Monday, June 27, 2016

*उपहार और समर्पण में भेद*

सुप्रभात जी
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*जब हर पल परमात्मा में स्थित रहने लगो तब समझना जीवन सफल होने लगा है..
आप कहोगे कहना आसान है पर बहोत अभ्यास के बाद भी नही हो पाता.. मैं कहता हूं बहोत आसान है , आप उठकर पानी का गलास लेते हो इस से भी आसान,
*कैसे?*
बस तुम ये जो मेरा परमात्मा में लगाते हो,मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित,  ये मेरा छोडकर जो मेरा कहने वाला है उसको परमात्मा में स्थित करलो, मेरा कहने वाला सवंय परमात्मा में आ गया तो उसने जो भी मेरा मान रखा है वो सब अपने आप आजएगा ..जैसे किसी राजा के समर्पण से उसके मन्त्री, सैनापती और सैना का समर्पण अपने आप हो जाता है ...वरना अगर सिर्फ मन्त्री या सैनापती को मारोगे या पकड़ने का प्रयास करते रहे तो वो राजा और नये बना लेगा..
अब सवंय कोन है और परमात्मा में कैसे लगे ये पता है तो ठीक है वरना किसी के माध्यम जान लो पर ध्यान रहे जिस माध्यम से जानो वो सवंय परमात्मा में स्थित हो ये परम शर्त है...और ध्यान रहे माध्यम से समझकर परमात्मा में स्थित होना है , माध्यम में नही ... यही समर्पण है ..

एक बात और समझना बहोत ध्यान से कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझतो हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमें A आ गया...
*ध्यान दो*
जब हर परकार को बाह्य प्रपंच देख कर भी मन की दौड़ अंदर की ही होने लगे तब समझलेना तुमहारी सवंय की स्थिती परमात्मा मे होने लगी है...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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