Saturday, April 30, 2016

सुप्रभात जी

जब परमात्मा आत्माओं के हृदय रूपी धाम में विराजमान हो जाते हैं, तब आत्मा जागृत हो गई है, ऐसा समझना चाहिए| इस प्रकार आत्माओं के हृदय में परमात्मा का पदार्पण या अहसास होना ही आत्म जागृति का लक्षण है...

प्रणाम जी
धनी न जाए किनको धूत्यो, जो कीजे अनेक धुतार ।
तुम चेहेन ऊपरके कै करो, पर छूटे न क्योंए विकार।।१

परमात्मा किसी भी प्रकारकी चतुराईसे ठगे नहीं जा सकते, चाहे ऐसे प्रयत्न अनेक क्यों न हों. तुम बाह्य आचरण (दिखावा)कितने भी कर लो परन्तु इनसे मनके विकार छूट नहीं सकते.
अपने केशको कोई जटा बढ़ा ले, कोई मुण्डन कराए अथवा कोई  नोंच-नोंचकर उखाड. डाले, परन्तु जब तक आत्माकी पहचान नहीं होती, तब तक ये सब वेश धारण करनेसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता.
चाहे चार बार रसोईके चौकेको साफ करो और लकड़ी को भी धोकर जलाओ. शरीरके बाह्य अङ्गोंको चाहे जितना भी स्वच्छ रख लो फिर भी इससे मन निर्मल (पवित्र) नहीं बनता.
चाहे दिनमें सात बार स्नान करो और उत्तम प्रकारके  वस्त्र धारण करो, चाहे उत्तम कुलमें जन्म लेनेका गर्व रखो फिरभी यह जीव मायाके बन्धनोंसे मुक्त नहीं हो सकता.
दिखानेके लिए चाहे सौ मालाएँ गलेमें धारण करो और दसों बार द्वादश तिलक (शरीरके बारह अंगों पर चन्दनका लेप) करते रहो, परन्तु जब तक परब्रह्म परमात्माके प्रति सच्चा प्रेम हृदयमें प्रकट न होगा, तब तक मनका फेरा नहीं छूटेगा.
चाहे भक्तिभाव दिखानेके लिए स्वर-तानके साथ रागका आलाप करते हुए कीर्तन करो और इससे स्वयं प्रसन्न रहो तथा दूसरोंको भी प्रसन्न करो फिरभी तुम्हारा मन संयमित नहीं रहेगा.
चाहे अन्नकूटका उत्सव कर विभिन्न प्रकारके व्यञ्जनोंका भोग लगाओ पश्चात् सब मिलकर प्रसादका आनन्द लो, फिरभी परमात्मा निकट नहीं आएँगे.
चाहे तुम सब संस्कृत भाषा सीख कर वेद, पुराण आदि धर्मग्रन्थोंका अध्ययन कर लो और बारह मात्राओंको अलग-अलग कर उनका अर्थ भी लगा लो, परन्तु इन सब प्रयत्नोंके बाद भी अपनी आत्माकी पहचान न हो पाएगी.
चाहे तुम योगकी साधना करो, अनहद नादका श्रवण करो, अजपा जाप करो अथवा चौरासी आसनोंका प्रयोग करो, साधना द्वारा आकाशमें उड.ने लगो अथवा भूमिके अन्दर समाधि लगा लो तथा पञ्चमहाभूतोंसे बने इस ब्रह्माण्डमें जितनी भी प्रगति करो, तथापि अन्तमें शून्य निराकारको छोड.कर उससे आगे कोई भी नहीं बढ. सका.
चाहे ज्योतिषका अभ्यास कर भविष्यवक्ता बनो, दूसरोंके मनको परख लो. चाहे तुम्हें चौदह लोकोंके ज्ञाानकी भी समझ आने लगे. चाहे जप अथवा चमत्कार द्वारा मृतको जीवित भी कर लो, परन्तु इन सबके करने पर भी तुम्हें अपने मूल घर (परमधाम) की सुधि प्राप्त नहीं हो सकेगी.

जो आत्माकी पहचान करवा दें, मायाकी सूझ देकर आत्माके स्वामी परमात्मा तथा परमधामकी पहचान भी करवा दें. ऐसे सद्गुरुके मिलने पर आत्म-जागृतिका मार्ग प्रशस्त होगा. इसलिए ऐसे अवसरको हाथसे जाने मत दो.

इस प्रकारकी पहचान होने पर आत्माको अखण्ड सुखका अनुभव होता है और अपने परमात्मा के साथ मूल सम्बन्धकी भी पहचान होती है. इस प्रकार जो अखण्ड ज्ञाानके तेजकी वर्षा करते हैं, ऐसे व्यक्तिको खोज कर ही अपना सद्गुरु बनाना चाहिए.
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प्रणाम जी

Wednesday, April 27, 2016

सुप्रभात जी

इस संसार के सिद्धान्तानुसार सभी जीव अपने-अपने संस्कारों के अनुसार ही कार्य करते हैं तथा सबके संस्कार भी अलग-अलग ही होते हैं। अतः सबके द्वारा अलग-अलग प्रकार की लीला होनी स्वाभाविक है। जीव पर आत्मा विराजमान होकर इस खेल को देख रही है, इसलिये जीवों के संस्कारवश अलग-अलग प्रकार के नाटक यहां दिखायी पड़ रहे हैं, किन्तु यह ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि परमात्मा जिस आत्मा को जिस प्रकार की लीला दिखाना चाहते हैं उसके दिल में वैसा ही भाव भरते हैं और उसकी नजर दिल रूपी परदे पर वैसा ही दृश्य देखती है। उसकी सुरता(ध्यान) भी वैसे ही जीव पर विराजमान होती है, जो उस प्रकार का अभिनय कर सके। परमात्मा के हुक्म से ही इस प्रकार की विचित्र लीला चल रही है।

प्रणाम जी
प्रेम अंदर ऐसी भई, नींद माहें की उड़ कहूं गई।
गुन अंग इंद्री पख, पिया प्रेमें हुए सब लख।।

संसार के सभी प्राणी तीनों गुणों (सत्व, रज और तम), अन्तःकरण (मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार), इन्द्रियों, एवं पक्षों (प्रवृति एवं निवृति) के बन्धन में फंसे रहते हैं। परमात्मा का प्रेम आ जाने से इनके ऊपर पूर्णतया नियन्त्रण हो जाता है अर्थात् माया के बन्धनों में फंसाने वाली इनकी शक्तियों की वास्तविक पहचान हो जाती है। इस अवस्था में आत्मा का हृदय सत्व, रज और तम से रहित त्रिगुणातीत मार्ग पर चलने लगता है। जीव के भी मन, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार में मात्र प्रेम ही प्रेम बसा होता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियों- मनन्, चिन्तन, विवेचना एवं अहम् में प्रेम एवं परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। इन्द्रियां पूर्णतया निर्विकार हो जाती हैं। उसका हृदय भी राग एवं वैराग्य से परे परमात्मा के विशुद्ध प्रेम में डूब जाता है।

प्रणाम जी

Sunday, April 24, 2016

सुप्रभात जी
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शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है ।इसलिय नश्वर नाम व शरीर का मोह ना करके इस शरीर को सर्वोतम कार्य में प्रयोग करें.. इसका केवल एक ही सर्वोत्तम उपयोग है की इससे हमें निराकार और साकार से परे एक मात्र सत्य परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिय..
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प्रणाम जी

Saturday, April 23, 2016

प्रतिदिन मन के कान खींचिए :
सुप्रभात जी

हे प्रिय आत्मन् ! यदि आप अपने कल्याण की इच्छा रखते हो तो आपको अपने मन को समझाना चाहिए । इसे उलाहने देकर समझाना चाहिएः “अरे चंचल मन ! अब शांत होकर बैठ । बारंबार इतना बहिर्मुख होकर किसलिए परेशान करता है ? बाहर क्या कभी किसीको सुख मिला है ? सुख जब भी मिला है तो हर किसीको अंदर ही मिला है । जिसके पास सम्पूर्ण भारत का साम्राज्य था, समस्त भोग, वैभव थे ऎसे सम्राट भरथरी को भी बाहर सुख न मिला और तू बाहर के पदार्थो के लिए दीवाना हो रहा है ? तू भी भरथरी और राजकुमार उद्दालक की भांति विवेक करके आनंदस्वरुप की ओर क्यों नहीं लौटता ?”
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राजकुमार उद्दालक युवावस्था में ही विवेकवान होकर पर्वतों की गुफाओं में जा-जाकर अपने मन को समझाते थेः “अरे मन ! तू किसलिए मुझे अधिक भटकाता है ? तू कभी सुगंध के पीछे बावरा हो जाता है, कभी स्वाद के लिए तडपता है, कभी संगीत के पीछे आकर्षित हो जाता है । हे नादान मन ! तूने मेरा सत्यानाश कर दिया । क्षणिक विषय-सुख देकर तूने मेरा आत्मानंद छीन लिया है, मुझे विषय-लोलुप बनाकर तूने मेरा बल, बुद्धि, तेज, स्वास्थ्य, आयु और उत्साह क्षीण कर दिया है ।”
  “अरे मन ! तू बार-बार विषय-सुख और सांसारिक सम्बन्धों की ओर दौडता है, पत्नी बच्चे और मित्रादि का सहवास चाहता है परन्तु इतना भी नहीं सोचता कि ये सब क्या सदैव रहनेवाले हैं ? जिन्हें प्रत्येक जन्म में छोडता आया है वे इस जन्म में भी छूट ही जायेंगे फिर भी तू इस जन्म में भी उन्हीं का विचार करता है ? तू कितना मूर्ख है ? जिसका कभी वियोग नहीं होता, जो सदैव तेरे साथ है, जो आनन्दस्वरुप है, ऎसे परमात्मा के ध्यान में तू क्यों नहीं डूबता ? इतना समय और जीवन तूने बर्बाद कर दिया । अब तो शांत हो बैठ ! इतने समय तक तेरी बात मानकर, तेरी संगत करके मैंने अधम संकल्प किये, कुसंग किये, कुतर्क किये ।अब तो बुद्धिमान बन, पुरानी आदत छोड । अंतर्मुख हो । और उस एक परमात्मा की ओर एकाग्र होकर अपना कल्याण कर...
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प्रणाम जी
हे परमात्मा सब कुछ आप ही करते हैं और आप ही कराते हैं। आप ही अपने पास पहुँचवाते हैं (पहचान कराते हैं)। इन बातों को जो तिल मात्र भी अपने ऊपर लेती हैं, निश्चित रूप से वह आत्मा बहुत ही नासमझ कही जाती है।
जैसे सागर के बिना लहरों, चन्द्रमा के बिना चांदनी और सूर्य के बिना किरणों का कोई अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार यदि लहरें, चांदनी और किरणें स्वयं को सागर, चन्द्रमा और सूर्य से अलग मानने लगें तथा स्वयं को लीला का कर्ता-धर्ता मानने लगें तो इससे बड़ी नादानी और कुछ भी नहीं हो सकती। अक्षरातीत की अंगरूपा अंगनायें उन्हीं की स्वरूपा हैं। उनके स्वरूप में स्वयं परमात्मा  ही लीला करते हैं...

प्रणाम जी

Thursday, April 21, 2016

ना मांग्या ना दिल उपज्या, दिल ह्कें उठाया एह |
तो मांग्या खेल जुदागीये का, देने अपना इसक सनेह ||

यह दुेत की माया का खेल न तो आत्माओं ने माँगा है और न ही यह देखने की इच्छा उनके हृदये में उत्पन्न हुई है . क्योंकि ये मांगना और परमात्मा से अलग कुछ हृदये में आना ये सब दूेत के भाव है अदुेत में यह भाव नही होते इसलिए यह कभी मत समझना की यह खेल हमने माँगा या ये देखने की इच्छा हमारे हृदये में आई. वस्तुतः यह भाव भी अदुेत के कारण ही हमारे हृदये में आया था क्योंकि परमात्मा के हृदये का ही भाव अदुेत भाव के कारण हम सब आत्माओं में आया है क्योंकि परमधाम में अदुेत की लीला है इसलिए जो परमात्मा अपने हृदये में लेते हैं वही सब आत्माओं के हृदये में आ जाता है और ऐसा उन्होंने इसलिए किया है की हम आत्मवों को दुेत के खेल में भी अदुेत का आनंद मिल सके और हमें उनकी अदुेत की सत्ता का भी इल्म हो सके. क्योंकि दुयेत में प्रेम या इश्क नही है. यहाँ इस संसार में इश्क या प्रेम का अर्थ केवल स्वार्थ मात्र है क्योंकि प्रेम वह होता है जिसमें मैं और तू का भाव समाप्त होकर केवल है का भाव हो जाता है और यही भाव अदुेत कहा जाता है अर्थात जहाँ किसी दूसरे का भाव ही न हो जो तेरे दिल में है वोही मेरे दिल में भी है यही अदुेत है इसी को प्रेम या इश्क कहा जाता है. परमात्मा से प्रेम या इश्क होने का मतलब यह नही है की उसकी याद में आंसू बहाया जाये या उससे मिलने की विनती की जाये क्योंकि इन सबमे दुेत का भाव है.. प्रेम तो वो है जिसमे तू ,तू न रहे और मै, मैं न रहूँ दोनो के हृदये एक ही होजाते है बस उस " है " का ही आनंद मिलता है सदा के लिए इसलिए अदुेत को ही प्रेम कहा गया है. और वास्तव में प्रेम है भी यही इसी प्रेम का आनंद दुेत में देने के लिए ही परमात्मा ने हमे यह दुेत का खेल दिखाये है इसलिए इसका कारण केवल प्रेम ही है .....
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प्रणाम जी

Wednesday, April 20, 2016

सुप्रभात जी

जैसे आकाश में नीलता,सीप में रूपा और निद्रादोष से स्वप्न दिखते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रान्ति से दिखाइ देता है । और जब अपने सवंय के स्वरूप में जागे तब जगत्‌भ्रम मिट जाता है । इससे कारणकार्य भ्रम को त्यागकर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो । दुर्बोध से संकल्प रचना हुई है उसको त्याग करो और आदि, मध्य और अन्त से रहित जिसकी सत्ता है उसी आनंदस्वरूप में स्थित हो तब जगत्‌भ्रम मिट जायेगा ।

प्रणाम जी
आत्मा और परमात्मा की एक रूपता क्या है ...थोडा ध्यान पूर्वक ग्रहण करें..

परमात्मा पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप है उन्ही के हृदय का अंश सब आत्माऐं हैं ,

परमात्मा के पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप का अन्नत विस्तार का अन्नत आनंद को ग्रहण करने के लिय उपस्थित शुद्ध रूप को परमधाम कहते हैं ,

आनंद की लिला यही रूप परमधाम सब आतमाऔं का शुद्ध हृदय है और धयान दें सभी आत्माऔं में यही हृदय है ..इसलिय इनमें अदूैत भाव है अर्थात परमधाम व हृदय एक ही है इसलिय जो भी शुद्ध आनंद के लीला रूप परमधाम में आनंद लीला होती है चाहे वो एक पत्ता भी हिले वो सब आतमाऔं के हृदय में होता है और ये शुद्ध लिला रूपी धाम परमात्मा से ही है इसलिय यह परमातमा का निवास भी है इसलिय सब आत्माऔ का हृदय परमात्मा का धाम है ...अब जरा सोचिय आत्मा और परमात्मा में भिन्नता असंभव है या नही जब यही बोध आत्मा को सत्य रूप में हो जाता है तो यही आत्मा का प्रेम है..
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प्रणाम जी.
जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।

यह संसार जड है इसमें कोइ रस नही है(असतित्व हीन है लय होने वाला होने के कारण)इसलिय हम जो भी रस ग्रहण करते है वह हमारे अन्दर का ही होता है..फिर भी जहाँ (इस नाशवान संसारमें) कुछ भी नहीं है वहाँ परमात्मा हैं, ऐसा कहा जाता है. वस्तुतः संसारमें परमात्मा 'है' कहना अथवा 'नहीं है' कहना ये दोनों वचन मोहके हैं (क्योंकि जब संसार ही अस्तित्व हीन है तो उसको लेकर विवाद ही क्यों ?) इसलिए मैंने अपने अन्तर हृदयमें ही इसका विस्तार किया है और बाहर कहनेके लिए मैं मौन रह जाता हूँ इसलिय आत्माओं को अन्दर ही इस परमात्मा के ग्यानबोधका विस्तार करना चाहिय और बाहर जहां कहने का लाभ ना हो वहां  मौन ही रहना चाहिय ..

प्रणाम जी

Tuesday, April 19, 2016

         °°°°°""""कृपया ध्यान दें """'°°°°°

सुप्रभात जी

विज्ञान और धर्म

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विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अंध विश्वासों पर आधारित है। किंवदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है, जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म संप्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुँचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है, जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरो को गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए.. कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। इसलिय लोग धर्म अलगाव करके उसकी उपहास किया जाता है..

धर्म कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है, वह विकृत संप्रदायवाद ही है। आरंभ में संप्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजायश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं।

विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान—अर्थात ‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है—सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। विज्ञान से तात्पर्य भौतिकी नहीं है।

संसार में रहते हुए अपने कार्य या अपनी परम आवश्यकता को पूर्ण करने के लिय सबसे उत्तम साधन को अपना कर  अपने लक्ष्य को सरलता से प्राप्त करना यही विग्यान है ..यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक या विग्यान धारण कर अपने आपको परम मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये ।

विज्ञान का जो प्रयोजन है, उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं।

‘कामन सेन्स ऑफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव ब्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिंतन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है-‘‘जो चीज काम दे, उसकी स्वीकृति और जो काम न दे, उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस संदर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं-‘‘विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों, उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो तो वह विचार भले ही जीवन के, संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो विज्ञान माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायेगी।’ यही विवेक जाग्रती है यही विग्यान है..
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प्रणाम जी

Friday, April 15, 2016

सुप्रभात जी

हमारे मित्र, यह धन दौलत, हमारी सुन्दरता एवं हमारा गुरूर, सब एक दिन मिट्टी में मिल जाएगा। कुछ भी अमर नहीं है। यह संसार झूठ एवं कल्पनाओं का पुलिंदा है। हमें सदैव परम ज्ञान प्राप्त करने की कामना करनी चाहिए

चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव सुख प्राप्त होगा।

जो अपना समय आत्मज्ञान को प्राप्त करने में लगाते हैं, जो सदैव परमात्मा का ध्यान करते हैं एवं भक्ति के मीठे रस में लीन हो जाते हैं, उन्हें ही इस संसार के सारे दुःख दर्द एवं कष्टों से मुक्ति मिलती है।
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प्रणाम जी

Thursday, April 14, 2016


सुप्रभात जी

गायत्री क्या है क्या गायत्री देवी है ..??
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गायत्री एक छंद है इस कारण इस छंद में लिखे हुए सभी मन्त्र गयेत्री मन्त्र ही कहे जाते है | इसका प्रमाण गीता में श्री कृष्ण ने दिया है ज कहते है की ‘गायत्री छन्दसां अहम’’ अर्थात चन्दो में मै गायत्री हूँ गायत्री मंत्र ऋग्वेद में एक बार,यजुर्वेद में ४ बार और सामवेद में एक बार आया है इस छंद को निचृत गायेत्री कहते हैं | यह विशेष बात है की गायेत्री में केवल परब्रह्म की ही आराधना की गयी है और किसी देवी देवता  की नही | आइये इसमन्त्र का अर्थ जानें..
ऊँ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।
ऊँ - ईश्वर
भू: - प्राणस्वरूप
भुव: - दु:खनाशक
स्व: - सुख स्वरूप
तत् - उस
सवितु: - तेजस्वी
वरेण्यं - श्रेष्ठ
भर्ग: - पापनाशक
देवस्य - दिव्य
धीमहि - धारण करे
धियो - बुद्धि
यो - जो
न: - हमारी
प्रचोदयात् - प्रेरित करे
अर्थ है - उस प्राणस्वरूप, दु:ख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, परमात्मा के दिव्य स्वरूप को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करे।

यधपि अथर्वेद १९/७१/१  में इसे वेद माता अवश्य कहा गया है –
सतुता मया वरदा वेदमाता, प्रचोदयन्तां पावमानी दूिजानाम |
आयुः प्राण पशुं कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम् महाम् दत्वा व्रजति ब्रह्मलोकम् ||
(अथर्वेद १९/७१/१)

परन्तु इसका आशय यह है की मैं उस ज्ञानरुपी माता की स्तुति करता हुं जो दुिजों को पवित्र करने वाली है वह हमें आयु ,जीवन ,पशुधन ,यश ,और ब्रह्मतेज प्रदान करके ब्रह्म के धाम ले जाती है |

इस मन्त्र में गायत्री मन्त्र की शक्ति को वेदों में दिए ब्रह्म के ज्ञान को परब्रह्म से मिलाने वाली शक्ति के रूप में दर्शाकर उस शक्ति को मात्रशक्ति के रूप में बताया गया है इसलिए उसे माता कह कर पुकारा गया है जिसे पूराणपंथी लोगो ने तारतम के आभाव में एक देवी के रूप में दर्शा दिया....
इसलिए गायत्री कोई देवी नही है गायत्री मन्त्र है जो गायत्री छंद में है ,इसकी महिमा इसलिए ज्यादा है क्योंकि इसमें परब्रह्म का विषय दिया है केवल परब्रह्म का विषय होने के कारण इसकी इतनी महिमा अनेक मनिषियों नें बताई गयी है जैसे....

विश्वामित्र का कथन है- 'ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है ।। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला और कोई मंत्र नहीं है ।।

योगिराज याज्ञवल्क्य कहते हैं- 'गायत्री और समस्त वेदों को तराजू में तौला गया ।। एक ओर षट् अंगों समेत वेद और दूसरी ओर गायत्री, तो गायत्री का पलड़ा भारी रहा ।। वेदों का सार उपनिषद् हैं, उपनिषद् का सार व्याहृतियों समेत गायत्री है ।। जो द्विज गायत्री परायण नहीं, वह वेदों का पारंगत होते हुए भी शूद्र के समान है, अन्यत्र किया हुआ उसका श्रम व्यर्थ है ।। जो गायत्री का अर्थ नहीं जानता, ऐसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व से च्युत और पापयुक्त हो जाता है ।'

पाराशर जी कहते हैं- 'समस्त जप सूक्तों तथा वेद मंत्रों में गायत्री मंत्र परम श्रेष्ठ है ।। वेद और गायत्री की तुलना में गायत्री का पलड़ा भारी है ।।  वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास पढ़ लेने पर भी जो गायत्री के ज्ञान से हीन है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये ।'
अत्रि मुनि कहते हैं- 'गायत्री का ज्ञान आत्मा का परम शोधन करने वाला है ।। उसके प्रताप से कठिन दोष और दुर्गुणों का परिमार्जन हो जाता है ।। जो मनुष्य गायत्री तत्त्व को भली प्रकार से समझ लेता है, उसके लिए इस संसार में कोई सुख शेष नहीं रह जाता है ।'

महर्षि व्यास जी कहते हैं- 'जिस प्रकार पुष्प का सार शहद, दूध का सार घृत है, उसी प्रकार समस्त वेदों का सार गायत्री है सिद्ध की हुई गायत्री कामधेनु के समान है ।। गंगा शरीर के पापों को निर्मल करती है, गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र होती है ।। जो गायत्री के ज्ञान के उपरांत अन्य देवीदेवताओं की उपासनाएँ करता है, वह पकवान छोड़कर भिक्षा माँगने वाले के समान मूर्ख हैं ।।

ध्यान रहे ये सब संतो के विचार तारतम के आने से पहले के हैं इसलिए उन्होंने परब्रह्म की उपासना से स्म्भन्दित होने के कारण गायत्री की इतनी प्रशंशा की है तो सोचिये  तारतम वाणी में तो परब्रह्म के धाम स्वरुप व उसे पाने का पूरा विवरण दिया गया है तो तारतम वाणी की महिमा कितनी होगी ....
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प्रणाम जी

कुली दज्जाल अंधेर सरूपे, त्रिगुन को पाड़े त्रास।
सूर सिरोमन साध संग्रामें, पीछे पटक किए निरास।।

कलियुग रूपी यह शैतान अज्ञान का ही स्वरूप है, जिसने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को भी भयभीत कर रखा है। ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य के क्षेत्र में अग्रगण्य शिरोमणि महात्माओं को भी इसने मायावी युद्ध में हराकर निराश कर दिया।कलियुग से तात्पर्य उस मोहसागर से है, जिसे कोई पार नहीं कर पाता। सृष्टिकर्ता आदिनारायण भी जब इसके बन्धन में हैं तो उनके अंश से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का इससे भयभीत रहना स्वाभाविक ही है।
महानारायण उपनिषद् में कहा गया है कि उनके रोम-रोम में चौदह लोकों सहित असंख्यों ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्थित हैं।

इसी प्रकार अन्य ग्रन्थो में भी विवरण है जैसे..

देवी भागवत (9/3/7) में कहा गया है कि भले ही धूल के कणों की संख्या गिन ली जाये, लेकिन उत्पन्न होने वाले तथा लय होने वाले ब्रह्माण्डों की संख्या नहीं गिनी जा सकती । इसी प्रकार असंख्य ब्रह्माण्डों के असंख्य ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की संख्या की भी गिनती संभव नहीं है ।

देवी भागवत (4/19/3) के कथनानुसार- ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव भी उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के विषय में यथार्थ रूप से नहीं जानते हैं । मै ब्रह्मा हूँ, मै विष्णु हूँ, मै शिव हूँ- इस प्रकार हम लोग माया से मोहित हो रहे हैं । उस सनातन परमात्मा के विषय में हम लोग स्पष्ट रूप से नहीं जानते हैं ।

माहेश्वर तन्त्र (5/56,57) में शिव जी अपने मुखारविन्द से पार्वती से कहते हैं- इस अज्ञान के समुद्र में ब्रह्मा, आदि हम सब भी एक बुलबुले के आकार के समान हैं और उसी परब्रह्म की इच्छा रूपी वायु से बने रहते हैं । जिस प्रकार वायु के निकल जाने पर वे बुलबुले पानी के रूप में विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार हम लोगों के साथ ही यह ब्रह्माण्ड भी लीन हो जायेगा ।
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प्रणाम जी

Wednesday, April 13, 2016


सुप्रभात जी
भज गोविन्दम’ स्तोत्र 1,2,3,4

हे भटके हुए जीव, सदैव परमात्मा का ध्यान कर क्योंकि तेरी अंतिम सांस के वक्त तेरा यह सांसारिक ज्ञान तेरे काम नहीं आएगा। सब नष्ट हो जाएगा।

हम हमेशा मोह माया के बंधनों में फसें रहते हैं और इसी कारण हमें सच्चे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। हम हमेशा ज्यादा से ज्यादा पाने की कोशिश करते रहते हैं। सुखी जीवन बिताने के लिए हमें संतुष्ट रहना सीखना होगा। हमें जो भी मिलता है उसे हमें खुशी खुशी स्वीकार करना चाहिए क्योंकि जो मिल रहा है वो तुम्हारे कर्मों के अनुसार है..हम जैसे कर्म करते हैं, हमें वैसे ही फल की प्राप्ति होती है।

हम स्त्री की सुन्दरता से मोहित होकर उसे पाने की निरंतर कोशिश करते हैं। परन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह सुन्दर शरीर सिर्फ हाड़ मांस का टुकड़ा है।

हमारा जीवन क्षण-भंगुर है। यह उस पानी की बूँद की तरह है जो कमल की पंखुड़ियों से गिर कर समुद्र के विशाल जल स्त्रोत में अपना अस्तित्व खो देती है। हमारे चारों ओर प्राणी तरह तरह की कुंठाओं एवं कष्ट से पीड़ित हैं। ऐसे जीवन में कैसी सुन्दरता...

हे भटके हुए जीव, सदैव उससर्वसुन्दर परमात्मा का ध्यान कर...कयोंकि उससे अधिक आनंद ओर उससे अधिक सौन्द्रय ओर किसी भी वस्तु में नही है...ये चाहे आज जान ले या करोड़ो जन्म और लगा दे पर सत्य यही है ..
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प्रणाम जी

सुरत दाएं बाएं भान, सिर आगूं धरिया आन |
खड़ा रहे दोऊ हाथ पकर, सो सके हजूर बातां कर ||
(8:12 कयामतनाम बडा)
परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग है की अपना ध्यान व्यर्थ की सभी बातों से हटा कर केवल एक परमात्मा को स्मर्पित हो जाना चाहिए अर्थात केवल एक परमात्मा के आलावा कहीं भी और किसि भी विषय में लिप्तता नही होनी चाहिए.. इसी विषय पर मुझे एक महात्मा का ध्यान आता है वो हिमालय में विचरण करते थे और वो किसी से भी बात  नही करते थे वो किसि के प्रणाम का जवाब नही देते थे केवल परमात्मा में मग्न रहते थे कोई बार बार प्रणाम करे तो केवल मुस्कुरा कर एक ही बात कहते थे की ‘’केवल परमात्मा सतसत बाकि सब गपशप’’ अर्थात परमात्मा के आलावा सब गपशप है जिसका कोई अर्थ नही है, इसलिए हमें केवल एक परमात्मा में ध्यान लगाना चाहिए ..
और परमात्मा पराप्ति के लिय केवल एक परमात्मा को समर्पित होजाना चाहिए अर्थात केवल एक शुद्ध सत्ये परमात्मा को धारण करना , और उनके शुद्ध अदुेत ज्ञान से उत्पन्न प्रेम और शुद्ध अचल इमान रूपी दोनों हाथो को सदा पकड़ कर रखना चाहिए इस कारण हम सदा उनके सनिध्ये में रहेंगे और और उनसे बातें करने का प्रत्येक्ष अनुभव होगा और सदा परमात्मा से घुलमिल कर रहेंगे ....यही परमात्मा प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग है..

प्रणाम जी

Tuesday, April 12, 2016


उठो मोमिनो कयामत आई ...
और तिन दिन होसी अँधा धुंध, दुआर तोबा के होसी बंध |
कह्या होसी और रसेब, तब कोई किसी का नाहीं खेस ||

हे साधुजनों हदीस आदि धर्मग्रंथो की भाविष्येवाणी के अनुसार क़यामत के समय के अर्थ का विवरण किया है |कयामत से हम जो अर्थ लगते है कयामत का अर्थ वो नही है हमारे अनुसार कयामत कोई प्रलय है या संसार का आखिर का समय है पर कयामत का यह अर्थ नही है , कयामत का अर्थ संसार की अंतिम अवस्था नही है अपितु हमारी अध्यात्म की अंतिम अवस्था है अर्थात पुर्ण जागर्त ग्यान या निजबुद्ध का आभास .इसे कयामत इसलिए कहा गया है क्यूंकि इस से पहले अध्यात्म की इस अवस्था तक कोई नही पहुँच पाया था और ये अवस्था सबपे एक साथ नही आयेगी अर्थात कयामत किसी एक दिन नही होगी ये अवस्था सबपे उनकी करनी माफक कृपा के अनुसार आती जाएगी ,कयामत आई रे का अर्थ है की अब वो अवस्था आनी शुरू हो गयी है अर्थात कयामत का जो समय कुरान आदी ग्रन्थोमें बताया है वह आ चुका है..,

इस अवस्था के अनुसार--कयामत में चारो और अन्धाधुन्दी अर्थात हाय तोबा मच जाएगी क्योंकि जिसपे कयामत (पुर्ण जाग्रत या निजबुद्ध का ग्यान ) आयेगी वह धर्मं समझे जाने वाले सभी रुडिवादी धारणाओं को त्याग देगा जिस कारण धर्म के ठेकेदारों में वह पतित हो जायेगा और वो हाय तोबा मचाएंगे ..

प्रायश्चित के दुार बंध हो जायेंगे अर्थात उसके लिए कर्मकाण्ड में मूर्तियों के सामने मत्था रगड कर माफ़ी मांगने का कोई महत्त्व नही रहेगा ..उसकी और दुसरो की रीती आदि में अंतर आ जायेगा क्योंकि वो जड़ पूजा और झूठे रीती रिवाजो का पूर्णतः त्याग देगा जिसको लोग चाह कर भी नही त्याग पाएंगे ..

उस समय कोई किसी का मित्र नही रहेगा अर्थात उसके लिए किसी के प्रति मोह व लोभ का भाव समाप्त हो जायेगा उसका सबसे मोह भंग हो जायेगा..ये है कयामत अर्थात अध्यात्म की अंतिम अवस्ता का प्रभाव इसलिय जो लोग बाहर से किसी कयामत के आने की प्रतिक्षा कर रहें हैं वो भली भांती जान लें कि कयामत आचुकी है ...

प्रणाम जी

Sunday, April 10, 2016


प्रश्न-- संसकार कया है ? इनसे निवर्त्ती या छुटकारा कैसे हो???

 संस्कारों के प्रवाह में प्रवाहित होकर अपने निजस्वरूप को नहीं समझ पा रहे हो । इसीलिए तुम्हारी इच्छाओं में अनौचित्य बढ़ता चला जा रहा है । इन इच्छाओं का सुधार आवश्यक है । इच्छाओं के परिष्कार से प्रेरित क्रिया ही हमेंमार्ग पर आगे ले जा सकती है । इच्छाओं के विकार का कारण है हमारा संस्कार । अब हम एक सूक्ष्म बात आपको बतलाते हैं ।
संस्कार और वासनाओं का आपस में कार्य कारण सम्बन्ध है । जिस प्रकार बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज । जब हम किसी पदार्थ को देखते हैं तो उसका संस्कार पड़ता है , वह संस्कार वासना रूप बन जाता है । समझ आने पर पुनः संस्कार रूप से जागृत होकर वासना बनकर हमें प्रवृत्त कराता है। इस प्रकार वासना और संस्कार का चक्कर चल रहा है । इसको हम कहां और किस प्रकार काटें ?
कहते हैं कि सबसे पहले मनुष्य को शरीर मिलता है । क्यों मिलता है ? प्राचीन कर्मोँ का फल भोग करने के लिये। प्राचीनकाल में हमारे अन्दर ऐसे संस्कार और वासनायें सन्निहित थीं जो अपूर्ण रहीं और हम उन्हें भोग नहीं सके । उनके भोगने के लिये हमको – आपको शरीर मिला । अब पुनः शरीर मिलने से हमारे सामने प्रिय और अप्रिय पदार्थ आ जाते हैं । प्रिय के प्रति राग हो जाता है और अप्रिय के प्रति द्वेष । इससे हमारे अन्दर फिर नई कामनायें पैदा होने लगती है । इस प्रकार शरीर से कामना , कामना से शरीर ; संस्कार से वासना , वासना से संस्कार इस बीज और वृक्ष के प्रवाह में हम फँस गये हैं । इसको हम कैसे काटेंगे ?
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इसको हम इच्छाशक्ति से काट सकते हैं । अगर हम इच्छा का परिष्कार कर लेते हैं तो वासना के प्रवृत्त कराने की चेष्टा होने पर भी हम प्रवृत्त नहीं हो पायेंगे । अब सोचिये , हम इच्छा का परिष्कार कैसे कर सकते हैं । इच्छा पहले बिगड़ी संस्कारों के द्वारा । हमने जिन पदार्थोँ का अनुभव किया उनकी छाप हम पर पड़ी ; जिनका अनुभव किया वे गलत थे अतः गलत छाप पड़ने से हमारी इच्छा में गलती आई और हमारी प्रवृत्ति भी गलत होने लगी । अब इस चक्र को बदलना है। इच्छा का परिष्कार करना है । इच्छा तब शुद्ध होगी जब हम हमारे संस्कार शुद्ध होंगे । हमारे संस्कार कब शुद्ध होंगे ? जब हम ऐसे वातावरण के साथ सम्बन्धित होंगे जिसका हमारे ऊपर अच्छा प्रभाव पड़े । इसी को शास्त्रों में ” सत्संग ” कहा है । ” हितोपदेश ” में कहते हैं कि ”
संगः सर्वात्मना त्याज्यः सचेत्त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भि सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम् ” ।

अर्थात् यदि तुम सर्वथा संस्कार – रहित हो जाते हो तब तुम अपने मालिक बन जाते हो, तुम पूर्ण बन जाते हो । जब तक तुम्हारे अन्तःकरण में संस्कार हैं वे तुम्हारे ऊपर नियन्त्रण करते हैं , तुम्हारी प्रवृत्ति कराते हैं । इसलिये यदि तुम सर्वथा निस्संग बन जाओ , सारे संगो को छोड़ दो तो बड़ा अच्छा है । यदि तुम कहो कि हमारे इतने संस्कार हैं सबको कैसे छोड़ दें ? पाँच मिनट को भी ध्यान करने बैठते हैं तो संस्कार न जाने चित्त को कहां से कहां प्रवृत्त करा कर ले जाते हैं , अतः संस्कारों को इतनी जल्दी छोड़ना सम्भव नहीं है , तो हमारे अतिधन्य शास्त्रकार कहते हैं कि संस्कारों को एकत्रित कर दो । यदि तुम्हारे अन्दर सत्पुरुषों का संस्कार पड़ गया तो प्राचीन संस्कार हटते चले जायेंगे । तो उन संस्कारों को जिनको आत्मा-परमात्मा के एकत्व का बोध हो, जिसने परमतत्व को धारण किया हो, जो आडम्बर रहित केवल शुद्ध सत्य में विचरण करता हो और जो शुभ आशुभ,सही गलत आदी से पार पा चुका हो ऐसे सत्पुरुषों के साथ करने लगो जिस से तुम अच्छे व बुरे दोनो संसकारो से रहित होकर अपने मूल स्वरूप को पालगे। इसी का नाम ” सत्संग ” है ...for more satsang click on..
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प्रणाम जी

Saturday, April 9, 2016




बहुमूल्य मानव शरीर तब प्राप्त होता है जब जीव चौरासी लाख योनियां भटक लेता है, एसी भारतीय दर्शन की मान्यता है। इसलिए इस उपहार को जो मानव शरीर के रूप में उपलब्ध है संसार की नश्वर एवं तुच्छ वस्तुओं के
मोह में न गंवा कर अध्ययन, मनन और चितंन और ध्यान में सदुपयोग करें।

इस जीवन को क्षनिक कहा गया है। यहां तक कि 'न जाने इन स्वांस को फिर आवन होय न होय' जो श्वास हम लेते हैं, उसका भी विश्वास नहीं कि बाहर वापस आये या नहीं। इसलिए हमें अमूल्य अवसर मिला है कि इस शरीर को व्यर्थ में समय को सोकर व्यतीत न करें। इस देह से ही परमात्मा के अखंड आनंद को प्राप्त करें।
जन्म से ही हमारे सभी के शरीर  नाशवान हैं। ये सब देखते ही देखते मिट जाएंगे, इस पलभर के जीवनरूपी नाटक में ही उलझ कर न रह जायें। जीवन के एक एक क्षण को सत्य की खोज व उसके ध्यान में लगा दें। इसकी  उपयोगीता को समझ कर सुभ विचारों से भर दें.।
सिर दे देने पर भी अर्थात अपना सर्वस्व समर्पित कर लाखों करोडो मोहरें लुटा देने पर भी अमूल्य जीवन का एक क्षण लौटाया या बचाया नहीं जा सकता। ऐसे अमूल्य जीवन का एक भी पल अगर व्यर्थ  चला जाता है तो उसके बराबर संसार में कोई हानी नहीं।
इसलिय जल्दी से शरीर रहते प्रमात्मा को प्राप्त कर लेना चाहिए नही तो घोर विनाश है...for more, click on 👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼
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प्रणाम जी

Friday, April 8, 2016


सुप्रभात जी

जीव ने अपने अन्तःकरण में छिपी हुई अज्ञानता के अन्धकार के कारण आत्मा को अन्धा कर दिया। मायावी विषयों में अन्धी दौड़ लगाने वाली इन्द्रियों ने आत्मा को चारों ओर से घेर लिया।
आत्मा के अन्धा होने का भाव यह है कि सांसारिक विषय सुखों की इच्छा में पड़कर परमात्माके प्रेम से विमुख हो जाना। अन्तःकरण को कारण शरीर माना जाता है। उसमें छिपे हुए अज्ञान के कारण ही इन्द्रियां विषयों की ओर अंधी होकर भागती हैं । अन्तःकरण और इन्द्रियों के विषय जाल में फंसे होने के कारण जीव भी बन्धन में हो जाता है। इस प्रकार आत्मा भी जीव के ऊपर विराजमान होने के कारण बन्धन में मानी जाती है, जबकि वह अपने मूल स्वरूप में माया से सर्वथा परे है।

प्रणाम जी

भया निकाह आदम हवा, दुनी निकाह इबलीस |
ए जाहेर लिख्या फुरमन में, पूजे हवा अपनी खाहिस ||
तिन हवा हिरससे पैदा हुई, अपनी खाहिसें जे |
सो फ़ैल कर जुड़े पड़े, ए जो फिरें दुनियांके फिरके ||
पैदास बीच इबलीस कहया, ए जो आदम की नसल |
पूजे हवा को खुदा कर, दुनियां यह अकल ||

कुरान में लिखा हुआ है की आदम और हवा का निकाह हुआ है, अर्थात यह संसार या प्रक्रति आदम [चेतन] और हवा [जड़] के मेल से बनी है या जड़ और चेतन आपस में बन्धे हुये है , और दुनिया का निकाह इबलीस याने मन से हुआ है ..अर्थात सभी जीव मन से बंधे हुए है इसलिए ये सब अपने मन की सभी कामनाओ की पूर्ति के लिए हवा अर्थात जड़ माया की पूजा करते हैं.
ये जो जड़ प्रकृति से जुड़े जीव हैं शुद्ध आनंद को पाने की लालसा में अज्ञानता के कारण अपने मन की इच्छाओ को पूरा करने के लिए जड़ में ही आनंद ढूंडने लगते है इसलिए इनका आचरण दुैत के प्रभाव के कारण से अलग अलग हो गया है इस कारण इन्होने अपने आनंद की धारणाएं भी अलग अलग बना ली है .इसी लिए अनेक सम्प्रदायों का जन्म हुआ  ..
ये जो [आदम] चेतन के विकार से पैदा हुए जीव हैं ये  मन के बीच में मन से ही खेल रहे हैं इसलिए ये अपनी मनो कामना पूर्ण करने के लिए हवा अर्थात जड़ को ही खुदा कह कर पूजने लगे है जिस वजह से सबके खुदा अलग अलग हो गये हैं. इस प्रकार यहाँ के जीवों की बुद्धि की पहुँच का अनुमान लगाया जा सकता है ....
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प्रणाम जी

Saturday, April 2, 2016

हमारा धर्म कया है..


बहोत अजीब लगता है जब हम कहते हैं की "वो" धर्म विरोधी है या "ये" धर्म विरोधी है या किसी को धर्म विरोधी कहते हैं..ऐसा इसलिय है कि हम धर्म का सही अर्थ नही ग्रहण कर पायें हैं.. प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अलग-अलग परिभाषा करता है। मनु स्मृति में कहते है कि दस गुणों से मनुष्य धार्मिक होता हैं|
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ..पर ये भी नियम मात्र है या यूं कहें की घर्म के साधन हैं धर्म नही..
इसी प्रकार विद्वान लोग ग्रंथों से परिभाषा निकालकर लोगों को बताते हैं और सभी की परिभाषा में विरोधाभाषा की भरमार है।फिर सर्वमान्य व सच्चा धर्म कोन सा है..धर्म को समझने के लिय इसको थोडा मूल से समझने का प्रयास करना होगा ..आइये प्रयतन करते हैं...

किसी गांव में चार अन्धे रहते थे। एक बार उनके गांव में हाथी आया। उन्होंने पहले कभी हाथी देखा न था, इसलिये उन्हें भी उत्सुकता हुई कि चलों देखें यह हाथी क्या चीज है। महावत ने दयावश उन्हें हाथी को छूकर देखने की अनुमति दे दी। उन्होंने उस विशालकाय जीव को स्पर्श के द्वारा जानने की भरपूर कोशिश की, लेकिन नेत्रहीन होने के कारण वह उसके पूर्ण स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सके, बस एक-एक अंग के साथ ही चिपके रहे। बाद में वह सारे एकत्र हुये और अपने अनुभवों की चर्चा करने लगे।
एक ने कहा, ‘आज पता लगा कि हाथी एक बहुत बड़े खम्भे की तरह होता है’ क्योंकि वह हाथी के पैर के साथ चिपटा हुआ था। दूसरा तुरन्त बोला, ‘अरे मूर्ख! हाथी तो एक बड़े ढोल की तरह होता है’, इन महाशय को हाथी के पेट का संज्ञान था। तीसरा कहने लगा, ‘अरे! तुम लोग कहां सो रहे थे, हाथी तो एक बहुत बड़े सूप की तरह होता है’, यह सज्जन हाथी के कान से ही परिचित हुये थे। चौथा कहने लगा, ‘तुम सब तो सचमुच अन्धे हो, अरे हाथी तो एक लचकदार झाड़ू की तरह होता है’ क्योंकि यह जनाब हाथी की पूंछ से लटके हुये थे।
वस्तुत: धर्म भी एक ऐसे ही हाथी की तरह है और हम सब उन अन्धों की तरह, जिसकी पकड़ में जितना आया वह उससे ही चिपक कर बैठ गया। समस्यान तब अधिक बढ़ जाती है जब हम एक अंग को ही पूर्ण मान बैठते हैं और इतना ही नहीं दूसरे को गलत भी कहने लगते हैं। आज पूरे विश्व में यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को बड़ा और पूर्ण तथा साथ ही दूसरे के धर्म को अधूरा या गलत कहने में ही बड़प्पन का अनुभव करने लगा है। कारण एक ही है कि हम सब वास्तविक धर्म से अनभिज्ञ हैं।
वस्तुत: धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है, स्वभावत: धारण करना। अब तनिक विचार करें कि भला कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसको धारण कर सकता है।

अग्नि ही अग्नि को धारण कर सकती है, यदि हम लकड़ी को भी अग्नि में डाले तो वह अग्निरूप होकर ही अग्नि के द्वारा धारण की जा सकती है।अर्थात लकडी को अगर अग्नि धारण करनी हो तो उसे अग्नि के सव्भाव में आना ही होगा या यूं कहें की उसके अग्नि के सम्पर्क में आते ही अग्नि उसे अपने सवभाव में ला देती है..इसी परकार जीव के आत्म स्वभाव में आने पर ही वह आखंड मूक्ती को पाता है...और आत्मा अपने व परमात्मा के अदूैत स्वभाव को को जान कर ही दूैत की निंद्रा से जाग सकती है...
यह नियम है कि स्व-स्वरूप की ही धारणा सम्भव है तो भला हम सच्चिदानन्द परमात्मा से भिन्न और किसी वस्तु या चिन्ह आदि को पूर्णरूपेण कैसे धारण कर सकते हैं? क्योंकि सभी शास्त्र पुकार रहे हैं, ‘तत्त्वमसि’, ‘तू जोतस्वरूप है’। विभिन्न मत-मतान्तर अथवा मान्यताएं इस परम सत्य को पहचानने के साधन मात्र हैं। इसलिस इन मत मतान्तर मे मा उलझ कर अपने सत्य स्व-स्वरूप की ही धारणा करनी होगी यही लक्ष्य है यही हमारा **धर्म**है..इसके अलावा जो भी है वह केवल मत या साधन मात्र हैं ... यदि हम साधन को ही  साध्यी समझ लेंगे, रास्ते को ही मंजिल समझ लेंगे तो निश्चित ही दुखी होंगे। यही कारण है कि आज के युग में धर्म के नाम पर इतना अधिक प्रचार होने के बावजूद भी दु:ख कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपने को अलग अथवा विशेष सिद्ध करने के प्रयास में हम दूसरों से अलग होते जा रहे हैं, अधूरे होते जा रहे हैं।
धर्म की पालना तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक विधियों से की ही जा सकती है किन्तु फिर भी धर्म तो प्राणी मात्र के लिये एक ही है, वह है अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णरूपेण धारण करना। धर्म हमें परमात्मा से अर्थात् अपनी आत्मा से जोड़ने का साधन हैं न कि तोड़ने और परस्पिर झगड़ने का। धर्म पालन के लिये बाहर के चिन्हों और मान्यताओं से अधिक आवश्यक है अपने अन्दर परमात्मा की धारणा और उससे योग। अतः अती शिध्र अपने धर्म के मार्ग पर चलें...इसलिय कोई और धर्म विरोधी नही है अपीतु हम खुद हैं..जबतक हम स्व-स्वरूप की ही धारणा और  स्व-स्वरूप के एक मात्र विषय परमात्मा धारण नही कर लेते हम घोर धर्म विरोधी है और धर्म विरोधी होने के कारण हमारे जीव का अंतःकरण दूषित है जिस वजह से हम दूसरो से कलह करते है...
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प्रणाम जी