Saturday, April 2, 2016

हमारा धर्म कया है..


बहोत अजीब लगता है जब हम कहते हैं की "वो" धर्म विरोधी है या "ये" धर्म विरोधी है या किसी को धर्म विरोधी कहते हैं..ऐसा इसलिय है कि हम धर्म का सही अर्थ नही ग्रहण कर पायें हैं.. प्रत्येक व्यक्ति धर्म की अलग-अलग परिभाषा करता है। मनु स्मृति में कहते है कि दस गुणों से मनुष्य धार्मिक होता हैं|
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ..पर ये भी नियम मात्र है या यूं कहें की घर्म के साधन हैं धर्म नही..
इसी प्रकार विद्वान लोग ग्रंथों से परिभाषा निकालकर लोगों को बताते हैं और सभी की परिभाषा में विरोधाभाषा की भरमार है।फिर सर्वमान्य व सच्चा धर्म कोन सा है..धर्म को समझने के लिय इसको थोडा मूल से समझने का प्रयास करना होगा ..आइये प्रयतन करते हैं...

किसी गांव में चार अन्धे रहते थे। एक बार उनके गांव में हाथी आया। उन्होंने पहले कभी हाथी देखा न था, इसलिये उन्हें भी उत्सुकता हुई कि चलों देखें यह हाथी क्या चीज है। महावत ने दयावश उन्हें हाथी को छूकर देखने की अनुमति दे दी। उन्होंने उस विशालकाय जीव को स्पर्श के द्वारा जानने की भरपूर कोशिश की, लेकिन नेत्रहीन होने के कारण वह उसके पूर्ण स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सके, बस एक-एक अंग के साथ ही चिपके रहे। बाद में वह सारे एकत्र हुये और अपने अनुभवों की चर्चा करने लगे।
एक ने कहा, ‘आज पता लगा कि हाथी एक बहुत बड़े खम्भे की तरह होता है’ क्योंकि वह हाथी के पैर के साथ चिपटा हुआ था। दूसरा तुरन्त बोला, ‘अरे मूर्ख! हाथी तो एक बड़े ढोल की तरह होता है’, इन महाशय को हाथी के पेट का संज्ञान था। तीसरा कहने लगा, ‘अरे! तुम लोग कहां सो रहे थे, हाथी तो एक बहुत बड़े सूप की तरह होता है’, यह सज्जन हाथी के कान से ही परिचित हुये थे। चौथा कहने लगा, ‘तुम सब तो सचमुच अन्धे हो, अरे हाथी तो एक लचकदार झाड़ू की तरह होता है’ क्योंकि यह जनाब हाथी की पूंछ से लटके हुये थे।
वस्तुत: धर्म भी एक ऐसे ही हाथी की तरह है और हम सब उन अन्धों की तरह, जिसकी पकड़ में जितना आया वह उससे ही चिपक कर बैठ गया। समस्यान तब अधिक बढ़ जाती है जब हम एक अंग को ही पूर्ण मान बैठते हैं और इतना ही नहीं दूसरे को गलत भी कहने लगते हैं। आज पूरे विश्व में यही तो हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म को बड़ा और पूर्ण तथा साथ ही दूसरे के धर्म को अधूरा या गलत कहने में ही बड़प्पन का अनुभव करने लगा है। कारण एक ही है कि हम सब वास्तविक धर्म से अनभिज्ञ हैं।
वस्तुत: धर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘धृ’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है, स्वभावत: धारण करना। अब तनिक विचार करें कि भला कोई भी व्यक्ति या वस्तु किसको धारण कर सकता है।

अग्नि ही अग्नि को धारण कर सकती है, यदि हम लकड़ी को भी अग्नि में डाले तो वह अग्निरूप होकर ही अग्नि के द्वारा धारण की जा सकती है।अर्थात लकडी को अगर अग्नि धारण करनी हो तो उसे अग्नि के सव्भाव में आना ही होगा या यूं कहें की उसके अग्नि के सम्पर्क में आते ही अग्नि उसे अपने सवभाव में ला देती है..इसी परकार जीव के आत्म स्वभाव में आने पर ही वह आखंड मूक्ती को पाता है...और आत्मा अपने व परमात्मा के अदूैत स्वभाव को को जान कर ही दूैत की निंद्रा से जाग सकती है...
यह नियम है कि स्व-स्वरूप की ही धारणा सम्भव है तो भला हम सच्चिदानन्द परमात्मा से भिन्न और किसी वस्तु या चिन्ह आदि को पूर्णरूपेण कैसे धारण कर सकते हैं? क्योंकि सभी शास्त्र पुकार रहे हैं, ‘तत्त्वमसि’, ‘तू जोतस्वरूप है’। विभिन्न मत-मतान्तर अथवा मान्यताएं इस परम सत्य को पहचानने के साधन मात्र हैं। इसलिस इन मत मतान्तर मे मा उलझ कर अपने सत्य स्व-स्वरूप की ही धारणा करनी होगी यही लक्ष्य है यही हमारा **धर्म**है..इसके अलावा जो भी है वह केवल मत या साधन मात्र हैं ... यदि हम साधन को ही  साध्यी समझ लेंगे, रास्ते को ही मंजिल समझ लेंगे तो निश्चित ही दुखी होंगे। यही कारण है कि आज के युग में धर्म के नाम पर इतना अधिक प्रचार होने के बावजूद भी दु:ख कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। अपने को अलग अथवा विशेष सिद्ध करने के प्रयास में हम दूसरों से अलग होते जा रहे हैं, अधूरे होते जा रहे हैं।
धर्म की पालना तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार पृथक-पृथक विधियों से की ही जा सकती है किन्तु फिर भी धर्म तो प्राणी मात्र के लिये एक ही है, वह है अपने सच्चिदानन्द स्वरूप को पूर्णरूपेण धारण करना। धर्म हमें परमात्मा से अर्थात् अपनी आत्मा से जोड़ने का साधन हैं न कि तोड़ने और परस्पिर झगड़ने का। धर्म पालन के लिये बाहर के चिन्हों और मान्यताओं से अधिक आवश्यक है अपने अन्दर परमात्मा की धारणा और उससे योग। अतः अती शिध्र अपने धर्म के मार्ग पर चलें...इसलिय कोई और धर्म विरोधी नही है अपीतु हम खुद हैं..जबतक हम स्व-स्वरूप की ही धारणा और  स्व-स्वरूप के एक मात्र विषय परमात्मा धारण नही कर लेते हम घोर धर्म विरोधी है और धर्म विरोधी होने के कारण हमारे जीव का अंतःकरण दूषित है जिस वजह से हम दूसरो से कलह करते है...
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment