Wednesday, February 3, 2016

सुप्रभात जी

जिसे अपने भीतर बैठे परमात्मा का पता चल जाता है वह तो आनंदित हो जाता है , उसे तो मिल गया आनंद।  अब उसे कुछ बचा नहीं पाने को। अब कोई धन धन नहीं है; धन तो उसे मिल गया, परम धन मिल गया। और परम धन को पा कर फिर कोई धन के पीछे दौड़ेगा?

जब हम छोटे थे तो हम  खेल—खिलौनों से खेलते थे, जब खिलौना टूट जाता खिलौना तो रोते भी थे; कोई छीन लेता तो झगड़ते भी थे। फिर एक दिन तुम युवा हो गये। फिर हम भूल ही गये वे खेल—खिलौने कहां गये, किस कोने में पड़े—पड़े धीरे से झाड़ कर, बुहार कर कचरे में फेंक दिये गये। हमें उनकी याद भी नहीं रही। एक दिन हम लड़ते थे। एक दिन हम उनके लिए मरने—मारने को तैयार हो जाते थे। आज हमसे कोई पूछे कि कहां गये वे खेल—खिलौने,  हम कहेंगे, अब मैं बच्चा तो नहीं, अब मैं युवा हो गया, प्रौढ़ हो गया; मैंने जान लिया कि खेल—खिलौने खेल—खिलौने हैं।
ऐसी ही एक प्रौढ़ता फिर घटती है, जब किसी को भीतर के परमात्मा का बोध होता है। तब संसार के सब खेल—खिलौने धन—पद—प्रतिष्ठा सब ऐसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे बचपन के खेल—खिलौने व्‍यर्थ हो गए। फिर उनके लिए कोई संघर्ष नहीं रह जाता, प्रतिद्वंद्विता नहीं रह जाती, कोई स्पर्धा नहीं रह जाती...यही बोध है परमात्मा का जब ये हो जायगा तो सब अपने आप छूट जायगा..

प्रणाम जी

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