Wednesday, April 20, 2016

जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।

यह संसार जड है इसमें कोइ रस नही है(असतित्व हीन है लय होने वाला होने के कारण)इसलिय हम जो भी रस ग्रहण करते है वह हमारे अन्दर का ही होता है..फिर भी जहाँ (इस नाशवान संसारमें) कुछ भी नहीं है वहाँ परमात्मा हैं, ऐसा कहा जाता है. वस्तुतः संसारमें परमात्मा 'है' कहना अथवा 'नहीं है' कहना ये दोनों वचन मोहके हैं (क्योंकि जब संसार ही अस्तित्व हीन है तो उसको लेकर विवाद ही क्यों ?) इसलिए मैंने अपने अन्तर हृदयमें ही इसका विस्तार किया है और बाहर कहनेके लिए मैं मौन रह जाता हूँ इसलिय आत्माओं को अन्दर ही इस परमात्मा के ग्यानबोधका विस्तार करना चाहिय और बाहर जहां कहने का लाभ ना हो वहां  मौन ही रहना चाहिय ..

प्रणाम जी

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