बहोत बहोत बहोत ध्यान से पढें...
कर्ता भोक्ता भेद..
www.facebook.com/kevalshudhsatye
जीस प्रकार परआत्म परमधाम में बैठी है और खेल में केवल नजर आयी है परआत्मा अपने शुद्ध रूप में खेल में नही है . इसी नजर को को आत्म व शुद्ध रूप को परआत्म कहते है.
इसी प्रकार जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है इसकी जो नजर खेल में प्रकृति के साथ सम्बंध की मान्यता करती है इसी को प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष कहते हैं. इसलिय..
(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)
तो 'है' (जीव की शुद्ध सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ..
कयोंकि शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते क्योंकि ये तो जड़ हैं ये ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)
तो अब दो वस्तुऐं है -
1:- एक है "है" (जीव की शुद्ध सत्ता)
2:- और एक है "नही" (शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार)
आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो कर्ता और भोक्ता रहेगा ही नहीं …
क्योंकि 'है' में जो 'व्यक्तित्व' है वह नहीं होता ...और 'नही' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो
तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…
*और ये है क्या?*
कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।
…'है'से और 'नही'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) ज्ञान', ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।
अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।'परमात्मा'के साथ ही 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम' 'ज्ञान'और 'योग' रहा। और परमात्मा का वियोग नही रहा..जो तुम्हे निरंतर रहता है...
इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।
तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…
अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा जो कर्ता और भोक्ता है...
तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादें...तो ना कर्ता रहा ना भोक्ता...
(श्री प्राणनाथ वाणी)
जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।
लगोगे जो दुःख को,तो दुःख तुमको लागसी ।
याद करो जो निजसुख को,तो दुःख तुम थे भागसी ।।
मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।
ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
कर्ता भोक्ता भेद..
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जीस प्रकार परआत्म परमधाम में बैठी है और खेल में केवल नजर आयी है परआत्मा अपने शुद्ध रूप में खेल में नही है . इसी नजर को को आत्म व शुद्ध रूप को परआत्म कहते है.
इसी प्रकार जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है इसकी जो नजर खेल में प्रकृति के साथ सम्बंध की मान्यता करती है इसी को प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष कहते हैं. इसलिय..
(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)
तो 'है' (जीव की शुद्ध सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ..
कयोंकि शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते क्योंकि ये तो जड़ हैं ये ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)
तो अब दो वस्तुऐं है -
1:- एक है "है" (जीव की शुद्ध सत्ता)
2:- और एक है "नही" (शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार)
आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो कर्ता और भोक्ता रहेगा ही नहीं …
क्योंकि 'है' में जो 'व्यक्तित्व' है वह नहीं होता ...और 'नही' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो
तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…
*और ये है क्या?*
कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।
…'है'से और 'नही'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) ज्ञान', ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।
अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।'परमात्मा'के साथ ही 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम' 'ज्ञान'और 'योग' रहा। और परमात्मा का वियोग नही रहा..जो तुम्हे निरंतर रहता है...
इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।
तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…
अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा जो कर्ता और भोक्ता है...
तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादें...तो ना कर्ता रहा ना भोक्ता...
(श्री प्राणनाथ वाणी)
जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।
लगोगे जो दुःख को,तो दुःख तुमको लागसी ।
याद करो जो निजसुख को,तो दुःख तुम थे भागसी ।।
मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।
ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।
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