Friday, February 26, 2016

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचि ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर: ॥
भागवत १०/८४/१३

भावर्थ वसुदेवजीके यज्ञ महोत्सव में श्री कृष्णजी उपदेश देते हैं - हे महत्माओं एवं सभासदों । जो मनुष्य कफ़, वात, पित्त इस तीन धातुओं से बने हुए शव तुल्य शरीर को ही "आत्मा या मैं" स्त्री पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टि, पत्थर, लकडी आदि पार्थिव विकारों को ही "इष्टदेव" मानता है तथा जो केवल जल को ही तिर्थ समझता है लेकिन ज्ञानी महापुरुषों (चल तीर्थ) को तीर्थ नहीं समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा के समान अग्यानी है...

प्रणाम जी

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