सुप्रभात जी
www.facebook.com/kevalshudhsatye
अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागृती आती है आत्मा मे ओर जागृत आत्मा का जीव अपने निर्विकार स्वरूप को जान पाता है..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत या अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव का मन स्वतः ही कर्मों की प्रवृत्ति से अलग हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। कयोंकी मन की अपनी कोई सत्ता नही है इसलिय जब जीव अपने स्वभाव में आयगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन आत्मा के सानिध्य में एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को विषयों से अलग कर देती है। उस समय जीव, अतःकरण (मन,चित,बुद्धि,आदी) एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समया-अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
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अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागृती आती है आत्मा मे ओर जागृत आत्मा का जीव अपने निर्विकार स्वरूप को जान पाता है..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत या अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव का मन स्वतः ही कर्मों की प्रवृत्ति से अलग हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। कयोंकी मन की अपनी कोई सत्ता नही है इसलिय जब जीव अपने स्वभाव में आयगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन आत्मा के सानिध्य में एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को विषयों से अलग कर देती है। उस समय जीव, अतःकरण (मन,चित,बुद्धि,आदी) एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समया-अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
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