Wednesday, June 29, 2016

*ध्यान का उद्देश्य क्या है ?*

सुप्रभात जी
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ध्यान का उद्देश्य है सवंय में स्थित होना ,हम शुद्ध निर्लििप्त व निर्विकार हैं ध्यान में हम उसी अवस्था में स्थित होते हैं जो हमारा स्वभाव है .
' सवंय ' की स्थिती में दुखों का नाश छिपा हुआ है अर्थात दुखों की आत्यंतिक निवृति होना .कयोकी सवंय में स्थित होने से हमरी स्थिती प्रकृती या माया से हटती है.. प्रकृती या माया को ही दुख का मूल काहा गया है इसलिय ' सवंय ' की स्थिती में दुखों का नाश छिपा हुआ है...
सुख-दुःख मन के अंतर्गत हैं , हम सवंय , मन के परे हैं .
अतः मन की किसी क्रिया द्वारा सवंय को नहीं पाया जा सकता है.
ध्यान मन का अतिक्रमण है ,ध्यान मन से मुक्ति है ताकि मन के अतीत सवंय में स्थित हो सकें .
ध्यान मन की कोई क्रिया नहीं है ,अपितु मन की अक्रिय अवस्था को ध्यान कहते है .मन की अक्रिय जागरूक अवस्था ध्यान
है .
एकाग्रता ,पूजा -पाठ ,मंत्र जाप ,त्राटक ,चक्र व कुण्डिलिनी जागरण ये सभी ध्यान नहीं है ,ये सभी मन की क्रियाएँ हैं.
मन की क्रिया द्वारा मन का अतिक्रमण संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक मन की क्रिया में मन व अहम उपस्थित रहेगा .
जब मन की कोई क्रिया नहीं है अर्थात आप कुछ नहीं कर रहे है सिर्फ जागरूक हैं ,साक्षी है ,विश्रांत हैं ,मात्र होनापन है
यह है 'ध्यान '.आप न तो एकाग्रता कर रहे है ,न मंत्र जाप कर रहे हैं ,न त्राटक,न पूजा पाठ ,न चक्र या कुण्डिलिनी जागरण
आप मात्र मन के साक्षी हैं ,दृष्टा है ,मात्र "आप हैं " -यह है ध्यान . ध्यान का आपका स्वरूप है ,

*सवंय में स्थित होने के बाद परमात्मा में स्थिती सुलभ हो जाती है.. जिस से परमात्मा की प्राप्ती होती है*

इसलिय काहा है .. *पहले आप पहचानो रे साधो..*
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प्रणाम जी

Tuesday, June 28, 2016

*मैं सवंय कौन हूं??*
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इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ, देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ?

यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।

श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है

त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है । प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है

यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,
इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं

ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं

*मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र  निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ । अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है ।
मैं सवंय प्रकृती के साथ स्थित था जिस कारण मेरा मन अन्नत प्रयास के बाद भी अदूैैत परमात्मा में नही लग रहा था.. अब मैं सवंय प्रकाशकरूप चैतन्य  अद्वैत परमात्मा में स्थित हूं तो मन आदी भी अब यहीं है..
इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।
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प्रणाम जी

Monday, June 27, 2016

*उपहार और समर्पण में भेद*

सुप्रभात जी
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*जब हर पल परमात्मा में स्थित रहने लगो तब समझना जीवन सफल होने लगा है..
आप कहोगे कहना आसान है पर बहोत अभ्यास के बाद भी नही हो पाता.. मैं कहता हूं बहोत आसान है , आप उठकर पानी का गलास लेते हो इस से भी आसान,
*कैसे?*
बस तुम ये जो मेरा परमात्मा में लगाते हो,मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित,  ये मेरा छोडकर जो मेरा कहने वाला है उसको परमात्मा में स्थित करलो, मेरा कहने वाला सवंय परमात्मा में आ गया तो उसने जो भी मेरा मान रखा है वो सब अपने आप आजएगा ..जैसे किसी राजा के समर्पण से उसके मन्त्री, सैनापती और सैना का समर्पण अपने आप हो जाता है ...वरना अगर सिर्फ मन्त्री या सैनापती को मारोगे या पकड़ने का प्रयास करते रहे तो वो राजा और नये बना लेगा..
अब सवंय कोन है और परमात्मा में कैसे लगे ये पता है तो ठीक है वरना किसी के माध्यम जान लो पर ध्यान रहे जिस माध्यम से जानो वो सवंय परमात्मा में स्थित हो ये परम शर्त है...और ध्यान रहे माध्यम से समझकर परमात्मा में स्थित होना है , माध्यम में नही ... यही समर्पण है ..

एक बात और समझना बहोत ध्यान से कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझतो हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमें A आ गया...
*ध्यान दो*
जब हर परकार को बाह्य प्रपंच देख कर भी मन की दौड़ अंदर की ही होने लगे तब समझलेना तुमहारी सवंय की स्थिती परमात्मा मे होने लगी है...
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प्रणाम जी

Sunday, June 26, 2016

मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता

कल का शेष

सुप्रभात जी..

मूल विषय था....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसका भाव को समझने के लिय उप विषय आया  *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता*
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तो मिले कैसे ???..??
पहले उपविषय को पकडें..

*अब ध्यान दें...*

विषय समझने से पहले एक बार मोटा मोटा ये समझलों कि अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य किन घटकों से बना है ?

जीवित मनुष्य आगे दिए अनुसार विविध देहों से बना है ।

१. स्थूल शरीर अथवा स्थूलदेह

२. चेतना (ऊर्जा) अथवा प्राणदेह

३. मन अथवा मनोदेह

४. बुद्धि अथवा कारणदेह

५. सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह

६. जीव अथवा हम सभी में विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व

अब इनमे जान्ने वाली केवल एक ही बात है वो है
*सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह*
यह मनुष्य की अज्ञानता का प्रथम उत्पन्न भाग । अज्ञानता कया है ? मैं ईश्‍वर से अलग हूं, यह भावना ही अज्ञानता है ..

*अब बहोत ध्यान से विषय को पकडना..*

जैैसे ही जीव को सूक्ष्म अहं हुआ तो वह परमात्मा से हटकर प्रकृती से जुड गया *मतलब जीव का जैसे ही प्रकृती से जुडाव हुआ तो कारण, मन, प्राण और इसकी स्थूल थेह अस्तितव में आ गये*

वैसे इनका कोई स्वतंत्र अस्तितव नही है.. ये सब जीव के शरीर मात्र हैं .. अब इतना समझने के बाद हमारी समझ मे आ जायगा की *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. अगर में ये कहूं कि मैं तो संसार में रहूं लेकिन मेरा हाथ परमात्मा मे लग जाए, या मैं अपने सास बहू के सिरियल देखती रहूं लेकिन मेरा पांव परमात्मा मे लग जाय, बताइये कया यह संभव है .. कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..जहां आप वहा मन, तो *खुद परमात्मा में लग जाओ तो मन कया संसार में रहेगा..नही ये खुद वहीं रहेगा जहां आप हो आप परमात्मा में तो मन चित बुद्धि आदि सब आपके साथ याने परमात्मा मे ओर आप प्रकृती अर्थात माया में तो सब माया में अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो खुद माया में रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेक जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी, इसलिय इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है खुदको लगाना है मीरा कबीर तुल्सी आदी ने मन नही लगाया वो खुद लग गये इसलिय पा लिया बोलो मन लगाते रहते तो परमात्मा मिल्ते कया .. *बस यही बात गांठ बांधलो ओर लग जाओ परमात्मा में ..मन एक मिनट में लग जायेगा*

बस यहीं से समझलो कि गुरूमुख कोन है , जो गूरूतत्व में मन ना लगा के खुद लगा है..या गुरू का दास का कया भाव है ..तो आपकी खुदकी गुरू तत्व में स्थिती होने को ही गुरू या परमात्मा का दास कहा है कयोंकी दास का अर्थ है आप जिसके लिय निरंतर तत्पर हों... बहोत महत्वपूर्ण विषय है इसके बिना कल्याण कठिन है.. ... ये विषय अबतक छिपा था कयोंकि जो परमात्मां में स्थित हो चुके थे वो बताने वाले अब रहे नही इसलिय सार बताने वाले चले गये केवल उनके दूारा बताऐ शब्द हैं जिनमें सार छिपा है ...इसलिय विषय छिपा रहा.. बार बार मंथन करो इस विषय का, ओर ग्रहण करो पढकर मत छोडदेना...
अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..

उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)

*(कयी बार विषय शब्दो मे नही आ पाता उसके लिय संगत की आव्यश्कता होती है...इसलिय कुछ त्रुटि हो तो क्षमा करें)*
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प्रणाम जी

Saturday, June 25, 2016


(कल के विषय से आगे..)
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अब सवाल है की सब ग्रन्थो मे लिखा है की गुरू की शरणागती के बिना कल्याण नही है इसका शुद्ध भाव कया है ....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसका भाव समझने के लिय पहले एक महत्वपुर्ण विषय को समझना पडेगा वो है कि *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता* अब आप कहोंगे कि ये तो उल्टि बात है हमने तो आज तक यही सुना हैकी मन लगाओ मन लगाये बिना परमात्मा नही मिलेंगे और तुम कहते हो कि मन लगाने से परमात्मा नही मिलेंगे ...तो में बिलकुल सही कह रहा हूं मन लगाने से न परमात्मा मिलेंगे न गुरू कि या परमात्मा कि श्रणागती संभव है ...इसको थोडा और विवादित बना दूं यह कह कर कि आज तक परमात्मा में या गुरू तत्व में किसी का मन लगा ही नही है वो चाहे मीरा हो तुलसी हो सूर हो कबीर हो या कोई भी संत हो ..तब उनको परमात्मा कैसे मिले ?? अब तो आपको मुझपर पूर्णतः संदेह हो गया होगा और आप इस विषय का शपष्टिकरण चाह रहें होगें.. पहले थोडा सा संवय सोचो कि आज के इस समय तक आपने परमात्मा में मन लगाने का प्रयास करने के बाद भी मन नही लगा उम्र भी 30-40 या 50-60 हो गयी होगी इस से कम ज्यादा भी होगी तो सोचो अब तक मन निरंतर परमात्मा में नही लगा आगे कया लगेगा अब ये बात गांठ बांधलो मन नही लगेगा नही लगेगा नही लगेगा मन लगाने का प्रयास हम आज से नही कर रहे अन्नत जन्मों से कर रहे हैं फिर भी नही लगा केवल हमारा नही किसी का नही लगा जिसने प्रयास किया मन ने उसे घुमा दिया 80 हजार साल तक मन को समाधी मे लोप किय हुये संत भी समाधी से उठते ही मन दूारा ठगे गये ऐसे प्रमाण साष्त्रो में हैं.. मन लगाने से परमात्मा या गुरू तत्व नही मिल सकता ..
*उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
 ( कठो. २/६/)
तो मिले कैसे ???..??
अब ध्यान दें....
(इसपर कल चर्चा होगी)
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प्रणाम जी

Friday, June 24, 2016

*ध्यान दें महत्वपूर्ण विषय है इसके बिना कल्याण नही है*
विषय है - कया हम निगुरे हैं..???
सुप्रभात जी
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*जो मिल्या निगुरा मिल्या गुरूमुख मिल्या ना कोय,*
*गुरूतत्व जो जानीया तो गुरूमुख हुआ जन सोय ||*
(परमात्मा दूारा दि गयी चौपाई व व्याख्या)

इसका अर्थ है हम सब निगुरे है और दूसरो को निगुरा कहते कहते उम्र गवा देते हैं.. कैसे ??

पहले जाने गूरू कौन ..शरीर गुरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा नश्वर ..
मन चित अहंकार गूरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा नश्वर ..
प्राण गूरू ? नही मृत्यु के बाद प्रकृती में लय होता है ये कार्य करने मे सहायक है सवंय कर्ता नही हो सकता
जीव गूरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा निर्विकार ..
आत्मा गुरू ? नही कयोंकी प्रकृती में इसको खुदका स्वरूप ही याद नही रहता फिर दूसरो का कया कल्याण करेगी

तो फिर गुरू कोन ??????

*अब ध्यान दें...*
परमात्मा हमारे कल्याण के लिय जिस शब्दसार रूपमें अर्थात शब्द अर्थात याहां के शब्दो में सार अर्थात अखंड का सार लेके याने सत्य का भाव लेके ग्यान रूप मे प्रकट होते है *इसे ही गुरू तत्व कहा जाता है* ये ही गुरू है सतगुरू...लेकिन ध्यान रहे परमात्मा ये किसी शरीर के माध्यम से ही करते है इसलिय उस शरीर को भी बारम्बार प्रणाम लेकीन ये भी सत्य है की शरीर गुरू नही हो सकता ..अब गलती यहा से शूरू होती है कि हम उस शरीर से ही मोह कर बैठते है लेकिन ये ध्यान नही देते कि जिस महात्मा के शरीर में तुम मोह कर रहे हो वो महात्मा या संत बना ही इसलिय है कयोंकी उसने इस शरीर को नश्वर समझ कर इसे त्याग चुका है.. इस हाड मास से बने शरीर को वो विष्ठा समझता है इसलिय वो संत है और हम उसकी विष्ठा मे ही मुह मार रहे है और विष्ठा खाने से आप अवश्य ही सवास्थय नही रहेंगे रोगी हो जाते हैं इसलिय रोगी हो गये हो रोग कया? काम, करोध, लोभ, मोह, ओर अहंकार या राग ओर अनुराग उस शरीर में ही कर बैठते है ...
ध्यान दें कयोंकी झूठ मे गुरू की मान्यता की इसलिय सत्य गुरू तत्व नही पकड़ पाये ओर झूठ का अर्थ है जो है नही या जो मिटता है ..तो जो है नही उसमे मान्यता की तो इसका अर्थ है आपने नही को गुरू माना तो आपका गुरू है ही नही तो हो गये ना हम निगुरे इस कारण हम सदा से निगुरे है अरे गुरू धारण किया होता तो कल्याण हो गया होता कबका ...हम हर जन्म मे नही को गुरू मान्ते आ रहे है इसलिय गुरू बनाकर भी कल्याण नही हो रहा जबकी सारे शाष्त्र कहते है गुरू से कल्याण होता है तो कया शाष्त्र झूठे है .. नही हमने झूठ पकड रखी है..एक उदाहरण से समझें..
कुछ समय पहले मेरी एक मित्र से बात हूई उसके गुरू ने कुछ समय पहले ही शरीर छोडा है तो वो कहने लगे की अब हम अनाथ हो गये है हमारे गुरू हमें छोडकर चले गये ...
इसका अर्थ है कि गुरू हमने *नही* अर्थात शरीर को माना तो ऐसा नही है की हम उस शरीर के जाने के बाद बिना गुरू के हुये है बल्कि सत्य तो ये है कि हम शुरू से ही बिना गुरू के थे अर्थात निगुरे थे बस बात इतनी है की जबतक गुरू का शरीर था तो हम गफलत में रहे की हम गुरूमुख हैं और उस शरीर के जाते ही अहसास हो गया की निगुरे हैं...
इसलिय
*जो मिल्या निगुरा मिल्या गुरूमुख मिल्या ना कोय,*
*गुरूतत्व जो जानीया तो गुरूमुख हुआ जन सोय ||*

अब सवाल है की सब गरन्थो मे लिखा है की गुरू की शरणागती के बिना कल्याण नही है इसका शुद्ध भाव कया है ....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसकि चर्चा कल करेंगे..
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प्रणाम जी

Wednesday, June 22, 2016

सुप्रभात जी
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अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागृती आती है आत्मा मे ओर जागृत आत्मा का जीव अपने निर्विकार स्वरूप को जान पाता है..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत या अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव का मन स्वतः ही कर्मों की प्रवृत्ति से अलग हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। कयोंकी मन की अपनी कोई सत्ता नही है इसलिय जब जीव अपने स्वभाव में आयगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन आत्मा के सानिध्य में एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को विषयों से अलग कर देती है। उस समय जीव, अतःकरण (मन,चित,बुद्धि,आदी) एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समया-अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
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प्रणाम जी

Tuesday, June 21, 2016

सुप्रभात जी
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मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह परमात्मा के प्राप्त करना है। परमात्मा को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है।

यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। ब्रह्म ग्यान के अभाव में हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं ..
इसलिय तारतम रूपी ब्रह्मग्यान को ग्रहण करके हमे अती शीध्र अपनी स्थिती प्रकृती (माया)सेे हटा कर परमात्मा में बमानी होगी अर्थात परमात्मा में स्थित होना होगा...यही एक मात्र उपाय है..

निस दिन ग्रहियो प्रेम सो युगलस्वरूप के चरणन
निर्मल होना याहूंसो और धाम वर्णन इनविध नरकसो छुटिये और उपाय कछुनाही **भजन** बिना सब नरक है पच पच मरियो माही...
*भजन* भज धातु से बना है जिसके अर्थ हैं सेवा करना या लगाना (अर्थात संवय को प्रकृती से हटा कर परमात्मा में लगाना या स्थित करना भजन है)

भजन का अर्थ केवल गायन नही है..

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए, और साखी अथवा कथा सुन्ने  में भी आनन्द आता है । लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात बृह्म को जाने बिना या उसको धारण किये बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है.


त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के मे स्थित होने के कारण प्रकृति के तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।
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प्रणाम जी

Monday, June 20, 2016



आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता हैै तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त आनन्द का महासमुद्र!

परमात्मा आनंद से ओत-प्रोत है। परमात्मा आनंद का अथाह सागर है। अनन्त आनंद ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई  है।
परमात्मा में केवल आनंद होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी आनंद से सरोबार हो जाता है। आनंद में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।

ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्डू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
लेकिन फिर भी हमारे बहुत सारे महात्मा “ब्रह्मज्ञान” को प्रसाद की तरह बाँटने में लगे हुए हैं, और बहुत सारे लोग उसे बटोर कर ले जाने में लगे हुए हैं।

जो कोई मनुष्य आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीना सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — आनंद की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम आनंद कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। अतः अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है बृह्म के साथ एकत्व हो जाना जीसमें दूैत भाव संभंव ही न हो उस आनंद के साथ मिलकर आनंद होजाओ फिर अलगाव हो ही नही सकेगा कयोंकी जैसे पानी में से पानी को नही निकाल सकते वैसे ही आनंद से आनंद कैसे अलग होगा...
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प्रणाम जी
एही पट आडे तेरे, और जरा भी नाहें।
तो सुख जीवत अरस का, लेवे ख्वाब के माहें।।

यही अहं ( केवल जीव की मान्यता अर्थात वो परकृती के साथ अपने समंबंध को मान लेता है इसी को *प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष* कहा जाता है यही कर्ता है और यही भोक्ता है ...यह आवरण हटते ही जीव आत्मा के दूारा परमात्मा को जान लेता है )तेरे और परमात्माके बीच आवरण बना हुआ है. इसके अतिरिक्त अन्य कोई आवरण ही नहीं है. इसको हटाने मात्रसे इस स्वप्नवत् संसारमें जीवित रहते हुए ही परमधामके सुखोंका अनुभव होगा...
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प्रणाम जी

Sunday, June 19, 2016

भगवद्विरोधी..

*भगवद्विरोधी..*

 सुप्रभात जी
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एक परमात्मा के अन्तर्गत समस्त महात्मा हैं, अतः परमात्मा की हृदय से पूजा के अन्तर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वतः हो जाती है । यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । *महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है ।* वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ...जो महात्मा है वो शरीर कि नश्वरता को भली भांती जानकर सभी प्रकार की जडता को त्याग कर चेतन परमात्मा मे स्थित हो जाता है ..उस महात्मा के सानिध्य में सब चेतन परमात्मा की समीपता को प्राप्त करते है .. और अगर किसी महात्मा के सानिध्य में आप जड-चेतन में भेद ना पाकर उसके नश्वर शरीर में ही भ्रमित हो रहे होतो यह मार्ग भगवद्विरोधी है .....
*सास्त्र पुरान भेख पंथ खोजो , इन पैंडों में पाइए नाहीं ।*
*सतगुर न्यारा रहत सकल थें , कोई एक कुली में काँही ।।*
(श्री मुख वाणी- किरन्तन ५/७)

*गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।*
*आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।*
(कबीर जी)

*इस विषय पर अवश्य चिंतन करें...*
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प्रणाम जी

Saturday, June 18, 2016

वास्त्विकी और व्याव्हारिकी।

*( भागवत पुराण महात्म्य - प्रथम अध्याय )*

सुप्रभात जी

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शांडिल्य जी ने कहा - प्रिय परीक्षित और बज्रनाभ ! मैं तुम लोगों से ब्रज भूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दतचित हो कर सुनो। 'ब्रज' शब्द का अर्थ है - *व्याप्ति*। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण इस भूमि का नाम 'ब्रज' पड़ा है। ।। १९ ।।

*सत्व, रज, तम -- इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रहम है, वही व्यापक है।* इसलिए उसे 'ब्रज' कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवंमुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। ।। २० ।।

*प्रकृति के साथ स्थित होने पर* होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्तिथि और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि परमात्मा की लीला दो प्रकार की होती है -- *एक वास्त्विकी और और दूसरी व्याव्हारिकी।* || २५ ||

*वास्तवी* लीला स्वसंवेद्य है -- उसे परमात्मा और उनकी रसिक (आत्माऐं )ही जान्ती हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है वह *व्याव्हारिकी* लीला है। *वास्तवी* लीला के बिना *व्याव्हारिकी* लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्याव्हारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। || २६ |
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प्रणाम जी

Friday, June 17, 2016

गुरूतत्व

सुप्रभात जी

एक महात्मा जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे | रास्ते में एक सांप घायल अवस्था में पड़ा हुआ था और उस पर तमाम चींटियाँ लग रही थी | सांप हिल सकता नहीं था बैचैन होकर अपना फन उठाता था फिर गिर जाता था |

महात्मा जी उसे देखकर रो पड़े | शिष्यों को समझ में नहीं आया | उन्होंने कहा कि महाराज जी आप क्यों रो रहे हैं ? महात्मा जी बोले कि कर्मों का ऐसा विधान है जिसे जीव अपनी अज्ञानता में नहीं समझ पाता है | यह सांप कभी गुरु बना था | महात्माओं की नक़ल की और इतने शिष्य बनाये | इसने शिष्यों से तरह तरह की तन मन धन की सेवा ली लेकिन उनकी आत्माओं का कल्याण नहीं कर सका | क्योंकि इसने अपनी आत्मा का भी कल्याण नहीं किया था | अब कर्मी के जाल में फंसकर वह गुरु सांप बना और उसके सारे शिष्य चींटियाँ बन गये हैं | अब ये चींटिया इस घायल सांप को काट रही हैं और कह रही हैं कि मेरी सेवाओं का बदला दो | तुमने मुझे क्यों धोखे में रक्खा , मेरा आत्म कल्याण नहीं किया और ये बेचारा सांप ऐसी अधोगति में पड़ा हुआ पीड़ा सह रहा है और कुछ कर नहीं पा रहा है |

महात्मा जी ने आगे कहा कि गुरुतत्व को समझ पाना कोई हंसी खेल नहीं है , सबसे गहन काम है | आजकल चेले बनाकर उनकी सेवाओं को लेकर  भी उनका आत्म कल्याण  नही होता कयोंकी आत्म कल्याण के अलग मायने हैं ..ऐसे गुरूओं से  वो जीव अपना बदला मांगते है | गृहस्थों के खून पसीने की कमाई की रोटी खाकर जो साधू उनका कल्याण नहीं करता तो ये रोटियां उसके आँतों को फाड़ देती हैं और दोनो को अधोगती में जाना पडता है..इसलिय गूरूतत्व का बोध होना आत्मकल्याण के लिय परमआवश्क है..हम गूरू उस व्यक्तित्व को समझते हैं जो गूरू हो ग्यानी हो प्रमात्मा का प्रेमी हो ...
*अब ध्यान दें गूरूतत्व वो है जो गुरू ना हो, ग्यानी ना हो, और प्रेमी ना हो*
 यही बारीक भेद न समझ पाने के कारण हम अन्नत जन्मों से गूरू बनाने के बाद भी भटक रहे हैं..अन्नत जन्मों में अन्नत बार गुरू बनाऐ और हर बार वही कहा जो इस जन्म में कह रहे हो की हमारा गुरू श्रेष्ठ है.. इसी भ्रम में ये जन्म भी गया... व्यर्थ जायगा *अगर गुरूतत्व नही जान पाये तो..*
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प्रणाम जी

Thursday, June 16, 2016

बहोत बहोत बहोत ध्यान से पढें...

कर्ता भोक्ता भेद..

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जीस प्रकार परआत्म परमधाम में बैठी है और खेल में केवल नजर आयी है परआत्मा अपने शुद्ध रूप में खेल में नही है . इसी नजर को को आत्म व शुद्ध रूप को परआत्म कहते है.
इसी प्रकार जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है इसकी जो नजर खेल में प्रकृति के साथ सम्बंध की मान्यता करती है इसी को प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष कहते हैं. इसलिय..
(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)

तो 'है' (जीव की शुद्ध सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है  और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ..
कयोंकि शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते क्योंकि ये तो जड़ हैं ये ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)

तो अब दो वस्तुऐं है -
1:- एक है "है" (जीव की शुद्ध सत्ता)
2:- और एक है  "नही" (शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार)

आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो कर्ता और भोक्ता रहेगा ही नहीं …

क्योंकि 'है' में जो 'व्यक्तित्व' है वह नहीं होता ...और 'नही' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो

तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…

*और ये है क्या?*

कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।

…'है'से और 'नही'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) ज्ञान', ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।

अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।'परमात्मा'के साथ ही 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम'  'ज्ञान'और 'योग' रहा। और परमात्मा का वियोग नही रहा..जो तुम्हे निरंतर रहता है...

इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।

तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…

अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा जो कर्ता और भोक्ता है...

तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादें...तो ना कर्ता रहा ना भोक्ता...

(श्री प्राणनाथ वाणी)

जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।

लगोगे जो दुःख को,तो दुःख तुमको लागसी ।
याद करो जो निजसुख को,तो दुःख तुम थे भागसी ।।

मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।

ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।
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प्रणाम जी

Wednesday, June 15, 2016


*जब अपने अंदर के चेतन परमात्मा मे स्थित हो जाओगे तब कर्ता और भोक्ता उत्पन्न करने वाली परिवर्नशील प्रकृती से तुम्हारा सम्बंध विछेद हो जायेगा  तब तुम जिसे कर्म बन्धन समझते हो उस धारणा से मुक्त होकर परमात्मा को पराप्त हो जाओगे* ..यही आनंद प्राप्ति हमारा परम लक्षय है...
*अष्टावक्र कहते हैं - तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो|*
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प्रणाम जी

Saturday, June 11, 2016

 *"प्रेम"*
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मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । यह मन का भाव नहीं हैं, यह जीव के लिय भी नवीन विषय व इसके लिय नौवां भाव है तथा आत्मा का परमभाव ‘प्रेम’ है कयोंकी आत्मा प्रेम का अंश है। प्रेम एक अविरल धारा है । यह गुणातीत विषय है जबकी मनकी सभी अवस्थाऐं गूणों के आधीन हैं...इसलिय गूणातीत परमात्मा को गूणातीत भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है...
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प्रणाम जी

Thursday, June 9, 2016

सुप्रभात जी

हे साधुजन सत्यग्यान का अवतरण हो चुका है तुम भी उसे पाकर ग्यानमय हे जाओ...
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‘बुद्ध’ बौद्ध धर्म की भाषा में सत्य ग्यान देने वाले होते हैं। गौतम बुद्ध ने अपने मृत्यु के समय अपने प्रिय शिष्य आनन्दा से कहा था कि ‘‘नन्दा! इस संसार में मैं न तो प्रथम बुद्ध हूं और न तो अंतिम बुद्ध हूं। इस जगत् में सत्य और परोपकार की शिक्षा देने के लिए अपने समय पर एक और ‘बुद्ध’ आएगा। यह पवित्र अन्तःकरणवाला होगा। उसका हृदय शुद्ध होगा। ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न तथा समस्त लोगों का नायक (स्वामी)होगा। जिस प्रकार मैंने संसार को अनश्वर सत्य की शिक्षा प्रदान की, उसी प्रकार वह भी विश्व को सत्य की शिक्षा देगा। विश्व को वह ऐसा जीवन-मार्ग दिखाएगा जो शुद्ध तथा पूर्ण भी होगा। नन्दा! उसका नाम मैत्रेय होगा। (Gospel of Buddha, by Carus, P-217)

*बुद्ध का अर्थ ‘बुद्धि से युक्त’ होता है*।
*मैत्रेय का अर्थ 'दया से युक्‍त' होता है*।

*अब जरा अन्य धर्म ग्रन्थो से इस के प्रमाण जान्ते हैं..* 👇🏼👇🏼

धर्मग्रन्थों की भविष्यवाणियाँ

*बुद्ध गीता*

वाराह कल्प के अट्ठाइसवें कलियुग के प्रारम्भ में ही श्री बुद्ध जी का यह स्वरूप प्रकट होगा । तब सर्वत्र ही अपने और पराये का यह भेद नहीं हो सकता है ।।१२।।

वह बुद्ध जी ही अपने दूसरे तन के स्वरूप में 'कल्कि' नाम से कहलायेंगे (बुद्ध जी का पहला तन श्री देवचन्द्र जी तथा दूसरा तन श्री मिहिरराज जी) । वह ही आदि नारायण को भी अखण्ड धाम का सर्वोच्च ज्ञान देने वाले होंगे ।।२३।।

संसार के सभी धर्मग्रन्थ रूपी लाखों जिह्वायें होते हुए भी (मर्मज्ञ होते हुए भी) सबके आश्रय स्वरूप वह बुद्ध जी तुतली (बोलचाल की सामान्य) भाषा में अपना ज्ञान (तारतम) देने वाले होंगे ।।२८।।

जब यवनों (मुसलमानों) के द्वारा मन्दिरों को गिराया जाने लगेगा तथा तीर्थों की महिमा भी कम होती जायेगी, तब श्री बुद्ध जी का प्रकटन होगा ।।३४।।

*बुद्ध सत्रोत*

कलियुग के प्रथम चरण में वह सच्चिदानन्द परब्रह्म अचानक ही ज्ञान रूप से प्रकट होंगे, जिनके ज्ञान को प्राप्त करके तुम स्वयं भी ज्ञानमयी हो जाना ।।५।।

*पुराण संहिता*

अज्ञानता के अगाध सागर में आत्मांओ के गिर जाने पर परब्रह्म स्वयं अपने कृपा रूपी महासागर में स्नान करायेंगे अर्थात् स्वयं प्रकट होकर अपने अलौकिक ज्ञान से उन्हें जाग्रत करेंगे । (३१/५०)

परमधाम की आत्मायें सुन्दरी और इन्दिरा (श्यामा जी और इन्द्रावती जी) जिन दो तनों में प्रकट होंगी, उनके नाम चन्द्र और सूर्य (देवचन्द्र और मिहिरराज) होंगे । तथा इनके अन्दर साक्षात् परब्रह्म विराजमान होकर लीला करेंगे, जिससे माया के अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो जाएगा । (३१/५२-७० का सारांश)

इस प्रकार अपने प्रियतम(परमात्मा) के द्वारा जाग्रत की हुई सभी सखियों (आत्माओं)में से कोई सुन्दरी(सुंदरबाई या देवचन्दर)नामक भाग्यशालिनी सखी सबको जाग्रत करेगी । (३३/१५५)

वह सुन्दरबाई इन्दिरा की सहायता प्राप्त करके जागनी करेगी । सुन्दरी के मन में साक्षात् स्वामिनीजी की ही सुरता प्रवेश करेगी । इस प्रकार इस जागनी के मार्ग में सुन्दरी को ही सदगुरु माना गया है । (३४/४३,४९)

*बृहद्सदाशिव संहिता*

परब्रह्म की आनन्द स्वरूपा जो सखियां ब्रज और वृंदावन में स्थित थीं, वे कलियुग में पुनः प्रकट होंगी और जाग्रत होकर पुनः अपने उस धाम में जायेंगी । (श्रुति रहस्य १७)

चिदघन स्वरूप परब्रह्म के आवेश से युक्त अक्षर ब्रह्म की बुद्धि अक्षरातीत की प्रियाओं (आत्माओं)को जाग्रत करने के लिए तथा सम्पूर्ण लोकों को मुक्ति देने के लिए भारतवर्ष में प्रकट होगी । वह प्रियतम(परमात्मा) के द्वारा स्वामिनी (श्री श्यामा जी) के हृदय में स्थापित किए जाने पर चारों ओर फैलेगी । *(श्रुति रहस्य १८,१९)*


*श्रीमद्भागवत्*

शान्तनु के भाई देवापि तथा इक्ष्वाकु वंशीय राजा मरु इस समय कलाप ग्राम में स्थित हैं । वे दोनो महान योगबल से युक्त हैं । परमात्मा की प्रेरणा से वे दोनो कलियुग में पहले की ही भांति धर्म की स्थापना करेंगे । (१२/२/३७,३८)

भावार्थ- उपरोक्त तीनों ग्रन्थ एक दिशा में ही संकेत कर रहे हैं । परमयोगी देवापि के जीव ने श्री देवचन्द्र (चन्द्र) के रूप में जन्म लिया । उनके अन्दर परमधाम की श्री श्यामा जी (सुन्दरी) की आत्मा ने प्रवेश किया । अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के साक्षात्कार के पश्चात् उन्होंने आत्माओं की जागृति के लिए प्रयास किया।

परमयोगी राजा मरु के जीव ने श्री मिहिरराज (सूर्य) के रूप में जन्म लिया । उनके अन्दर परमधाम की श्री इन्द्रावती जी (इन्दिरा) की आत्मा ने प्रवेश किया । सम्वत् १७३५ में हरिद्वार में सर्वसम्मति से हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों के आचार्यों ने उन्हें 'विजयाभिनन्द निष्कलंक बुद्ध' माना । इस प्रकार परब्रह्म अक्षरातीत ने अपना नाम व सारी शोभा श्री इन्द्रावती जी को दे दी ।

*भविष्योत्तर पुराण*

ब्रह्मा जी ने कहा- हे नारद ! भयंकर कलियुग के आने पर मनुष्य का आचरण दुष्ट हो जाएगा और योगी भी दुष्ट चित्त वाले होंगे । संसार में परस्पर विरोध फैल जायेगा । द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) दुष्ट कर्म करने वाले होंगे और विशेषकर राजाओं में चरित्रहीनता आ जायेगी । देश-देश और गांव-गांव में कष्ट बढ़ जायेंगे । साधू लोग दुःखी होंगे । अपने धर्म को छोड़कर लोग दूसरे धर्म का आश्रय लेंगे । देवताओं का देवत्व भी नष्ट हो जायेगा और उनका आशीर्वाद भी नहीं रहेगा । मनुष्यों की बुद्धि धर्म से विपरीत हो जायेगी और पृथ्वी पर म्लेच्छों के राज्य का विस्तार हो जायेगा ।

जब हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर विरोध होगा और औरंगज़ेब का राज्य होगा, तब विक्रम सम्वत् १७३८ का समय होगा । उस समय अक्षर ब्रह्म से भी परे सच्चिदानन्द परब्रह्म की शक्ति भारतवर्ष में इन्द्रावती आत्मा के अन्दर विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप में प्रकट होगी । वह चित्रकूट के रमणीय वन के क्षेत्र (पद्मावतीपुरी पन्ना) में प्रकट होंगे । वे वर्णाश्रम धर्म (निजानन्द) की रक्षा तथा मंदिरों *(अर्थात सबके हृदय में परमात्मा)*की स्थापना कर संसार को प्रसन्न करेंगे । वे सबकी आत्मा, विश्व ज्योति पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । म्लेच्छों का नाश करने वाले बुद्ध ही होंगे और श्री विजयाभिनन्द नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे । *(उ.ख.अ. ७२ ब्रह्म प्र.)*

वह परब्रह्म पुरुष निष्कलंक दिव्य घोड़े पर (श्री इन्द्रावती जी की आत्मा पर) बैठकर, निज बुद्धि की ज्ञान रूपी तलवार से इश्क बन्दगी रूपी कवच और सत्य रूपी ढाल से युक्त होकर, अज्ञान रूपी म्लेच्छों के अहंकार को मारकर सबको जागृत बुद्धि का ज्ञान देकर अखण्ड करेंगे । *(प्र. ३ ब. २६ श्लोक १)*

*माहेश्वरतन्त्रम्*

द्वापर के अन्त होने पर कलियुग में लीला के आविर्भाव होने से, परब्रह्म अपनी प्रियाओं (आत्माओं) की दुखपूर्ण लीला को न सहते हुए, उनमें से एक परम सौभाग्यशालिनी सुन्दरी नाम की प्रिया को निर्णय बतलाकर प्रबोधित करेंगे । (२२/२७,२८)

*सिख पंथ के 'पुरातन सौ साखी' (भविष्य की साखियां) ग्रन्थ का पृष्ठ ६५-६६* 👇🏼

नेह कलंक होय उतरसी , महाबली अवतार । संत रक्षा जुग जुग करे , दुष्टा करे संहार ।।    नवां धरम चलावसी , जग में होवन हार । नानक कलजुग तारसी , कीर्तन नाम *(नाम का अर्थ परबृह्म की पहचान है)*आधार ।।

*सुन्दरी तन्त्र*

पद्मावती और केन नदी के मध्य विन्धयाचल पर्वत के एक क्षेत्र में इन्द्रावती नामक परब्रह्म की आत्मा होगी । उनके अन्दर परब्रह्म सच्चिदानन्द विराजमान होकर पूर्ण ब्रह्म कहलायेंगे ।
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*प्रणाम जी*

Wednesday, June 8, 2016

कलाम अल्ला या हदीसें, सास्त्र पुरान या वेद।
एकसब सुख लेवें मोमिन, हक रसना के भेद।।
(सिंधी, 16-19)

हिन्दु और मुसलमान दोनो के परमात्मा एक ही हैं.
मात्र भाषा भेद के कारण परमात्मा में भेद हो गया..

न काष्ठे विधते देवा न पाषाणे न म्रणमये| भावे हि विधते देवस्तस्माद भावो हि कारणम|| (गरुण पुराण – धर्मकाण्ड – प्रेतखण्ड 38:13)
वह देव ना तो लकड़ी मे, न पत्थर मे, ना मिट्टी मे हैं| वे तो भाव मे विधमान हैं| जहा भाव करे वहा ही परमात्मा सिद्ध होता हैं|

इसी प्रकार महाभारत/गीता मे देखे-

अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम| परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम|| (महाभारत 6:31:11) (गीता 9:11)
मेरे परम भावो को न जानने वाले मूर्ख लोग मुझे प्राणियो मे महान परमात्मा को मनुष्य शरीरधारी समझकर मेरा अपमान करते हैं
१. ऋग्वेद १.१६४.४६ – उसी एक परमात्मा को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्या, सुपर्ण, गरुत्मान, यम और मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं.
२. यजुर्वेद ३२.१- अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, आप: और प्रजापति- यह सब नाम उसी एक परमात्मा के हैं.
३. ऋग्वेद १०.८२.३ और अथर्ववेद २.१.३- वह परमात्मा एक हैं और सब देवों के नामों को धारण करने वाला हैं, अर्थात सब देवों के नाम उसी के हैं.
४. ऋग्वेद २.१ सूक्त में अग्नि शब्द को ज्ञानस्वरूप परमात्मा का वाचक के रूप में संबोधन करते हुए कहाँ गया हैं की हे अग्नि, तुम इन्द्र हो, तुम विष्णु हो, तुम ब्रह्मणस्पति, वरुण, मित्र, अर्यमा, त्वष्टा हो. तुम रूद्र, पूषा, सविता, भग, ऋभु , अदिति, सरस्वती,आदित्य और ब्रह्मा हो.
५. अथर्ववेद १३.४ (२), १५-२०- जो व्यक्ति इस परमात्मा देव को एक रूप में विद्यमान जनता हैं, जो की वह न दूसरा हैं, न तीसरा हैं और न चौथा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह पांचवा हैं, न छठा हैं और न सांतवा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह न आठवां हैं, न नवां हैं और न दसवां हैं ऐसा जानता हैं, वह सब कुछ जानता हैं. वह चेतन और अचेतन संपूर्ण रहस्य को जन लेता हैं. उसी परमात्मा देव में यह सारा जगत समाया हुआ हैं. वह देव अत्यंत सहन शक्ति वाला हैं. वह एक ही हैं, अकेला ही वर्तमान हैं, वह एक ही है

कुरान पक्ष...

मुसलमान एक ही परमात्मा को मानते हैं, जिसे वोअल्लाह (फ़ारसी: ख़ुदा) कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी में तौहीद कहते हैं, जो शब्द वाहिद से आता है जिसका अर्थ है एक। इस्लाम में परमात्मा को मानव की समझ से ऊपर समझा जाता है। मुसलमानों के अनुसार परमात्मा अद्वितीय हैः उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में परमात्मा की एक विलक्षण अवधारणा पर ज़ोर दिया गया है। साथ में यह भी माना जाता कि उसकी पूरी कल्पना मनुष्य के बस में नहीं है।

कुरान में...

कहो: है परमात्मा एक और अनुपम।

है परमात्मा सनातन, हमेशा से हमेशा तक जीने वाला।
उसकी न कोई औलाद है न वह खुद किसी की औलाद है।
और उस जैसा कोई और नहीं॥”
(कुरान, सूरत ११२, आयते १ - ४)

सूरए ज़ुमर की 66वीं आयत सभी को परमात्मा की उपासना का निमंत्रण देते हुए कहती है केवल परमात्मा की उपासना करो और कृतज्ञों में से हो जाओ। अर्थात सभी का पूज्य केवल और केवल अनन्य परमात्मा होना चाहिए।

क़ुरआने मजीद सूरए ज़ोमर की आयत क्रमांक 64 से 66 में अनेकेश्वरवाद और एकेश्वरवाद के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है। कह दीजिए कि हे अज्ञानियो! क्या तुम मुझसे यह कहते हो कि मैं परमात्मा के अतिरिक्त किसी और की उपासना करूँ? For more click this👇🏼👇🏼
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दोऊ दौड करत हैं, हिन्दू या मुसलमान।
ए जो उरझे बीच में, इनका सुंन मकान।।
प्रणाम जी

Tuesday, June 7, 2016

बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
          विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्मस्प से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाऍ अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
     मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है । फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। जब परमात्मा का आनंद आता है तो जन्म जन्म के विकार अपने आप छूट जाते हैं..जब ये सुख आवे अंगमे तो छूट जाये सब विकार..www.facebook.com/kevalshudhsatye
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प्रणाम जी
सुप्रभात जी
हे साधुजन सत्यग्यान का अवतरण हो चुका है तुम भी उसे पाकर ग्यानमय हे जाओ...
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‘बुद्ध’ बौद्ध धर्म की भाषा में सत्य ग्यान देने वाले होते हैं। गौतम बुद्ध ने अपने मृत्यु के समय अपने प्रिय शिष्य आनन्दा से कहा था कि ‘‘नन्दा! इस संसार में मैं न तो प्रथम बुद्ध हूं और न तो अंतिम बुद्ध हूं। इस जगत् में सत्य और परोपकार की शिक्षा देने के लिए अपने समय पर एक और ‘बुद्ध’ आएगा। यह पवित्र अन्तःकरणवाला होगा। उसका हृदय शुद्ध होगा। ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न तथा समस्त लोगों का नायक (स्वामी)होगा। जिस प्रकार मैंने संसार को अनश्वर सत्य की शिक्षा प्रदान की, उसी प्रकार वह भी विश्व को सत्य की शिक्षा देगा। विश्व को वह ऐसा जीवन-मार्ग दिखाएगा जो शुद्ध तथा पूर्ण भी होगा। नन्दा! उसका नाम मैत्रेय होगा। (Gospel of Buddha, by Carus, P-217) बुद्ध का अर्थ ‘बुद्धि से युक्त’ होता है।
मैत्रेय का अर्थ 'दया से युक्‍त' होता है।
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प्रणाम जी

Sunday, June 5, 2016


समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा इसलिय इसका इसप्रकार उपयोग करें की कम समय में ज्यादा लाभ हो। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें आत्मआनंद की प्राप्ति नहीं होगी।
हमें आत्मआनंद की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा आत्मआनंद प्राप्त नहीं होगा।
चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव आत्मआनंद प्राप्त होगा कयोंकी एकमात्र परमात्मा ही आनंद है अर्थात आनंद और बृह्म दोऊं एक है...
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प्रणाम जी

Saturday, June 4, 2016



विष्णु का अर्थ..
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प्रकृति के कोइ एक हि पदार्थ के जितने गुणवाचक नाम हो, उन सभी नाम के एक-एक स्वतन्त्र देव के रूप में विकसित हुए दिखते है । जैसे कि – आकाश स्थित सूर्य को आदित्य = पृथिवी के रसों का ग्रहण करनेवाला, पूषन् = पोषण करनेवाला, विष्णु= किरणोंको समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त करनेवाला, सवितृ= सभी जीवो का प्रसव करानेवाला । ये सभी स्वतन्त्र देव के सूक्त है । जिसमें विष्णु, जो सूर्य का ही व्यापनशील गुणवाले होने के कारण एक स्वतन्त्र देव के रूपमें स्तुत्य बने है ।

विष्णु शब्द विश् (प्रवेश-धात्) से व्युत्पन्न है । सूर्य ही अपने किरणों से तीनों लोक में एक साथ प्रवेश कर देता है (अर्थात ब्रह्म सभी जीवो पर समान कृपा करता है सब जिवो को समान पोषित करता है कयोंकी सूर्य अत्यनत तेजवान व सभी जीव जन्तु व वनस्पति आदि को पोषित करता है इसी कारण ब्रह्म को सूर्य कि संघ्या से संबोधित किया गया है )

 यास्कने निरुक्त में कहा है
‘‘यद् विषितो भवति तद् विष्णुर्भवति । विष्णुर्विशते र्वा व्यश्नोतेर्वा, तस्य एषा भवति ।‘‘
इसकी टीका में दुर्ग लिखते है –
 ‘‘यदा रश्मिभिरतिशयेनायं व्याप्तो भवति, व्याप्नोति वा रश्मिभिरयं सर्वम्, तदा विष्णुरादित्यो भवति । [3]
‘‘अर्थात् जब सूर्य रूपी बृह्म अपने किरणों से अतिशय रूपसे सभी जगह फैल जाता है अथवा जो (अपने) किरणों से सभी व्याप लेता है, इस कारण आदित्य को विष्णु कहा जाता है ...यह बृह्म के सत्ता रूप का द्योतक है आनंद बृह्म न्यारा है...

निर्गुण राम निरंजन राया, जिन वह सकल श्रृष्टि उपजाया ।
निगुण सगुन दोउ से न्यारा, कहैं कबीर सो राम हमारा ॥
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प्रणाम जी

Wednesday, June 1, 2016


पूर्ण सन्त की पहचान व उसके लक्षण हमारे सद्ग्रन्थों में लिखे हुए है ...पूर्ण सन्त की पहचान के लिए आप सभी सन्तों के ज्ञान का अध्ययन करिये..क्योंकि ज्ञान से ही सन्त की पहचान होगी। जो सन्त सभी शास्त्रों चाहे वेद हो या कुरान, के अनुकूल ज्ञान देता है वह पूर्ण ज्ञानी सन्त होगा और जो सन्त शास्त्रों के विपरीत ज्ञान बताता है और सत्य विषय के बाहर जाकर ज्ञान देता है वह नकली और अज्ञानी है।
आपजी सभी धर्मगुरुओं की किताबों का तुलनात्मक अध्ययन करिये। उनके प्रवचन सुन कर खुद समझिये कि इन धर्म गुरूओं द्वारा कही जा रही बातो का उल्लेख किसी धर्म शाश्त्र में है या कि नहीं है। जहा पर इन धर्म गुरूओ का ज्ञान समझ मे ना आये तब इनसे प्रश्न करिये और बार बार प्रश्न करिये। इस तरह सच्चाई का पता अपने आप चल जायेगा।
कबीर भेष देख मत भूलिये, बूझ लीजिये ज्ञान।
बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान।।
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प्रणाम जी