Monday, June 20, 2016

एही पट आडे तेरे, और जरा भी नाहें।
तो सुख जीवत अरस का, लेवे ख्वाब के माहें।।

यही अहं ( केवल जीव की मान्यता अर्थात वो परकृती के साथ अपने समंबंध को मान लेता है इसी को *प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष* कहा जाता है यही कर्ता है और यही भोक्ता है ...यह आवरण हटते ही जीव आत्मा के दूारा परमात्मा को जान लेता है )तेरे और परमात्माके बीच आवरण बना हुआ है. इसके अतिरिक्त अन्य कोई आवरण ही नहीं है. इसको हटाने मात्रसे इस स्वप्नवत् संसारमें जीवित रहते हुए ही परमधामके सुखोंका अनुभव होगा...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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