Wednesday, February 24, 2016

.किन्तु परमात्मा का प्रेम-रस पीना और उसमें मग्न भी न होना बहुत कठिन है।

जो कोई ऐसे मगन होए खेले प्रेम में, तो या बिध हमको है री सेहेल।
पर पीवना प्रेम और मगन न होना, ए सुख औरों हैं मुस्किल।।

जिस जीव को आत्म भाव में आकर आत्म हृदय में विदयमान परमात्मा के आनंद का रस मिलने लगता है फिर वह इस रस मे मग्न होकर इस से कदापि अलग नही हो सकता इसे ही जीव का परमात्मा से प्रेम कहते हैं .कयोंकि जीव, आत्माका दृष्टि माध्यम है इसलिय आतमा जीव पर बैठ कर प्रकृती प्रिवर्तन का प्रतिबिम्बित रूप देखती है..और इस प्रकार जीव का परमात्मा से प्रेम देखकर वह नींद से अपने स्वरूप का बोध प्राप्त कर लेती है फिर वह अपने सत्य दूैत प्रेम के बोध में आ जाती है । भले ही उसको जीव का शरीर इस संसार में दिखायी देता है, लेकिन उसकी सुरता(ध्यान) हद-बेहद से परे परमधाम में अपने परमात्मा से प्रेम-क्रीड़ा कर रही होती है।
यदि कोई संसार में रहते हुए इस तरह परमात्मा के प्रेम में मग्न हो जाये, तो यह मार्ग हमें बहुत सरल लगता है, ऐसे अनेको संत हुये हैं जो परमात्मा के प्रेम में सुद बुध खोकर होश गवा बैठे थे ..किन्तु परमात्मा का प्रेम-रस पीना और उसमें मग्न भी न होना बहुत कठिन है। ब्रह्मसृष्टियों के सिवाय अन्य कोई इस राह पर नहीं चल पाता।

प्रणाम जी

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