि वो पानी की ही स्वरूपा हैं ,किरण कभी भी सूर्ये से अलग नही है क्योंकि वो सूर्ये के ताम से बनी हैं
इसी प्रकार ये आत्माएं प्रेम स्वरुप हैं ये प्रेम से अलग केसे हो सकती है क्या कभी लहरों से पानी को निकला जा सकता है ? इसलिए
ये सदा परमात्मा के अनुकूल ही ही कार्य करती हैं क्योंकि शुद्ध अंशी कभी भी अपने अंश के प्रतिकूल नही हो सकता जिस प्रकार सोने के बड़े ढेले
से अगर थोडा हिस्सा भी लिए जाये तो वो सोने के गी गुण लिए होता है अर्थात जो सोने का स्वाभाव है वोही स्वाभाव उस अंश का भी होता है उसका
स्वाभाव कभी भी बड़े ढेले से प्रतिकूल नही हो सकता यह अदुयेत भाव है इसलिए दोनों के हृदये एक ही हैं वो जो भाव परमात्मा के हृदये के होते है वही भाव आत्मा के हृदये में
अपने आप स्थापित या उत्पन्न हो जाते है यही वहेदत या एकदिली के भाव है ,यही अदुयेत  है ...

प्रणाम जी 

Friday, February 26, 2016

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचि ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर: ॥
भागवत १०/८४/१३

भावर्थ वसुदेवजीके यज्ञ महोत्सव में श्री कृष्णजी उपदेश देते हैं - हे महत्माओं एवं सभासदों । जो मनुष्य कफ़, वात, पित्त इस तीन धातुओं से बने हुए शव तुल्य शरीर को ही "आत्मा या मैं" स्त्री पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टि, पत्थर, लकडी आदि पार्थिव विकारों को ही "इष्टदेव" मानता है तथा जो केवल जल को ही तिर्थ समझता है लेकिन ज्ञानी महापुरुषों (चल तीर्थ) को तीर्थ नहीं समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा के समान अग्यानी है...

प्रणाम जी

Wednesday, February 24, 2016

सुप्रभात जी

एक महात्मा जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे | रास्ते में एक सांप घायल अवस्था में पड़ा हुआ था और उस पर तमाम चींटियाँ लग रही थी | सांप हिल सकता नहीं था बैचैन होकर अपना फन उठाता था फिर गिर जाता था |

महात्मा जी उसे देखकर रो पड़े | शिष्यों को समझ में नहीं आया | उन्होंने कहा कि महाराज जी आप क्यों रो रहे हैं ? महात्मा जी बोले कि कर्मों का ऐसा विधान है जिसे जीव अपनी अज्ञानता में नहीं समझ पाता है | यह सांप कभी गुरु बना था | महात्माओं की नक़ल की और इतने शिष्य बनाये | इसने शिष्यों से तरह तरह की तन मन धन की सेवा ली लेकिन उनकी आत्माओं का कल्याण नहीं कर सका | क्योंकि इसने अपनी आत्मा का भी कल्याण नहीं किया था | अब कर्मी के जाल में फंसकर वह गुरु सांप बना और उसके सारे शिष्य चींटियाँ बन गये हैं | अब ये चींटिया इस घायल सांप को काट रही हैं और कह रही हैं कि मेरी सेवाओं का बदला दो | तुमने मुझे क्यों धोखे में रक्खा , मेरा आत्म कल्याण नहीं किया और ये बेचारा सांप ऐसी अधोगति में पड़ा हुआ पीड़ा सह रहा है और कुछ कर नहीं पा रहा है |

महात्मा जी ने आगे कहा कि गुरुतत्व को समझ पाना कोई हंसी खेल नहीं है , सबसे गहन काम है | आजकल चेले बनाकर उनकी सेवाओं को लेकर  भी उनका आत्म कल्याण  नही होता कयोंकी आत्म कल्याण के अलग मायने हैं ..ऐसे गुरूओं से  वो जीव अपना बदला मांगते है | गृहस्थों के खून पसीने की कमाई की रोटी खाकर जो साधू उनका कल्याण नहीं करता तो ये रोटियां उसके आँतों को फाड़ देती हैं और दोनो को अधोगती में जाना पडता है..इसलिय गूरूतत्व का बोध होना आत्मकल्याण के लिय परमआवश्क है..

प्रणाम जी

.किन्तु परमात्मा का प्रेम-रस पीना और उसमें मग्न भी न होना बहुत कठिन है।

जो कोई ऐसे मगन होए खेले प्रेम में, तो या बिध हमको है री सेहेल।
पर पीवना प्रेम और मगन न होना, ए सुख औरों हैं मुस्किल।।

जिस जीव को आत्म भाव में आकर आत्म हृदय में विदयमान परमात्मा के आनंद का रस मिलने लगता है फिर वह इस रस मे मग्न होकर इस से कदापि अलग नही हो सकता इसे ही जीव का परमात्मा से प्रेम कहते हैं .कयोंकि जीव, आत्माका दृष्टि माध्यम है इसलिय आतमा जीव पर बैठ कर प्रकृती प्रिवर्तन का प्रतिबिम्बित रूप देखती है..और इस प्रकार जीव का परमात्मा से प्रेम देखकर वह नींद से अपने स्वरूप का बोध प्राप्त कर लेती है फिर वह अपने सत्य दूैत प्रेम के बोध में आ जाती है । भले ही उसको जीव का शरीर इस संसार में दिखायी देता है, लेकिन उसकी सुरता(ध्यान) हद-बेहद से परे परमधाम में अपने परमात्मा से प्रेम-क्रीड़ा कर रही होती है।
यदि कोई संसार में रहते हुए इस तरह परमात्मा के प्रेम में मग्न हो जाये, तो यह मार्ग हमें बहुत सरल लगता है, ऐसे अनेको संत हुये हैं जो परमात्मा के प्रेम में सुद बुध खोकर होश गवा बैठे थे ..किन्तु परमात्मा का प्रेम-रस पीना और उसमें मग्न भी न होना बहुत कठिन है। ब्रह्मसृष्टियों के सिवाय अन्य कोई इस राह पर नहीं चल पाता।

प्रणाम जी

Tuesday, February 23, 2016

सुप्रभात जी

" शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च || "
(मनु.१.१०)
ब्राह्मण वर्ण में पैदा होने वाला व्यक्ति भी यदि ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म और स्वभाव वाला नहीं हैं तो वह शूद्र वर्ण में गिना जायेगा और शूद्र वर्ण में पैदा होने वाला व्यक्ति भी यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म और स्वभाव को अपना लेता हैं तो वह ब्राह्मण में गिना जायेगा ...
हे साधुजन संसार मे शुध्द या उच्च वर्ग का मुल्यान्कन शरीर की जाती से नही अपितू उसके अनतःकरण की स्थिती के आधार पर होता है ..इसलिये वैष्णव कहलाने का अधिकार केवल उसीको है जिसका अन्तःकरण शुध्द हो गया हो जिसकि आतम दृष्टि खुल चुकि हो ऐसा आत्मभावी ही वैष्णव कहलाने के लायक है..कयोंकी वह वे सब कर्म जिसे तुम नीच या ऊंच की दृष्टि से देखते हो वो दोनो को ही त्याग चुका है ..उसे पारबृह्म की पहचान हो चुकी है..पर वो बाहर जाहिर नही करता ..उसके जीव की स्थिती अन्य जीवो की तुलना में बहोत श्रेष्ट
हो चुकी होने के कारण उसे वैष्णव कहा जायगा व केवल वही सच्चा वैष्णव है ..अन्यथा ये शरीर तो मिटने वाले व गन्दगी से ही बने है जिनमे मल भरा हुवा है इनसे केसे कोइ वैष्णव हो सकता हैं..
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प्रणाम जी
कहा भयो जो मुखथे कह्यो , जब लग चोट न निकसी फूट |
प्रेम बान तो ऐसे लगत हैं , अंग हॉट है टूक टूक ||

परमात्मा के विषये में मुख से कहने से कुछ नही होगा . एक धारणा बन गयी है की परमात्मा का गुणगान करने से भाव सागर से पार हो जाते है इस विषये में पुछा जाये तो उदाहरण संतो आदि के देने लगते है पर उन संतो की मनोदशा क्या रही होगी इस विषये में जानते ही नही हैं केवल जो देख सुन रखा है उसी को सत्ये मान कर बस चले जा रहे है .
कई बार देखने में आता है की बड़ी बड़ी सभाओ में लोग परमात्मा का गुणगान करके लोगो को संगीत के मध्येम से मंत्र मुग्ध कर  देते हैं और लोग समझते है की वे परमात्मा का गुणगान करके सत्ये मार्ग पर चल रहे हैं और मृत्यु के वक्त उन्हें लेने कोई विशेष विमान आयेगा घोर अंधकार चल रहा है सत्ये के नाम पर ,परन्तु सत्ये तो ये है की परमात्मा के विषये में केवल मुख से कहने पर कुछ नही होगा . जब तक सत्येकी चोट जीव के हृदये पर नही लगेगी तब तक उसके हृदये में सत्ये ज्ञान रूपी अंकुर नही फूट पायेगा और परमात्मा से प्रेम नही हो पायेगा , प्रेम का अर्थ मै और तू नही है परमात्मा सेप्रेम तो वह  स्थिति है जहाँ मै और तू नही रह जाता , मै और तू से आगे कही गहराई में जाके भावों का ऐसा आवरण बन जाता है जिसमे जीव के आंसू भी नही निकलते ,जब ये
परमात्मा के प्रेम के बाण लगते है तो जीव उस सत्ये के सागर में इस कदर डूब जाता है की उसके खुद के अंग इस सत्ये में टुकड़े टुकड़े होकर बहने लगते हैं ये भाव शब्दातीत होते हैं इसलिए परमातम के विषये में केवल कहने मात्र से या उनका गुणगान करने मात्र से कुछ नही होगा अपितु उनके सत्ये प्रेम के मार्ग पर निरंतर आगे बढ़ना होगा ...

प्रणाम जी

Sunday, February 21, 2016

सुप्रभात जी

प्रश्न : मन का मौन क्या है ?
उत्तर: दो चीजें है मन और उसका दृष्टा [साक्षी /आत्मा] .मन दृश्य है .
सामान्य व्यक्ति मन के साथ तदाकार होकर जीता है ,मन के साथ एकाकार होकर जीता है ,उसे दृष्टा का पता नहीं होता है.
जब साधक मन को दृष्टा ,साक्षी होकर अवलोकन करता है ,ध्यान करता है ,तब मन ,विचार धीरे धीरे शांत हो जाते हैं .
इस मन की शांत स्थिति का नाम "मन का मौन " है .
इस 'मन के मौन ' में अनुभव होता है कि 'मैं मन नहीं हूँ ' ,मैं मन के पर मन का साक्षी जीव व उसपर बैठी आत्मा हूँ .
यह 'साक्षी आत्मा ' सदा ही मौन है ,'साक्षी आत्मा '-'अखंड मौन है (अखंड आनंदित)'
'मन का मौन ' अस्थाई है ,किन्तु 'आत्मा ' शाश्वत मौन है .
हमारा लक्ष्य 'साक्षी आत्मा ' का अखंड मौन याने 'अखंड आनंद' है ,जो 'मन के मौन ' में ही अनुभव होता है -इसे ध्यान कहते हैं .
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प्रणाम जी

इलम चातुरी खूबी अंग की, मोहे एही पट लिख्या अंकूर।
एही न देवे देखने, मेरे दुलहे के मुख का नूर।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
ज्ञान सीख लेने पर वह बुद्धि कौशल से प्रस्तुत किया जाता हैं जिसका प्रतिबिम्ब अहंकार तक पहुंच कर मान व प्रशंषा की कामना का रुप धारण कर के हृदये के अंग बुद्धि पे जहरीले शर्प की भांति कुंडली मार के बैठ जाता है जो निरंतर कामना का जहर उगलता रहता है और जब मान की कामना में कोई अड़चन हो जाती है तो उस शर्प का भाई क्रोध उत्पन हो जाता हैं , यही सीखा हुआ ज्ञान वास्तविक ज्ञान को हृदये तक नही पहुंचने देता यही उधार का ज्ञान वाद विवाद का कारण बनता है हमे वही सच लगता है जो हमने कहीं  सीखा या पढ़ा होता है उसके अलावा हम कीसी की बात ग्रहण नही करते चाहे वह परम सत्ये ही क्यों न हो यही ज्ञान की चतुराई हमे अहंकार से आगे नही जाने देती जहाँ शुद्ध आत्मा का निवास है जिसे अंकुर कहा जाता हैं अब ध्यान देने वाली बात है की यही अंकुर सत्ये ज्ञान का अंकुर हैं जिस पर हमने बुद्धि की चतुराई को इस प्रकार बैठा दिया हैं की हमारे हमारे जीव की पहुंच उस अंकुर तक नही पहुंच पाती जिस कारण सत्ये ज्ञान अंकुरित नही हो पता , सीधा सा उदाहरण हैं की सबने सीख रखा हैं की हम ब्रह्मआत्मा हैं जब तक आपको अहसास नही हो जाता की आप ब्रह्म आत्मा हैं यह ज्ञान उधार का हैं तब तक आप उन्ही बातो पे लड़ते रहोगे जो आपने सीख रखी हैं  या जो नाम जिसे हम तारतम "मंत्र" कह कर जपते हैं जिसने जो भी सीखा हैं उसके आलावा दूसरे को नही सहन कर सकते ,लडने लगते हो.. यही पर्दा हैं जो अंकुर याने आत्म दृष्टि तक जीव की दृष्टि नही जाने देती इसी कारण हम परमात्मा का दीदार नही कर पा रहे और बड़ी बड़ी दलील देते हैं की मैं परमात्मा के लिए सारी रात रोया या रोयी क्या बच्चो जैसी बात है हमसे ज्यादा तो बच्चे रोते है सब रो रहे हैं संसार में अपने अपने आनंद के लिए हम भी रो लिए तो क्या हुआ बस कहीं से सुन लिया की परमात्मा की याद में गिरा आंसू मोती बन जाता हैं फ्ला ढिमका आदि आदि बस सीख रखा है तो सत्य मान बैठे है..अरे आत्म दृष्टि से दृष्टि मिला के तो देखो सीधी परमात्मा से दृष्टि मिल जाएगी जो तुम्हारे पास हैं याने जो स्वास नली से भी नजदीक हैं उसके लिए  रोते हो ,क्योंकि ज्ञान चतुराई में मूल ज्ञान के अंकुर को पनपने नही देते.यही सबसे बड़ा रोग हैं जो परमात्मा का दीदार और हमारे बीच पर्दा बना हुआ हैं....जिस दिन मूल ग्यान याने सत्य ग्यान का अंकूर फूटने लगेगा उस दिन यह उधार का ग्यान अग्नी की भांती ताप देने वाला लगेगा और इस से दूर भागोगे ..तभी बिना विलंब परमात्मा को पा लोगे ...

प्रणाम जी

Saturday, February 20, 2016

सुप्रभात जी

यह मोह सागर ऊँचा, नीचा, गहरा तथा चारों ओर विशालरूपमें फैला हुआ है (इन चौदहलोकोंमें सर्वत्र मोह व्याप्त है). बड़ा कठिन समय सामने आ गया है. अज्ञाानका अन्धकार इतना व्याप्त है कि स्वयंको अपने हाथ पैर तथा सिर भी नहीं सूझते हैं (अज्ञाानके कारण आत्माएँ स्वयंको तथा अपने अंगी परमात्माको भी पहचान नहीं सकतीं). ऐसे समयमें इस अज्ञाानरूपी अन्धकारसे बाहर निकलना बहोत कठिन है...
मूल भाव-- जिस प्रकार एक खाली बर्तन में अगर कोइ अचार आदी महक वाली कोई वस्तु रखें तो और कुछ समय के बाद उसे खाली करके चाहे कितना भी धो लें पर उसकी महक नही जाती पर अगर उस बर्तन में कोई मंहगा इत्र रख दें तो कुछ समय के बाद उसमें से इत्र की खुशबु आने लगती है..इसी प्रकार ये जीव के ह्रदय मे विषय विकार अन्नत जन्मों से रखे हुये है उन्हे निकालने का कितना भी प्रयास कर लो पर उनकी महक नही जाती ..पर जब उसकी जगह परमात्मा रूपी इत्र रख दिया जायेगा अर्थात परमात्मा को धारण कर लेंगे तो माया की महक नही रहेगी..
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प्रणाम जी
यामें गुनी ज्ञानी मुनि महंत , अगम कर कर गावें |
सुनें  सीखें पढ़ें पंडित , पार कोई न पावें ||

यहाँ सभी साधू ज्ञानी और अपना शरीर उस परमात्मा के मार्ग पे लगाने वाले लोग बड़ी बड़ी सभाए करके उस परमात्मा को अगम अर्थात मन बुध्दि
से परे बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं , किसी को भी परमात्मा का प्रत्येक्ष अनुभव नही होने के कारण वे केवल उन्ही बातों को सत्ये मानते है जो उन्होंने
सीख ,सुन या पढ़ रखा है इस कारण वे परमात्मा को बहोत दूर समझ कर सत्ये तक नही पहुंच पाते...इसलिए हे साधूजन केवल ऐसे लोगो का सनिध्ये
करना चाहिए जिन्होंने परमात्मा को पा लिया है और जो किताबी ज्ञान से आगे की बात करते हैं ....जो ये जान गये हैं की परमात्मा स्वास नली से भी
नजदीक हैं ....

प्रणाम जी 

Friday, February 19, 2016

सुप्रभात जी

जब हम अल्प को पूर्ण मान लेते हैं तो यह अग्यान का परिचायक है..अग्यान विकारो का जनक है ,वाद विवाद , समप्रदायवाद आदि अनेक विकार इस से उत्पन्न होते है..अब यह जान्ना आवयश्क है की अल्प और पुर्ण कया है ..
*पूर्ण बृह्म परमात्मा पूर्ण है..कयोंकी पूर्ण में कभी अभाव नही हो सकता इसलिय परमात्मा मे किसी भी वस्तु का अभाव नही है अगर हम ये कहें की वो ये नही है या वो नही है तो यह सोचना उचित नही है कयोंकी वो सब कुछ है कयोंकी वो पूर्ण है ..
वो श्रिजी साहिब जी भी है ,वो कृष्ण भी है ,वो राम भी है ,वो अल्लाह भी है वो सचिन भी है ,वो संजय भी है , वो विपुल भी है ,वो तृप्ता भी है ,वो प्रवीण भी है, वो पूर्ण है इसलिय वो सब है पर ये सब मे वो ""भी"" है ..वो इन अल्प मे"" ही "" नही है ,,,
जैसे वो कृष्ण भी है पर वो कृष्ण ही नही है ,वो श्रिजीसाहीबजी भी है पर केवल ये ही नही है इसलिय वाणी में उनको कहीं कृष्ण कही साहीब कही अल्लाह कही इमाम आदी आदी काहा है और फीर शब्दातीत कह दिया गया..विकार जब उत्पन्न होते हैं जब हम "भी" को "ही" मान लेते हैं इसलिय हम भी में अटक कर "ही" तक नही पहूंच पाते और "भी" पर वाद विवाद करके जीवन व्यर्थ गवां देते है यही अग्यान है..इसलिय जहां हम अटक गये हैं उस से निकल कर हमे पुर्णबृह्म को जान्ने का प्रयास करना चाहिय...
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प्रणाम जी

Thursday, February 18, 2016

सुप्रभात जी

इस शरीर में स्थित आत्मा (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक पहुँचती है।
मैं (झूठ) का जल बहुत गहरा है। यह हमारे और परमात्मा के बीच उस परदे की तरह है, जो परमात्मा का दीदार नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक हमारी अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक नहीं पहुँच पाती।
यह स्पष्ट है कि बेशक होकर मैं (अहम् याने झूठ) का परित्याग किये बिना परमात्मा से मिलन सम्भव ही नहीं है।
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प्रणाम जी

Tuesday, February 16, 2016

सुप्रभात जी

विवेक सम्पन्न पुरुष एकान्त स्थानों में या लोकाकीर्ण नगरों में, सरोवरों में, वनों में या उद्यानों में, तीर्थो में या अपने घरों में, मित्रों की विलासपूर्ण क्रीड़ाओं में या उत्सव-भोजनादि समारम्भों में एवं शास्त्रों की तर्कपूर्ण चर्चाओं में आसक्ति न होने से कहीं भी लम्बे समय तक लिप्त नहीं होते। कदाचित कहीं रुकें तो तत्त्वज्ञान का ही अन्वेषण करते हैं । वे विवेकी पुरुष पूर्ण शांत, इन्द्रियनिग्रही, स्वात्मारामी, मौनी और एकमात्र विज्ञानस्वरुप ब्रह्म का ही कथन करनेवाले होते हैं । अभ्यास और वैराग्य के बल से वे स्वयं परमपदस्वरुप परमात्मा में विश्रांति पा लेते हैं । वे मनोलय की पूर्ण अवस्था में आरुढ़ हो जाते हैं । जिस प्रकार ह्रदयहीन पत्थरों को दूध का स्वाद नहीं आता, उसी प्रकार इन अलौकिक पुरुषों को विषयों में रस नहीं आता ...ये आंतरिक स्थिती है बाह्य रूप चाहे जो हो...बाह्य रूप से कभी भी आंतरिक स्थिती का परिचय नही होता...

प्रणाम जी
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो  केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...

प्रणाम जी

Monday, February 15, 2016

प्रणाम जी

भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।
पूर्णआनंद न योग से प्राप्त (सिद्ध) होता है और न सांख्य से; न कर्म से और न विद्या से। केवल बह्यत्मैक्य बोध (ब्रम्ह और आत्मा की एकता के बोध) से ही होता है और किसी प्रकार नहीं...
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सुप्रभात जी
अरे मन ! तू निरन्तर परमात्मा का ध्यान कर | तू समझता है कि विषयों को मैं भोगता हूँ किन्तु सच यह है कि विषय तुझे भोग रहे हैं | तू कामादिकों को सांसारिक विषय देकर मिटाना चाहता है किन्तु जलती हुई आग में घी पड़ने के समान तेरी वासनाएँ प्रतिक्षण बढ़ती जाती हैं | ऐसा अनुभव करते - करते यद्यपि तुझे अनन्त युग बीत चुके फिर भी तेरी नींद नहीं खुली | तू अब भी मेरी बात मान ले एवं परमात्मा से प्रेम कर | उन्हीं के प्रेम जल से यह तेरी कामनाओं की आग बुझ सकती है ...

प्रणाम जी

Saturday, February 13, 2016

सुप्रभात जी

पुर्णबृह्म परमात्मा ने इस संसार में गुप्त रूप से लीला की पर हम केवल अवतार वाद में उलझ कर मूल तत्व को नही समझ पाये इसलिय उनके वजूदो (शरीरों) को ही परमात्मा समझ कर अपने अपने परमात्मा बना कर बैठ गये व अग्यानता वश आपस में झगडने लगे । पहले उन्होंने श्री कृष्ण के तन में लीला की, जिसके फलस्वरूप लाखों लोग "कृष्ण-कृष्ण" जपते हुए आज भी उनके मधुर प्रेममय स्वरूप पर बलिहारी जाते हैं । उनके द्वारा भेजे गए सत् अंग श्री अक्षर ब्रह्म ने अरब में उनकी महिमा गाई और आज करोड़ों लोग इस्लाम की राह पर चल रहे हैं । उनकी कृपा से श्री श्यामा जी ने जामनगर में तारतम ज्ञान प्रकट किया । श्री श्यामा जी के दूसरे तन (श्री मिहिरराज) में श्री इन्द्रावती जी के हृदय में विराजमान होकर सच्चिदानन्द पुर्णबृह्म परमात्मा ने खुलकर संसार के सामने सम्वत् १७३५ में जाहेर हो गय...  👇👇
(परमधाम की आत्मायें सुन्दरी और इन्दिरा (श्यामा जी और इन्द्रावती जी) जिन दो तनों में प्रकट होंगी, उनके नाम चन्द्र और सूर्य (देवचन्द्र और मिहिरराज) होंगे । तथा इनके अन्दर साक्षात् परब्रह्म विराजमान होकर लीला करेंगे, जिससे माया के अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो जाएगा । *पूराण संहीता ,३१/५२-७० का सारांश*)
पर ज्ञान के अभाव व माया के प्रभाव के कारण लोग इन  लीलाओं के पीछे परमात्मा के असली स्वरूप की पहचान नहीं कर पाये ।
इसलिय परमात्मा के मूल तत्व का बोध होना परम आवश्यक है...for more click 👇
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प्रणाम जी

Friday, February 12, 2016

सुप्रभात जी

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अगर किसी भी ग्यान से परमात्मा का प्रेम नहीं बढ़ता तो वह ज्ञान , प्राणहीन शरीर के समान है।

 एक बहुत बड़े सूफी फकीर हसन के पास एक युवक आया। वह बहुत कुशल तार्किक था पंडित था, शास्त्रों का ज्ञाता था। जल्दी ही उसकी खबर पहुंच गई और हसन के शिष्यों में वह सब से ज्यादा प्रसिद्ध हो गया। दूर—दूर से लोग उससे पूछने आने लगे। यहां तक हालत आ गई कि लोग हसन की भी कम फिक्र करते और उसके शिष्य की ज्यादा फिक्र करते। क्योंकि हसन तो अक्सर चुप रहता। और उसका शिष्य बड़ा कुशल था सवालों। को सुलझाने में।
एक दिन एक आदमी ने हसन से आकर कहा, इतना अदभुत शिष्य है तुम्हारा! इतना वह ग्यान जानता है कि हमने तो दूसरा ऐसा कोई आदमी नहीं देखा। धन्यभागी हो तुम ऐसे शिष्य को पाकर। हसन ने कहा कि मैं उसके लिए रोता हूं क्योंकि वह केवल जानता है। और जानने में इतना समय लगा रहा है कि भावना कब कर पाएगा? परमात्मा से प्रेम कब कर पाएगा? जानने में ही जिंदगी उसकी खोई जा रही है, तो भाव कब करेगा? मैं उसके लिए रोता हूं। उसको अवसर भी नहीं है, समय भी नहीं है। वह बुद्धि से ही लगा हुआ है।

बुद्धि से सब कुछ मिल जाए, प्रेम का स्रोत नहीं मिलता। वह वहा नहीं है।  बुद्धि एक उपयोगिता है; एक यंत्र ‘ है, जिसकी जरूरत है। लेकिन वह आप नहीं हैं। जैसे हाथ है, ऐसे बुद्धि एक आपका यंत्र है। उसकी उपयोग करें, लेकिन उसके साथ एक मत हो जाएं। उसका उपयोग करें और एक तरफ रख दें। प्रेम से ही परमात्मा मिलेंगे...


प्रणाम जी

Thursday, February 11, 2016

सुप्रभात जी

" निष्काम हो जाना "
निष्काम होने का अभिप्राय निष्कर्म होना अथवा कर्म से पलायन नहीं है। कर्म करते हुए, सांसारिक कर्मो में अपनी लिप्तता बनाएरखकर भी निष्काम हो जाना ,सुनने में असंभव और विचित्र सा लगता है? नादान व्यस्ति अकर्मण्यता को ही निष्काम्यता का पर्याय मान लेता है। कुछ लोग निष्काम होने के लिए संन्यास की शरण में जाते रहे हैं। लेकिन देह पर संन्यासी बाना धारण कर वन।वन घूमने से तो सचमुचका वैराग्य संभव नहीं। जब तक मन मोहमाया से ग्रस्त है तब तक कर्मसंन्यास की वास्तविक स्थिति कैसे संभव हो सकती है। इस उलझन को सुलझाने का रास्ता भी गीता मैं है। कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा का त्याग कर दो। निष्काम कर्म यानी कर्म करते हुए कर्म का बोध न होने देना, यह प्रतीति बनाए रखना कि मैं तो निमित्तमात्र हूं, कर्ता तो कोई और है, ‘त्वदीयं वस्तु गोविंदम तुभ्यमेवसमप्यते’ भावना के साथ सारे कर्म, समस्त कर्मफलों को परमात्मा-निर्मित मानकर उसी को समर्पित करते चले जाना ही कर्मयोग है। कर्म करते हुए फल की वांछा का त्याग ही विकर्म है, और यह प्रतीति कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं, जो किया परमात्मा के लिए किया, जो हुआ परमात्मा के इशारे पर उसी के निमित्त हुआ, यह धारणा कर्म को अकर्म की ऊंचाई जक पहुंचा देती है।"वाणी में इस भाव को हुकुम से चलना कहते हैं " संसार से भागकर कर्म से पलायन करने की अपेक्षा संसार में रहते हुए कर्मयोग को साधना कठिन है। इसीलिए तो श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्मसंन्यास कर्मयोग की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है, तो भी कर्मयोगी होना कर्म संन्यासी की अपेक्षा विशिष्ट उससे बढ़कर है..जल में रहकर कोरे रहिए...
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प्रणाम जी
इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ, देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ? यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।
श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है । प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,

इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र और सबका प्रकाशक सबके भीतर बाहर व्यापक और निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ । आश्चर्य है अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है ।

इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।

प्रणाम जी

Wednesday, February 10, 2016

विवेकपुर्ण श्रद्धा

सुप्रभात जी

श्रद्धा होना सही है परन्तु श्रद्धा के साथ विवेक ना होतो वह अंधश्रद्धा बनकर घोर विनाश का कारण बन जाती है...
एकबार एक भक्त तिर्थ यात्रा गया l जिस मंदिर में उसे दर्शन के लिए जाना था, वह मंदिर नजदिक  आ चुका  था l उसके पैर में जुते थे l तो उसने सोचा की मंदिर के पास जुते ले जाने से वहाँ चोरी हो जायेंगे इससे अच्छा है कि  यहीं रास्ते में किसी पत्थर  के नीचे रख देते है l उसने वैसा ही किया l लेकिन बादमें  उसके मन में शंका आयी की इसी पत्थर के नीचे ही अपने जुते है यह कैसा पहचान पायेंगे ? तो उसने क्या किया उस पत्थर को थोडासा सिंदुर लगा दिया ताकि बाद में उसके जुतेकी जगह अनायास पहचान सके l वह भक्त आगे चल पड़ा  l मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन किये , एक-दो दिन वहाँ रुका l वापसी की यात्रा के लिए वह निकल पड़ा l जहाँ उसने अपने जुते रखे थे वहाँ बड़ी भारी भीड़ को  देखकर आश्चर्ये चकित हो गया l जिस पत्थर के नीचे उसने अपने जुते रखे थे उस पत्थर की लोग पूजा कर रहे थे  , फूल अर्पण कर रहे थे , अगरबत्ती घुमा रहे थे l हाथ जोड़कर मन्नोती मांग रहे थे l वह यह सब एक जगह खड़े होकर देख रहा था ,वह  बड़ा हैरान था l लेकिन वह कुछ बोल नहीं पा रहा था l  यह दृष्टांत इस बात का प्रमाण देता है कि  आज के घोर कलियुग में  जैसे उस पत्थर पर लगा हुवा सिंदुर देखकर लोगोंने  उसपर फूल चढ़ाना शुरू किया  और इतनाही नहीं उस जगह को  पूजा का स्थान मानकर एक जुते की पूजा करना आरंभ किया l ऐसा ही आज हो रहा है l किसी का चोलारूपी सिंदुर देखकर , किसी की जटा देखकर , किसी का आश्रम देखकर , किसी का थाटबाट देखकर , किसीके पीछे की भीड़ देखकर , तो किसी की  सत्य को तोड़ मरोड़कर  लोगोंको बात  बताने की कला को देखकर, किसी की वेशभूषापर आकृषित होकर , किसीके अधूरे ज्ञानपर फ़िदा होकर  विभिन्न समस्यायोंसे परेशान लोग  ऐसे व्यपारियों को संत , परम संत , जगद्गुरु  मानकर सच्चे परमात्मा को त्याग कर उन्हें भज रहे है, पूज रहे  है l इसलिय श्रद्धा के साथ विवेक जागृती परम आव्यशक है..
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प्रणाम जी

वाणी

दिल दिलगीरी छोड दे, होत तेरा नुकसान।
जानत है गोविंद भेडा, याको पीठ दिए आसान।।

तुम हृदयकी हताशाको छोड. दो, कयोंकी हम सारा जीवन अपनी बुराइयों को मिटाने में ही लगा देते हैं और उनके न मिटने पर हताशा में जीवन गवां देते हैं, हमारा जीवन बेकार की उधेड-बुन में निकल जाता है यह हमारे आत्मकल्याण के मार्ग लिय बहोत गहरी क्षती है, इससे तो तुम्हें हानि ही हो रही है. यह संसार गोविन्द भेडा (भूतनगरी) के समान है. इनसे उलझोगेतो तुम्हे भी भूत बन्ना पडेगा अर्थात एक परमात्मा के अलावा अन्य किसी भी वस्तु या विषय को अंतःकरण में रखने से तुम अपने मार्ग से विमुख हो जाओगे ..इसका सबसे सरल उपाय है की तुम आंतरिक रूप से सबको पीठ देकर केवल परमात्मा को धारण करके नाक की सीध में अपने मार्ग पर बढते जाओ और बहर से सबसे उनके वांछित व्यवहार करते रहो ..इस से ही परमधामका मार्ग सरल बनेगा.

प्रणाम जी

Tuesday, February 9, 2016


हकें हाथ हिसाब लिया मोमिनों, तोडया गुमान दे नुकसान ।
तित बैठे अपना अरस कर, ए दिल मोमिन अरस सुभान ।।

परमात्माने ब्रह्मात्माओंका रहन ,सहन ,प्रेम ,पहचान, गहन्तम सत्य का बोध आदी लब अपने हाथमें लिया एवं उनको प्रेमकी परीक्षामें असफल दिखाकर उनके अहङ्कारको भी तोड. दिया. फिर भी उनके हृदयमें वे स्वयं अपना आसन बनाकर बैठ गए. ऐसी ब्रह्मात्माओंके हृदयको ही परमधाम कहा है...

प्रणांम जी

ध्यान ..

ध्यान का उद्देश्य क्या है ?
सुप्रभात जी
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ध्यान का उद्देश्य एक ऐसे 'आनंद ' की प्राप्ति है ,जो कभी नष्ट न होता है ,जो हमारा स्वभाव है .
'आनंद' की प्राप्ति में दुखों का नाश छिपा हुआ है अर्थात दुखों की आत्यंतिक निवृति होना .
'आनंद ' हमारा स्वभाव है ,स्वरूप है .आत्मा आनंद स्वरूप है .
सुख-दुःख मन के अंतर्गत हैं ,आनंद ,आत्मा मन के परे हैं .
अतः मन की किसी क्रिया द्वारा आत्मा के आनंद को नहीं पाया जा सकता है.
ध्यान मन का अतिक्रमण है ,ध्यान मन से मुक्ति है ताकि मन के अतीत आत्मा के आनंद को पाया जा सके .
ध्यान मन की कोई क्रिया नहीं है ,अपितु मन की अक्रिय अवस्था को ध्यान कहते है .मन की अक्रिय जागरूक अवस्था ध्यान
है .
एकाग्रता ,पूजा -पाठ ,मंत्र जाप ,त्राटक ,चक्र व कुण्डिलिनी जागरण ये सभी ध्यान नहीं है ,ये सभी मन की क्रियाएँ हैं.
मन की क्रिया द्वारा मन का अतिक्रमण संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक मन की क्रिया में मन व अहम उपस्थित रहेगा .
जब मन की कोई क्रिया नहीं है अर्थात आप कुछ नहीं कर रहे है सिर्फ जागरूक हैं ,साक्षी है ,विश्रांत हैं ,मात्र होनापन है
यह है 'ध्यान '.आप न तो एकाग्रता कर रहे है ,न मंत्र जाप कर रहे हैं ,न त्राटक,न पूजा पाठ ,न चक्र या कुण्डिलिनी जागरण
आप मात्र मन के साक्षी हैं ,दृष्टा है ,मात्र "आप हैं " -यह है ध्यान . ध्यान का आपका स्वरूप है ,आप आनंद स्वरूप है..

प्रणाम जी

Monday, February 8, 2016

मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो वासना ( इच्छाऐं )सहित आप जा सकते हैं। उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर वासना की ही दीवार है। वह दीवार हट जाए, तो द्वार खुल जाए।

Sunday, February 7, 2016

आपोपूं ओलखावी मारा वाला , दरपण दाखो छो प्राणनाथ |
दरपणनूं सू काम पडे, ज्यारे पेहेरयूं ते कंकण हाथ ||
एक जागृत आत्मा परमात्मा से कहती है की हे मेरे परमात्मा आप अपनी पहचान मुझसे अब केसे छिपा सकते हो जब आपने ही मुझे जागृत किया है,जब मै जागृत नही थी तो आपने मुझे अपने अनेक रूपों में उलझ के रखा उस वक्त तो मै सतगुरु के आकार को ही सेवती थी कभी सतगुरु तत्व को नही समझ पाई और जब होश आया तो मुझे अपने आप पे बोहोत खेद हुआ और में विरह में तड़फने लगी , खैर अब आप मुझे और ज्यादा अपने रूपों में नही उलझा सकते अब आपने मुझे अपने सत्ये रूप की पहचान करवा दी है जो की उन सभी रूपों से भिन्न है जिनमे आपने मुझे आज तक उलझा के रखा था ,अब मेरे लिए लिए आपके उन रूपों में उलझना वैसा ही ओगा की जैसे में अपने हाथ में पडे कंगन को प्रत्येक्ष पा कर भी उसको दरपन में ही देखती रहूँ ....

प्रणाम जी 

Saturday, February 6, 2016

सुप्रभात जी
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में जब ध्यान करता हू तो तूं बन्दर की भांती कयों भागता फिरता है. अरे मूर्ख मन! तू कहाँ जाता है, यह संसार मायामात्र है और इतने काल तू जगत् में भटकता रहा, पर कहीं तुझको शान्ति न हुई, वृथा भागता रहा । हे मूर्ख मन! सत्यविषय को त्यागकर भोगों की ओर भागता है सो अमृत को त्यागकर विषका बीज बोता है, यह सब तेरी प्रयास दुःखोंके कारण हैं । जैसे कुशवारी अपना घर बनाकर आप ही को बन्धन करती है वैसे ही तू भी आपको आप संकल्प उठाकर बन्धन करता है । अब तू संकल्प के संसरने को त्यागकर आत्मपद में स्थित हो ताकि तुझको शान्ति हो । हे मन जिह्वा के साथ मिलकर जो तू शब्द करता है वह दर्दुर के शब्दवत् व्यर्थ है । कानों के साथ मिलकर सुनता है तब शुभ अशुभ वाक्य ग्रहण करके मृग की भांती नष्ट होता है, त्वचा के साथ मिलकर जो तू स्पर्श की इच्छा करता है सो हाथी की भांती नष्ट होता है, रसना के स्वाद की इच्छा से मछली की भांती नष्ट होता है और गन्ध लेने की इच्छा से भँवरे की भांती नष्ट हो जावेगा । जैसे भँवरा सुगन्ध के की इच्छा से फूल में फँस मरता है तैसे तू फँस मरेगा और सुन्दर स्त्रियों की इच्छा से पतंगे की भांती जल मरेगा । हे मूर्ख मन! जो एक इन्द्रिय का भी स्वाद लेते हैं वे नष्ट होते हैं तू तो पञ्चविषय का सेवनेवाला है क्या तेरा नाश न होगा ।इससे तू इनकी इच्छा त्याग कि तुझको शान्ति हो । अब तू शांत होकर बैठ और परमात्मा का ध्यान कर जिससे तेरी जन्मों की भरमना नष्टहोकर तुझे परमपद मिले....
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प्रणाम जी

Friday, February 5, 2016

सुप्रभात जी

पूर्णब्रह्म परमात्मा एक ही हैं किन्तु विभिन्न जाति तथा सम्प्रदाय वाले उनको भिन्न-भिन्न नामसे पूजते हैं. वस्तुतः एक परमात्माके अतिरिक्त इस संसारमें अन्य कोई कहीं भी नहीं है.सभी जातिके लोग एक ही परमात्माको भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारते हैं परन्तु परमात्मा (स्वामी) तो सबका एक ही है.  पूजा भी सभीको इन्हींकी करनी है परन्तु विवेकके अभावसे सभी परस्पर कलह करते हैं ..
कइ बार तो एक ही समप्रदाय के लोग भी सत्य के अभाव में उसके अलग अलग नामों पे झगडते हैं.

प्रणाम जी

वाणी

पोहोंच्या म्याराजमें गुनाह मोमिनों, ए सुन उरझे मुसलमान ।
ठौर गुन्हें न पोहोंच्या जबराईल, ए जाने दिल मोमिन अरस सुभान ।।

म्याराजके प्रसंगमें रसूलने कहा कि (कुरानमें कहा है- म्याराजके समयमें खुदाने रसूल मुहम्मदको कहा कि तेरी रूहोंने गुनाह किया है ) इस प्रकार ब्रह्मात्माओं तक गुनाह पहुँच गया है, ये वचन सुनकर मुसलमान उलझ रहे हैं. जिस स्थान पर स्वयं जिब्रील फरिश्ता भी नहीं पहुँचा, ऐसे स्थान पर गुनाह कैसे पहुँच सकता है ? इस रहस्यको वही आत्माएँ जान सकतीं हैं, जिनके हृदयमें स्वयं परमात्मा विराजमान हैं..

प्रणाम जी

Thursday, February 4, 2016

सुप्रभात जी

हे साधुजन ! सर्व प्रथम स्वयं (आत्मा) को पहचानो, क्योंकि स्वयंको पहचाने बिना कौन कह सकता है कि मैंने परब्रह्म परमात्माको पहचान लिया है.
यदि शरीर छोडनेके पश्चात् अपने (आत्माके) मूल घरको ढूँढने लगोगे, तब किस स्थानमें ठहर पाओगे ? क्योंकि जब तक आत्मा अपने मूल घरको प्राप्त नहीं कर लेती, तब तक भ्रममें पड.कर भवसागरमें ही भटकती रहती है.पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचों तत्त्वोंको मिलाकर इस नश्वर ब्रह्माण्डरूपी महलकी रचना की गई है.
हे साधुजन ! अज्ञाानरूपी निद्राको दूर कर जब स्वयंको पहचानोगे, तब ज्ञाात होगा कि इस ब्रह्माण्डरूपी महलकी रचना किस प्रकार हुई है ? तब तुम्हें स्वयं अपने मूल घर परमधामकी प्राप्ति (अनुभूति) हो जाएगी तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा के दर्शन भी होंगे...

प्रणाम जी

Wednesday, February 3, 2016

सुप्रभात जी

जिसे अपने भीतर बैठे परमात्मा का पता चल जाता है वह तो आनंदित हो जाता है , उसे तो मिल गया आनंद।  अब उसे कुछ बचा नहीं पाने को। अब कोई धन धन नहीं है; धन तो उसे मिल गया, परम धन मिल गया। और परम धन को पा कर फिर कोई धन के पीछे दौड़ेगा?

जब हम छोटे थे तो हम  खेल—खिलौनों से खेलते थे, जब खिलौना टूट जाता खिलौना तो रोते भी थे; कोई छीन लेता तो झगड़ते भी थे। फिर एक दिन तुम युवा हो गये। फिर हम भूल ही गये वे खेल—खिलौने कहां गये, किस कोने में पड़े—पड़े धीरे से झाड़ कर, बुहार कर कचरे में फेंक दिये गये। हमें उनकी याद भी नहीं रही। एक दिन हम लड़ते थे। एक दिन हम उनके लिए मरने—मारने को तैयार हो जाते थे। आज हमसे कोई पूछे कि कहां गये वे खेल—खिलौने,  हम कहेंगे, अब मैं बच्चा तो नहीं, अब मैं युवा हो गया, प्रौढ़ हो गया; मैंने जान लिया कि खेल—खिलौने खेल—खिलौने हैं।
ऐसी ही एक प्रौढ़ता फिर घटती है, जब किसी को भीतर के परमात्मा का बोध होता है। तब संसार के सब खेल—खिलौने धन—पद—प्रतिष्ठा सब ऐसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे बचपन के खेल—खिलौने व्‍यर्थ हो गए। फिर उनके लिए कोई संघर्ष नहीं रह जाता, प्रतिद्वंद्विता नहीं रह जाती, कोई स्पर्धा नहीं रह जाती...यही बोध है परमात्मा का जब ये हो जायगा तो सब अपने आप छूट जायगा..

प्रणाम जी

माया के इन परपंचो से सावधान

माया के सात्विक रूपो से सावधान..

श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः परमात्मा के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक तथा उनके अविनाशी रूप की स्मृति को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है इसलिय माहापूरूषो के शरीरो मे मोह न रख कर उनके मार्ग का अनसरण करना चाहिय..
जो चित्रो को सतसंग मान्ते है वे ध्यान दें..
माया का एक और सात्विक रूप है चित्रो मे मोह रखना ..वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ..अगर हम चित्रो को सत्य मान्ते हैं तो हमें माया को झूठ कहने का कोइ अधिकार नही है, नही तो ये वैसा ही होगा की हम विष में से कूछ विष लेके कह रहे हों की ये अमृत है बाकी सब विष है ..इसलिय माया के इन परपंचो से सावधान होकर शुद्ध सत्य को ग्रहण करो..

प्रणाम जी

Tuesday, February 2, 2016

समाधि

सुप्रभात जी

समाधि का अर्थ है चित्त जिसका ध्यान कर रहा हो उस समय चित्त का अपना स्वरुप शून्य होकर केवल ध्येय की ही प्रतीति होना. योग के सन्दर्भ में समाधि का अर्थ है कि चित्त जब परमात्मा का ध्यान कर रहा हो उस समय चित्त का अपना स्वरुप शून्य होकर केवल परमात्मा का ही अनुभव होता है अर्थात आत्मा और परमात्मा की एकरूपता का बोध होना ही समाधि है. ऐसा अनुभव होने के बाद समाधि से जागने पर भी वह सर्वत्र परमात्मा का ही दर्शन करता है.  ऐसा समाधि में स्थित वह परमात्मा की पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा जो, जैसा और जितना है ठीक वैसा का वैसा तत्त्व से जान लेता है और इस प्रकार तत्त्व से जानकर तत्काल परमात्मा में प्रविष्ट हो जाता है.

प्रणाम जी

परमतत्व बोध

नाम रूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः ।
अज्ञान मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वं न विद्यते ॥
(शिव स्वरोदय २६)
जब तक परमतत्त्वबोध नहीं हो जाता तब तक नाम-रूप आदि सभी भ्रम मिथ्या हैं और अज्ञान जनित मूढ़ता भी तभी तक है |

जब तक तुम्हे परम तत्व याने अवतारवाद से परे परमात्मा के मूलतत्व और उनसे आत्मा के एकत्व भाव का बोध नही हो जाता तब तक परमात्मा के नाम के भ्रम में ही उल्झे रहोगे ..मन में दूैतभाव प्रबल रूप से अपना खेल करता रहेगा तुम भ्रमित होकर उसके नाम विषेश के जाप मे ही समय व्यतीत कर के संतुष्ट होते रहोगे और मन से रूप बनाकर या ग्रन्थो में दिय शब्द रूप को ही सत्य मान कर उस असत्य का ही ध्यान करोगे और कालआंतर तक दुैतभाव के खेल को ही सत्य मान्ते रहोगे..इसलिय परमात्मा के मूलतत्व और उसके आत्मा से सत्य एकत्व का बोध होना आवश्यक जो किसी के भी बताने से नही अपितु उनकी मेहर से खुद की खोज व उनसे मूल संबंध जानकर ही सम्भव है..

प्रणाम जी

Monday, February 1, 2016

सुप्रभात जी

संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ..

प्रणाम जी

वाणी

कोट सेवक करो नाम निकालो , इस्ट चलाओ बडाई |
सेवा कराओ सतगुरु केहेलाओ , पर अलख न देवे लखाई ||

चाहे संसार में करोड़ो सेवक या शिष्य बना लो या अपना नाम परिवर्तित कर के कोई भी धर्म सम्बन्धी या किसी भी भगवान के नाम पे रख लो {आमतोर पे देखा गया है की साधू के वेश धारण करने के बाद उनके गुरु उनका नाम परिवर्तित करके धर्म सम्बन्धी  नाम रख देते हैं }चाहे अपने नाम या या अपने मन से नाम रख कर अनेक पन्थ या सम्प्रदायों का निर्माण क्र लो , पर इसका अर्थ ये बिलकुल मत समझ लेना की ऐसा करने से तुम्हे परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी या तुम परमात्मा के मार्ग पे चल पड़े हो या तुम्हे परमात्मा का मार्ग मिल गया है और तुम्हे इस के अपना लक्षे मिल जायेगा , चाहे तुम सतगुरु बन कर जीवन भर अपने शिष्यों से अपनी सेवा करवाते रहो पर इन सब कार्यो से तुम्हे परमात्मा का बोध नही होगा क्योंकि ये सब तो तुम्हारे कर्म है जो तुम्हारे कर्म जाल में कुछ धागे और बन देते है , ये तुम्हारे शरीर सम्बन्धित  कार्य हैं कोई मार्ग नही है, कोई साधन नही है , इनसे आत्मबोध नही होगा , हो भी नही सकता जब तक इन सबसे पार पाके अंतर में खोज नही करोगे परमात्मा रूपी आनंद की प्राप्ति नही हो सकती ..इसलिए ये मान गुमान और अपने दुआरा  बनाये गये ये झूठे ज्ञान का तुम अति सीघ्र उसी प्रकार त्याग करदो जिस प्रकार फल पकने के बाद अपने पेड़
को त्याग देता है और केवल शुद्ध सत्ये के मार्ग को अपनाओ जिस से तुम्हे शुद्ध सत्ये आनंद की प्राप्ति हो सके ....

प्रणाम जी