Wednesday, May 30, 2018

थोड़ा थोड़ा प्रेम ???

क्या मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पा सकता हूं ???

क्या तुम रोज छोटे छोटे पानी के गढढे बना कर समुन्द्र का निर्माण कर पाओगे ? तुम प्रेम का अर्थ ही भी समझे हो। प्रेम खुद ही परमात्मा है। प्रेम अथाह है । अथाह को छोटे छोटे टुकड़ों में कैसे बांट सकते हो। हम गलती ये कर रहे हैं कि हमें जो बौद्ध होना है उसको अपने अनुसार बना लेते हैं। अर्थात हम प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पाना चाहते हैं, जबकी परमात्मा स्वयं प्रेम ही है, तो तुम जिसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हो वो प्रेम नहीं है, ये मोह है, एक गुण है, ये वही वस्तु है जो तुम संसार मे सबसे करते हो, ये भी तुम इतना नहीं कर पाओगे जितना तुम संसार में करते हो। फिर क्यों खुदको धोखा दे रहे हो।

जिस दिन प्रेम का बोध होगा उस दिन कुछ पाना नहीं रह जायेगा। ध्यान रहे प्रेम को ही पाना है, प्रेम से पाने जैसे कुछ नहीं है। प्रेम क्या है? इस विषय पर हमारी पहले एक पोस्ट आ चुकी है वो आप satsangwithparveen.bolgspot.com पर जाकर पढ़ सकते हैं। या fb पर www.facebook.com/kevalshudhsatye

Tuesday, May 29, 2018

धीरे धीरे कर लेंगे???

सत्य की ओर जीवन क्रांति अत्यंत द्रुत गति से करनी होती है- कभी भी ये ना सोचो की हम सब परिवर्तन धीरे धीरे कर लेंगे, जो भी करना चाहते हो वो आज ही अभी कर दो फिर- विद्युत की चमक की भांति ही जीवन बदल जाता है।
कुछ लोग एक व्यक्ति को साधू के पास लाए थे। उन्हें कोई दुर्गुण पकड़ गया था। उसके प्रियजन चाहते थे कि वे उसे छोड़ दें। उस दुर्गुण के कारण उनका पूरा जीवन ही नष्ट हुआ जा रहा था। साधू ने उनसे पूछा कि क्या विचार है? वे बोले, ''मैं धीरे-धीरे उसका त्याग कर दूंगा।'' यह सुन साधू हंसने लगा था और उनसे कहा था, ''धीरे-धीरे त्याग का कोई अर्थ नहीं होता है। कोई मनुष्य आग में गिर पड़ा हो, तो क्या वह उससे धीरे-धीरे निकलेगा? और, यदि वह कहे कि मैं धीरे-धीरे निकलने का प्रयास करूंगा, तो इसका क्या अर्थ होगा? क्या इसका स्पष्ट अर्थ नहीं होगा कि उसे स्वयं आग नहीं दिखाई पड़ रही है?''

 परमहंस रामकृष्ण की सत्संगति से एक धनाढ्य युवक बहुत प्रभावित था। वह एक दिन परमहंस देव के पास एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेंट करने लाया। रामकृष्ण ने उससे कहा, ''इस कचरे को गंगा को भेंट कर आओ।'' अब वह क्या करे? उसे जाकर वे मुद्राएं गंगा को भेंट करनी पड़ीं। लेकिन वह बहुत देर से वापस लौटा , क्योंकि उसने एक-एक मुद्रा गिनकर गंगा में फेंकी! एक-दो- तीन- हजार - स्वभावत: बहुत देर उसे लगी। उसकी यह दशा सुनकर रामकृष्ण ने उससे कहा था, ''जिस जगह तू एक कदम उठाकर पहुंच सकता था, वहां पहुंचने के लिये तूने व्यर्थ ही हजार कदम उटाये।''

सत्य को जानने की ललक में अगर तुम आगे बढ़ना चाहते हो तो किसी भी बात का त्याग धीरे-धीरे नहीं करना होता है। अगर धीरे है तो तुममें ललक नहीं है । जो भी करना ह एक झ्टके में करदो, धीरे धीरे का कोई अर्थ नहीं है।

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Monday, May 28, 2018

मृत्यु के बाद साधना

प्रश्न- अगर मेरी मृत्यु हो गई तो कया मेरी भक्ती या साधना का अगले जन्म में कया होगा..??

उत्तर- अगर इसका उत्तर जान लिया तो सफर यहीं समाप्त हो जायगा कयोंकी इसके उत्तर में पूरी गहनता छिपी हुई है.

चलिय जान्ने का प्रयास करते हैं...

पहले तो ये जान लो की जो भक्ती या सत्य का मार्ग है वो कोन कर रहा है अर्थात इस मार्ग का मुसाफिर कौन है.. कयोंकी अगले जन्म मे भक्ती के सफर की बात कर रहे हो तो मुसाफिर कौन है ये भी तो पता होना चाहिये..
1. कया ये शरीर भक्ती कर रहा है, नही ये जड़ है ये कैसे भक्ती कर सकता है..

2. तो कया मन भक्ती कर रहा है, नही ये मन है ही नही ये जो मन जैसा लग रहा है ये आपसे उत्पन्न स्थिती है जो निरंतर बदलती है इसलिय इसके भक्ती करने का ते सवाल ही नही होता. बुद्धि और अहंकार भी इसी श्रेणी में आते है इसलिय वो भी नही..
तो कौन???
अब रहा केवल चेतना या चेतन, जिसकी मृत्यु नही हो सकती..( ये कौन है ये अलग विषय है तो अभी मोटे तौर पर अपने को चेतन ही मानो)

तो अब उत्तर शपष्ट है की जिसे तुम मृत्यु कह रहे हो वो उसकी होती है जो भक्ती कर ही नही सकता, और जो भक्ती कर रहा है उसकी मृत्यु होती नही है वो निरंतर अपनी साधना करता है,पुर्ण होने तक निरंतर केवल शरीर बदल सकते है चेतना वही रहती है, जो भक्ती कर रही होती है.. तुम्हारी मृत्यु ही नही होनी, तो जिसकी मृत्यु होनी है तुम वो अपने को मान बैठे हो इसलिय ये सवाल कर रहे हो..
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Sunday, May 27, 2018

बैरागी

*मेरे मन में कई बार ये धारणा आती है की मै बैरागी होकर जंगल, पहाड़, वृन्दावन, या गंगा तट पर जाकर रहूं ओर निर्विघ्न अपनी साधना करूं, क्या इस मार्ग से कल्याण सम्भव है?*

तुम जहां भी रहोगे, जो भी बनके रहोगे तो ये होनापन तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा, सही मार्ग में कोई विघ्न नहीं होता, ओर जिसमें तुम्हें विघ्न नज़र आता है वो मार्ग सही नहीं है। तुम्हे अपने ओर साधना में को विघ्न नज़र आता है वो केवल इसलिए है कि तुम हो ओर साधना है। ओर जहां भी जाओगे तुम रहोगे ओर वहां का वातावरण रहेगा, तो वहां भी नई परिस्थितियां मिलेंगी, ओर अगर तुम रहोगे तो निश्चित है की विचलित भी रहोगे, फिर क्या फ़र्क है यहां में ओर वहां में। समस्या का मुख्य कारण परिस्थितियां या वातावरण नहीं है, मुख्य कारण है तुम्हारा होना या अहम। जहां भी जाओगे या तो बैरागी रहोगे या संत या गुरु या चेला या भगत या दास या तुच्छ या महान, पर रहोगे जरूर कुछ ना कुछ। बस यही मूल बंधन है, जिसको खोलने तुम जाओगे अज्ञानवश ओर बन्धन बना लोगे।
मूल तत्व है आत्मतत्व बोध जिसके बाद ये ग्रहस्त, बैरागी, संत आदि सब तो रहेगा पर वो तुम नहीं रहोगे।

शास्त्रों के अनुसार...
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो  केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...
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प्रणाम जी

Friday, May 25, 2018

फल कोन भोगता है

*पाप और पुण्य इस शरीर में कोन करता है और उसका फल कोन भोगता है ?*

*कर्ता कोन है*
शरीर कर्ता है? प्राण कर्ता है? इन्द्रियाँ कर्ता हैं?मन कर्ता है? बुध्दि कर्ता है? अहंकार कर्ता है? स्वयं कर्ता है?

*नहीं*

शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते; (क्योंकि) ये तो जड़ हैं; ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)|

तो स्वयं कर्ता है ?

*नहीं*

क्योकि स्वयं निर्विकार है,विकार है ही नहीं ,तो कर्ता कैसै बनेगा? भोक्ता कैसे बनेगा?(अर्थात् स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं है)

तो वास्वमें कर्ता-भोक्ता न जड़ है, न चेतन है|

तो जड़-चेतनकी ग्रंथि है,यह भोक्ता है?

*नहीं*

(क्योंकि)
जड़-चेतनकी ग्रंथि(गाँठ) होती ही नहीं ;अमावस्याकी रातका और दिनका गठबन्धन हो जायेगा?  तो कैसे भोक्ता होगी ?

कर्ता और भोक्ता अन्तःकरण है क्या ? ये तो करण(औजार) है,कर्ता नहीं है ।

तो भोक्ता कौन है ?
*'पुरुषः प्रकृतिस्थ: आप शरीरमें स्थित मानते हो*
तो आप ही कर्ता-भोक्ता हो |*

जब मन बुध्दि शरीर इन्द्रियाँ कर्ता नहीं है तो आप कर्ता हो क्या?
अगर आप कर्ता होगे
तो आपकी मुक्ति कभी नहीं होगी, सम्भव ही नहीं होगी;क्योंकि 'नाभावो विद्यते सतः'(गीता २/१६) सतका अभाव होता नहीं और आप कर्ता हो तो कर्तापन कभी मिटेगा ही नहीं; तो आप
कर्ता नहीं हो |

तो कर्ता कौन है? अब ध्यान देना !
कर्ता है भोक्ता(प्रकृतिस्थ स्वयं)|

जो भोक्ता है वो कर्ता होता है क्योंकि सुख-भोगके लिये काम करता है -'अथ केन प्रयुक्तो$यं पापं चरति'? तो 'काम एषः क्रोध एषः'(गीता३/३६,३७) कामके वशीभूत होकर पाप करता है तो 'काम'है- 'भोग' ;सुख- अनुकूल मिले-वो 'भोग'हुआ,तो कर्ता कौन हुआ? भोक्ता हुआ कर्ता; कर्ता और भोक्ता एक (ही) है-'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्|' शुभ और अशुभ कर्म करोगे तो जरूर भोगना पड़ेगा तो भोक्ता होता है, वो कर्ता होता है और भोक्ता इन्द्रियाँ मन बुध्दि नहीं है,भोक्ता स्वयं *बनते* हो आप |

(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)

*'पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुः'(गीता १३/२०),भोक्ता नहीं बताती है,भोक्तापनमें हेतु होता है पुरुष (यह बताती है)|*

कौन पुरुष होता है? (कि)'पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते'(गीता१३/२१) प्रकृतिमें स्थित होता है तो पुरुष भोक्ता बनता है,वो भोक्ता खुद बनता है,कब? कि 'प्रकृतिस्थ' और 'प्रकृतिस्थ' नहीं रहता है तो ? 'सम दुःखसुखः स्वस्थ'(गीता १४/२४) 'स्व'में भोग नहीं है| स्वयं जो आपका सत्तारूप है वो भोक्ता थोड़े ही है!

ख्याल करना ! यह ठीक ठीक - असली ज्ञान है यह असली, आपका स्वरूप सत्ता है,होनापन है न ! -यह आपका स्वरूप है ;होनेपनमें सुखदुःख नहीं होता है ,न सुख होता है,न दुःख होता है,सत्ता है |तो प्रकृतिस्थ होते हो तब भोक्ता बनते हो …||

तो 'है' (सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है  और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ; तो अब क्या करो आप ?

एक कृपा करके येह काम करो-
आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो भोक्ता रहेगा ही नहीं …

'नहीं'से और 'है' से भी अपनेको हटालो।

…अपनेको,'नहीं'से भी और 'है' से भी(हटालो),…'यह'से भी हटालो और 'है' से भी हटालो; क्योंकि 'है' में 'व्यक्तित्व' नहीं होता और 'वह' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो।

तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…

'नित्ययोग' क्या?
कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।

…'है'से और 'यह'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) 'ज्ञानयोग'-'ज्ञान',तो 'ज्ञानयोग' रहा,'ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।

अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम'  'ज्ञान'(और 'योग') रहा।

इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।

तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…

अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा।

तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादे।

ऐसा हो जायेगा,तो 'भेद' मिट जायगा, 'भिन्नता' भी मिट जायगी और 'कल्याण' भी हो जायेगा, 'मुक्ति' हो जायेगी, 'तत्त्वमें स्थिति' हो जायेगी।ये 'पूर्णता' हो जायेगी।

ऐसी 'पूर्णता' होनेपर भी,फिर भी 'एकता' नहीं हुई।फिर भी 'भेद' रहा। कहते (हैं कि) 'भेद' फिर क्या रहा? …

(फिर रहा 'सूक्ष्म अहंकार',जिससे 'मतभेद' पैदा होते हैं।
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Thursday, May 24, 2018

बन्धन का कारण कया है

*बन्धन का कारण कया है??*

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है।
अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कुर्ता कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। पर इनमें से बंधन का जो महा कारण है वह है महाकारण शरीर ये है  महाअग्यान इसके भी पीछे छिपी है सब बंधनो की जड़ .. परमात्मा का आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है, वह है महा कारण , और जिसको ये वियोग अनुभव होता है वह है सब बन्धनो की जड़ ... और यह है *शुक्षम अहम* *इसको पालिया तो समझो आधा काम हो गया*.. कयोंकी इसको पाकर ही इसे समाप्त किया जा सकेगा..
*मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।*

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा*
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प्रणाम जी

Wednesday, May 23, 2018

दुःखी क्यों

*आप दुःखी क्यों है?*
तनिक स्वस्थता से विचारिये कि आप दुःखी क्यों हैं ? आपके पास धन नहीं है ? आपकी बुद्धि तीक्ष्ण नहीं है ? आपके पास व्यवहारकुशलता नहीं है ? आप रोगी हैं ? आपमें बल नहीं है ? अथवा आपमें सांसारिक ज्ञान नहीं है ? बहुतों के पास यह सब है :धनवान हैं, बलवान हैं, व्यवहारकुशल हैं, बुद्धिमान हैं, जगत का ज्ञान भी जीभ के सिरे पर है, तथापि वे दुःखी हैं । दुःखी इसलिए नहीं हैं कि उनके पास इन सब वस्तुओं अथवा वस्तुओं के ज्ञान का अभाव है । परन्तु दुःखी इसलिए हैं कि संसार का सब कुछ जानते हुए भी अपने आपको नहीं जानते । अपने आपको जान लें तो सर्व शोकों से पार हो जायें, जन्म-मरण से पार हो जायें । ... और अपने आपको न जानें तो शेष सब जाना हुआ धूल हो जाता है, क्योंकि शरीर की मृत्यु के साथ ही समस्त यहीं रह जाता है ।
    मिथ्या में सत्य को जान लेना, नश्वर में शाश्वत को खोज लेना, आत्मा को पहचान लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक धारण कर अपने आपको आध्यात्मिक मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये । अन्यथा कितने ही गद्दी-तकियों पर बैठिए, टेबल-कुर्सियों पर बैठिए, एयरकंडीशन्ड कार्यालयों में बैठकर आदेश चलाइये अथवा जनता के सम्मुख ऊँचे मंच पर बैठकर अपनी नश्वर देह और नाम की जयजयकार करवा लीजिए परंतु अंत में कुछ भी हाथ न लगेगा ।
आप जहाँ के तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहेगा । जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, परिश्रम करके पाये हुए पद-प्रतिष्ठा, लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर निर्दयतापूर्वक साथ छोड़ देगा । आप खाली हाथ रोते रहेंगे, बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहेंगे । इसीलिए केनोपनिषद के ऋषि कहते हैं :

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)

प्रणाम जी

Tuesday, May 22, 2018

सार

*सार*

सुप्रभात जी
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तुम्हारा याहां किसी से भी संयोग नहीं है, तुम आत्मा हो शुद्ध आनंद स्वरूप व चेतन जबकी यह संसार जड व दुख के घर की मान्यता मात्र है ,इसलिय तुम्हारा इस से संयोग कैसे हो सकता है.. ये तो मात्र तुम्हारे जीव की मान्यता से यह संसार तुम्हे भाषित हो रहा है. जिस दिन तुम अपनी मान्यता संसार से हटा लोगे उसी दिन तुम्हारा बनाया हुआ संसार लय हो जायगा ... ध्यान दो तुम शुद्ध हो, और ये संसार है ही नही, तुम हो, सदा से हो, पर ये संसार परपंच है ही नही, सदा से नही, इसलिय तुम हो और ये नही है, तो "है" और "नहि" का कया मेल अर्थात कोई मेल नही है .. तुम "हो" इसलिय तुमने अपनी मान्यता से इस "नही" को भी "है" बना रखा है..कयोंकि "है" कि मान्यता में "नही" भी "है" जैसा लगता है पर वास्तव मे ये है ही नही केवल तुमहारी मान्यता मात्र है बस..*इसलिय जब तुम्हारा और संसार का मेल ही नही है तो तुम क्या त्यागना चाहते हो,* जो तुम्हारा है (परमात्मा) वो तो सदा से तुमहारा है और सदा रहेगा तो उसमें पाना कया है, जो तुमसे अलग नही है उसे पाने के लिय मूढंता में रोते हो ओर कहते हो ये प्रेम है, *और जो तुम्हारा है हि नही (संसार) तो उसमे त्यागना कया.* उसे तुम मुर्खता में त्यागना चाहते हो.. अरे मान्यता का बनाया संसार है तो अपनी मान्ता इस से हटालो, तुम्हारा संसार खत्म.. इसलिय इस (अवास्तविक) मेल को समाप्त कर के "है" से "है" को मिलाकर पहले जैसा "है" करदो अर्थात ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥
यहि सार है ..
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प्रणाम जी

Sunday, May 20, 2018

वैर्थ

किसमें कितनी शक्तियां थी.. कोन कम था कौन ज्यादा..ये सब बातें तोते की तरह रटने से कोई लाभ नही होने वाला, और न ही धर्म ग्रन्थों के शब्दो के अर्थ बता कर इस बात पर बहस करने से कोई लाभ है की मेरे अर्थ तुमसे अच्छे है.. अगर आत्म भाव नही है तो ये सब भी तुम्हे नर्क में जाने से नही रोक पायेंगे.. आत्म भाव के पश्चात भी ये सब व्यर्थ है और पहले भी | इन सब जंजाल से अलग एक मार्ग और है जो सत्य को जाता है, जो तुम तक आता है, उसकी खोज करो..
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Saturday, May 19, 2018

गूरूतत्व

गूरू को जानने की अपेक्षा गूरूतत्व को जानना परम आवश्यक है जो की गूरू से बिल्कुल विपरीत है.. जब तक नही जानोगे तब तक अनंत बार गुरू बनाना पडे़गा, और अनंत बार मायिक गुरूओं का दास बनकर रहना पडे़गा । यह सत्य जीतना जल्दी स्विकारोगे उतना ही लाभ है।

Friday, May 18, 2018

सुख और आनंद?????

सुख और आनंद में कया भेद है..??

बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
इस प्रतिबिम्ब रूपी सुख के लिय मूल आनंद को कयों भूलाऐ बैठे हो ? और घोर अग्यान दोखिये अपने मूल आनंद को त्याग कर झूठे प्रतिबिम्ब के सुख को पाने के लिय और खोने के भय से अनेक देवी देवताओं की गुलामी करते हो । मूल को पकडो, स्वतंत्र बनो, झूठ में सदा भय रहता है, झूठ गुलाम बनाता है सत्य सदा स्वतंत्र है । केवल सत्य, नित्य भाव में रहो, आनंद रहो ।
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प्रणाम जी

Thursday, May 17, 2018

संत ने बृह्म को प्राप्त किया है

कभी भूलकर भी मत कहना की इस या उस संत ने बृह्म को प्राप्त किया है. बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है,

इस विषय के समानान्तर ही ओशो के विचार है..
जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं।

दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा!

स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है।

आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है।

आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता।

दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य।
वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं।

एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है।

जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं।
एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने।
पहचान लेते हो, बिना पहचाने।
सामने कोई दिखायी नहीं पड़ता।

असल में तो
जब सामने कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता,

जब सब दृश्य खो जाते हैं,
|| ओशो ||

..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..

"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """

अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की

""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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प्रणाम जी

Wednesday, May 16, 2018

विकार कम नहीं हो रहे क्या करूं

*प्रश्न = मैंने संतो से सुना है कि अंतः करण शुद्ध हुये बिना विकार समाप्त नहीं होंगे, मैं बोहोत प्रयास करता हूं पर विकार कम नहीं हो रहे क्या करूं जीवन निकला ज रहा है?*

एक बात समझ लो कि संत कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता,तुम जिसे संत कह रहे हो किसी का अहम है, इसलिए अपनी संतो के प्रति वीचार धारा को बदलो।और रही बात विकार की तो तुम कभी विकारित नही हो सकते, जिसको तुम विकार, काम,क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार आदि मान्ते हो वो तो जीव और शरीर का विषय सम्बंध है, तुम तो शुद्ध आत्मा हो तुममें कभी विकार नही आ सकते, फिर तुम कयों व्यर्थ में सवंय को आरोपित कर रहे हो.. मत लो ये आरोप अपने उपर की तुम विकारित हो..और तुम लाख प्रयत्न करलो इस शरीर से विकार अलग नहीं होगें, कयोंकी ये इस जीव का विषय है, ये जीव और शरीर बना ही विकार से है तो इनसे अलग कैसे होगा..जैसे मिट्टी के ढेले से मिट्टी को अलग नही कर सकते कयोंकी वो बना ही मिट्टी से है, इसी प्रकार तुम भी आत्मा हो आनंद हो, तुम्हारा विषय आनंद है तुम आनंद से बने हो, तुम अपना विषय भूलकर जीव व शरीर के विषय को अपने पर आरोपित मत करो, बल्कि अपना विषय शरीर और जीव को दो ताकी यो भी तुम्हारे विषय को जान सकें..ये भी आनंदित हो सकें..
प्रणाम जी
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