Wednesday, April 27, 2016

प्रेम अंदर ऐसी भई, नींद माहें की उड़ कहूं गई।
गुन अंग इंद्री पख, पिया प्रेमें हुए सब लख।।

संसार के सभी प्राणी तीनों गुणों (सत्व, रज और तम), अन्तःकरण (मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार), इन्द्रियों, एवं पक्षों (प्रवृति एवं निवृति) के बन्धन में फंसे रहते हैं। परमात्मा का प्रेम आ जाने से इनके ऊपर पूर्णतया नियन्त्रण हो जाता है अर्थात् माया के बन्धनों में फंसाने वाली इनकी शक्तियों की वास्तविक पहचान हो जाती है। इस अवस्था में आत्मा का हृदय सत्व, रज और तम से रहित त्रिगुणातीत मार्ग पर चलने लगता है। जीव के भी मन, चित्त, बुद्धि एवं अहंकार में मात्र प्रेम ही प्रेम बसा होता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियों- मनन्, चिन्तन, विवेचना एवं अहम् में प्रेम एवं परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं होता है। इन्द्रियां पूर्णतया निर्विकार हो जाती हैं। उसका हृदय भी राग एवं वैराग्य से परे परमात्मा के विशुद्ध प्रेम में डूब जाता है।

प्रणाम जी

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